मंगलवार, 10 नवंबर 2015

अजय देवगन के नाम एक ख़त ।


प्रिय अजय देवगन,
                          मैं हरियाणा से हूँ और आपका वो फैन हूँ। जो एक रात में 4 फ़िल्म आपकी देखता था और फिर सुबह स्कुल में साथियो को पूरी फ़िल्म सुनाता था।
मुझे अच्छी तरह याद है की 1994-95 के दौर में हरियाणा के किसी भी गाँव में कलर TV नही होता था ब्लैक एंड व्हाइट TV भी गाँव में ढुंढने से मिलता था। उस समय रामायण देखने के लिए पूरा गाँव उस एक घर में इकठ्ठा हो जाता था जिसके घर में टीवी होता था। फ़िल्म टीवी पर आती ही नही थी। जो सायद बाद में शुरू हुई है शुक्र शनि और रविवार को।
   उस दौर में पुरे गांव में एक और प्रचलन था की जिस भी परिवार में ख़ुशी का मौका हो जैसे शादी होना, बच्चे का होना या और कोई ख़ुशी तो उस समय वो परिवार शहर से कलर टीवी और VCR किराये पर लेकर आता था और साथ में लेकर आता था 5 फ़िल्म जो पूरी रात उस ख़ुशी के मौके पर चलनी होती थी। कलर टीवी को गली में या खुले मैदान में रख दिया जाता था। फ़िल्म देखने के लिए लगभग पूरा गाँव मतलब हजारो लोग आते थे। गाँव में धर्मेन्द्र, अमिताब, विनोद खन्ना, मिथुन उस समय के सुपर स्टार हीरो थे। राजेश खन्ना, संजीव कुमार इनको कोई नही देखता था क्योकि गाँव के लोगो को तो मार धाड़ वाली फिल्म पसन्द थी।
मिथुन एक ऐसा हीरो था जिसकी फ़िल्म मजदूर बड़े चाव से देखते थे। उसको अपना हीरो मानते थे। क्योकि वो अपनी फिल्मो में मजदूर का दुख दिखाता था और उसकी लड़ाई लड़ता नजर आता था।
     अब आपको विस्वाश नही होगा की अगले दिन स्कूल लगता था तो स्कुल में छात्र नही कोई धर्मेन्द्र कोई मिथुन कोई राजकुमार जिसको जो पसन्द था वो बनकर आते वैसा ही दिखने की कोशिश करते वैसा ही बोलने की कोशिस करते। जो बच्चा किसी कारण रात के 5 फ़िल्म वाले सिनेमा को नही देख सका वो ऐसे उदास रहता जैसे उसको बहुत बड़ा नुकशान हो गया हो।
  लेकिन एक सच्चाई ये भी होती की सभी हीरो बनते थे गुंडा कोई नही बनता था। लेकिन सभी ने अध्यापको के नाम जरूर गुंडों के नाम पर निकाले हुए थे।
   उसके बाद के हीरो में दौर आता है  जो इस कल्चर का लास्ट दौर था उनमे शनि देओल, अजय देवगन, आमिर खान, अक्षय कुमार , सलमान खान
     जब हम 10-10 रुपया इकठ्ठा करके VCR लाते थे तो हम 5 फ़िल्म में से आपकी 3 या 4 फ़िल्म लाते थे।
    मेरा बड़ा भाई शारुख खान का फैन था मैं और मेरे चाचा का लड़का आपके फैन थे। हमारा दोनों भाइयो में इस बात पर हर रोज झगड़ा होता था की अजय सुपर हीरो है वो लड़ता है गुंडों के खिलाफ और शारुख खान नही लड़ता इसलिए वो कमजोर हीरो है।
समय के साथ साथ वो VCR वाली कल्चर खत्म हो गयी। लगभग घरो में कलर टीवी आ गए केबल आ गयी अब सप्ताह में 3 फ़िल्म नही अलग अलग चैनल पर पुरे पुरे दिन फिल्म चलने लग गयी। हम भी स्कुल से collage में आ गए और कालेज में वामपंथियो से जुड़ाव हो गया। मेरा भाई फैक्टरी में काम करने लग गया। लेकिन मेरा फ़िल्म देखने का शौक कम नही हुआ इतना जरूर हुआ की अब मार धाड़ वाली फ़िल्म कम और आर्ट फ़िल्म ज्यादा देखने लग गया। जिसमे नसरुदीन ओमपुरी स्मिता पाटिल शबाना अच्छे लगने लगे। लेकिन आप और आमिर खान अब भी अपनी जगह बनाये हुए थे। क्योकि आप दोनों ने कई फिल्म जातीय और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ बनाई थी। अब भी शारुख मेरा हीरो नही बन सका क्योकि वो ऐसी फिल्मो से दूर ही था।
     आपकी वो भगत सिंह पर बनी फ़िल्म दा लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह उस समय की भगत सिंह पर बनी सर्वश्रेठ फ़िल्म थी क्योकि वो पहली फ़िल्म थी जिसमे भगत सिंह के सच्चाई के पहलु दिखाए गए। उस फ़िल्म को देख क्ऱ लगा जैसे भगत सिंह सच में हमारे सामने है। आपने कितनी आसानी से भगत सिंह के विचारो को जनता के सामने पेश किया की मानव का मानव शोषण न करे, धर्म और जात के नाम पर साम्प्रदायिक झगड़े बन्द हो, मेहनतकश का राज आये, सामाजिक, राजनितिक और आर्थिक आजादी सबको मिले। हम फांसीवाद से लड़ने के लिए भगतसिंह के प्रोग्राम में आपकी ये फ़िल्म दिखाते थे।
इधर पुरे देश में भगत सिंह की विरोधी फांसीवादी विचार धारा जिसका भगत सिंह ने मरते समय तक विरोध किया भारत में नंगा नाच कर रही थी। धर्म और जात के नाम सामूहिक कत्लेआम, एक विशेष धर्म के मस्जिद, चर्च पर हमले, धर्म के नाम पर दंगे और दंगो में होता महिलाओ का बलात्कार
फासीवादी यहां तक नही रुके उन्होंने मारना शुरू कर दिया देश के बुद्धिजीवीयो को लेखको और प्रगतिशील लोगो को और इसका श्रेय जाता है भारत की फांसीवादी पार्टी बीजेपी को जो फासीवादी हिटलर को अपना आदर्श मानती है।
मेरे पाँव के निचे से जमीन खिसक गयी और मुझे बहुत ही ग्लानि महसूस हुई की मैंने ऐसे अभिनेता को अपना आदर्श माना जो उस फांसीवादी पार्टी के लिए वोट मांग रहा है। जिसके हाथ व् कपड़े लाखो निर्दोष लोगो के खून से रंगे है। जो भगत सिंह की विचारधारा के खिलाफ काम करती है।
गर्व होता है मुझे उस शारुख खान पर जो आपकी तरह सामाजिक फ़िल्म तो नही करता लेकिन असली जिंदगी में उसने फांसीवादी विचारधारा को और फांसीवादी पार्टी को करारा तमाचा मारा है व भगत सिंह के विचार के साथ खड़ा होकर उसको सच्ची श्रंधाजली दी है।
   मुझे सच में तुमसे नफरत हो गयी।
       
     Comred Udey CHE
     ±918529669491
     Hansi, Hiaar (Haryana)

शुक्रवार, 22 मई 2015

मिडिया का राजधर्म

मिडिया का राजधर्म 


आज अमर उजाला के स्थानीय संस्करण पर प्रकाशित समाचार के शीर्षक से एक बार फिर मिडिया की चालबाजी सामने आ गई । शीर्षक कहता है " जुर्म छोड़ा " यानि पहले नामित व्यक्ति किसी अपराध में शामिल पाए गए थे । लेकिन इन्होंने कोई जुर्म किया ही नहीं था इसलिए अदालत में चलाए गए मुकदमे के दौरान किसी जुर्म का होना पाया भी नहीं गया और माननीय अदालत ने नामित व्यक्तिओं को बरी कर दिया । मामला इस्माईलाबाद ग्रामीण क्षेत्र में कई साल पहले आवासीय प्लाटों की मांग को लेकर चले आंदोलन और जिला पुलिस द्वारा दलितों और यूनियन कार्यकर्ताओं पर दर्ज राजद्रोह के झूठे मुकदमों का है । यह फर्जी मुकदमा अदालत में एक कदम के लिए भी न टिक पाया था । इसके बावजूद इस आंदोलन में दलित जनता का पक्ष लेने वाले कार्यकर्ताओं को पुलिस रिकॉर्ड में आज भी " बदमाश" दर्शाया गया है ।  खबर के शीर्षक से लगता है जैसे ये लोग पहले कोई अपराध करते थे । पर ऐसा नहीं है । इनमे क्षेत्र के जानेमाने सामाजिक व राजनितिक कार्यकर्त्ता मास्टर सतीश जिन्होंने शिक्षा विभाग में अपने सेवाकाल के दौरान लगातार कर्मचारियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बाद में सेवानिवृति के बाद ग्रमीण मजदूरों के अधिकारों के आंदोलन में सक्रीय रहे और लगातार डटे हुए है । बाकि नामित व्यक्ति भी इलाके के जनवादी और दलित अधिकारो की लड़ाई के अहम चेहरे है । पत्र ने यह समाचार भले ही प्रमुखता से छापा है लेकिन अपनी तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने की सामन्ती तिकड़म से बाज नहीं आया है । ये लोग कभी भी अपराधी नहीं थे । न इन्होंने कभी कोई जुर्म किया । जिला पुलिस ने जरूर अपराध किया था क्योंकि फर्जी मुकदमा दर्ज करना एक दण्डनीय अपराध है । दूसरा अपराध  क्षेत्र के सम्माननीय व्यक्तिओं को पुलिस रिकार्ड में " बदमाश" दिखाकर किया है । क्योंकि ऐसा करने के लिए पुलिस के पास कोई क़ानूनी आधार और समर्थन नहीं है । इसलिए आयोग ने पुलिस अधीक्षक के जवाब पर गंभीर आपत्ति दिखाई है ।

जिन्होंने कभी कोई अपराध नहीं किया अमर उजाला का शीर्षक उन्हें पुराने अपराधी बताता है । समाचार पत्र और पुलिस की सोच में कोई तो अंतर होना चाहिए ।
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पूरा समाचार :

जुर्म छोड़ा पर नहीं हटता ‘बैड करेक्टर’ का ठप्पा

हर्ष कुमार सलारिया

चंडीगढ़। अपराध छोटा हो या बड़ा, एक बार भी कोई व्यक्ति पुलिस के हत्थे चढ़ा तो उसे हमेशा के लिए अपराधी मान लिया जाता है। पुलिस के रजिस्टर में उसका नाम और फोटो ‘बैड करेक्टर’ के तौर पर दर्ज हो जाता है, लेकिन अब ऐसा नहीं चलेगा। हरियाणा मानवाधिकार आयोग ने आठ पीड़ितों की याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस के जवाब पर न सिर्फ असंतोष जताया है बल्कि इस बारे में राज्य सरकार को दिशा-निर्देश देने केलिए मानवाधिकार आयोग के महानिदेशक को आठ हफ्ते में अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा है।

कुरुक्षेत्र जिले के आठ लोगों ने अपने नाम के साथ लगे पुलिस के इसी ‘ठप्पे’ से आहत होकर राज्य मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है। उप तहसील इस्माइलाबाद के गांव चम्मू कलां, गांव इस्माइलाबाद और गांव खेड़ी शहीदां केनिवासी जयभगवान, जीत राम, नरेश कुमार, दर्शन सिंह, सतीश कुमार, धर्मपाल, नरेश कुमार और बिंदर ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष याचिका देकर कहा कि वे पुलिस के रिकार्ड में ‘बैड करेक्टर’ हैं, जोकि उनके नाम के साथ 2005-06 में दो मामले दर्ज करते हुए पुलिस ने लगाया था। याचिका के अनुसार, इन मामलों में से एक आईपीसी की धारा 124ए का था, जिसमें उन्हें जमानत मिल गई और बाद में अदालत में केस खारिज हो गया। इसके अलावा दूसरा मामला आईपीसी की धारा 323, 342 व 506 के तहत दर्ज किया गया, लेकिन वे सभी इस केस में बरी हो गए। याचिका में कहा गया है कि इसकेबावजूद पुलिस ने उनके नाम के साथ लगे ‘बैड करेक्टर’ केठप्पे को नहीं हटाया, जिससे वे आज तक अपने आसपास के लोगों में अपमानित हो रहे हैं।

यह कहा मानवाधिकार आयोग ने

मानवाधिकार आयोग ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कुरुक्षेत्र के एसपी को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। एसपी ने अपने जवाब में जो कहा, उससे पुलिसिया रवैये की झलक देखकर मानवाधिकार आयोग भी चिंतित हो गया। आयोग ने एसपी के जवाब पर असंतोष जताते हुए कहा कि इस बारे में पुलिस के सारे तर्क किसी भी व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। कई मामलों में तो पुलिस ने सरकार केखिलाफ भाषण देने वालों पर भी बैड करेक्टर का ठप्पा चस्पा कर दिया, जोकि पूरी तरह गलत है। इसके अलावा पुलिस या किसी सरकारी अधिकारी से मारपीट के मामले में भी पुलिस ने इसी ठप्पे का इस्तेमाल किया, जो तय दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है। एसपी कुरुक्षेत्र के जवाब पर गौर करने केबाद मानवाधिकार आयोग ने पाया कि इस मसले पर विस्तृत अध्ययन के बाद राज्य सरकार के लिए दिशा-निर्देश जारी करना आवश्यक है। इसी के मद्देनजर आयोग ने महानिदेशक को इस मामले का अध्ययन कर आठ हफ्ते में रिपोर्ट पेश करने केनिर्देश जारी किए। मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई को होगी।

आठ लोगों की याचिका पर महानिदेशक को अध्ययन का जिम्मा सौंपा

कुरुक्षेत्र के आठ लोग छूट जाने के बाद आज तक हैं ‘बैड करेक्टर’