रविवार, 21 सितंबर 2014

मिलै ना दिहाड़ी - राजेश कापड़ो

मिलै ना दिहाड़ी - राजेश कापड़ो

मिलै ना दिहाड़ी मैं साइकिल ठाकै रोज चौक तै ठाली घर जाऊं ।
काम मिलै ना आंख पाटले मैं बाट देखकै हार्या ।
घरका चुल्हा बालण खातर ल्याऊं चून उधारा ।।
याणें बालक कररे कारा मैं क्युकर काम चलाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

गंजी होगी टाट तांसला सिर नै चाटग्या ।
धेला मिलता नहीं सांझ नै चाला पाटग्या ।।
उधार देणतै सेठ नाटग्या मैं क्युकर रोटी खांऊं ।।
मिलै ना दिहाड़ी .....

भात अर जाप्पे बहण बुआ के साक्के न्यारे-न्यारे ।
बुढ़ा-बुढ़ी पड़े खाट मै दिखण के लाचारे ।।
ना पुगे दवाई ल्या-ल्या हारे मैं क्युकर फर्ज चुकाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

सोनू-मोनू फिरैं उघाड़े ठिर-ठिर कांपै पाले मै ।
मेरी प्रेमो बोहणी हांडै कोए कसर ना चालै मै ।
मै मरग्या कति दिवाले मै किसकै मौजे ल्याऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

करड़ाई रह सिरकै ऊपर हरकै बोहत देखली ।
अदलाबदली सरकारां करकै बोहत देखली ।
आप्पा मरकै मौत देख ली मै डांगर ढाल रड़ाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

करो जापता कट्ठे होकै एकता आज बणाओ ।
जो म्हारी जान का दुश्मन उस जालिम तै भिड़ जाओ ।
झंडा लाल हाथ मै ठाओ मैं भी आगै पाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी मैं साइकिल ठाकै रोज चौक तै ठाली घर आऊं ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

हरियाणा में पुलिस दमन




राजेश कापड़ो

हरियाणा सरकार सन 2005 से ही, विभिन्न जनसंगठनों के सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर, झूठे मुकदमे थोप लगातार मानव अधिकारों का हनन कर रही है। लगभग 200 कार्यकर्ताओं को झूठे व राजनीति से प्रेरित मुकदमों में गिरफ्तार किया जा चुका है। इस तरह से फंसाए गए ज्यादातर लोग भूमिहीन व खासतौर से दलित के रूप में जाने जानेवाले निचली जातियों के गरीब किसान हैं। यमुनानगर जिले के एक देहाती मजदूर व किसान संगठन शिवालिक जनसंघर्ष मंच (एस.जे.एम) के नेता और कार्यकर्ता साढ़े तीन सालों से सलाखों के पीछे हैं। दूसरे संगठन जैसे कि छात्र संगठन जागरूक छात्र मोर्चा (जे.सी.एम) और क्रांतिकारी मजदूर किसान यूनियन (के.एम.के.यू) का भी यही हाल है। इन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता भी लगातार कई सालों से सलाखों के पीछे हैं। इन्हें उपनिवेशिक ढांचे की 121, 124ए आई.पी.सी जैसी काली धाराओं के साथ ही साथ 302, 307, 120बी आई.पी.सी आदि में फंसाया हुआ है।
ये सभी हनन केंद्र सरकार के बैनर तले हो रहे हैं, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा है- ‘आप्रेशन ग्रीन हंट’ उर्फ माओवाद विरोधी कार्रवाई। राज्य में तथाकथित माओवादी हरकतों को काबू में करने के नाम पर हरियाणा की कांग्रेसी सरकार गरीब व भूमिहीन तबकों और उनके देहाती इलाकों के जनसंगठनों के नेत्तृत्व को आतंकित करती रही है। इन संगठनों ने राज्य में, सरकार के खिलाफ ऐसा क्या किया था? सरकार ने इनके साथ ऐसा सलूक क्यों किया? अगर ये संगठन हकीकत में देश विरोधी हरकतों में शामिल थे तो इन संगठनों के कारनामे क्या थे? ये वो जरूरी सवाल हैं जिनके जवाब दिए जाने हैं।
के.एम.के.यू और एस.जे.एम देहाती इलाकों के दो किसान संगठन हैं, जो हरियाणा के जींद, यमुनानगर, कैथल, कुरुक्षेत्र आदि जिलों में सक्रिय थे। के.एम.के.यू की स्थापना देहाती मजदूरों व गरीब किसानों की मांगों, जैसे कि खेती की लागत के दाम बढ़ाना, किसानों द्वारा उपजाई खाद्य फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल करना, आदि पर हुई थी। सबसे खास बात थी कि के.एम.के.यू ने अपनी जून 2004 की स्थापना के तुरंत बाद ही भूमिहीन किसानों को भूमि सुधारों के लिए संगठित किया। भूमि के पुन: बंटवारे के मामले को खुद भारत सरकार ने नकार दिया था और राज्य स्तर पर विभिन्न राज्य सरकारों ने। यह मुद्दा सभी मुख्य राजनैतिक दलों के राजनैतिक एजेंडे से गायब हो रहा था। देश के भूमिहीन किसान दरिद्रता के जीवन में पिस रहे थे। देशभर में भूमि से जुड़े कई कानून होने के बावजूद, हरियाणा की आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा भूमिहीन है। सभी भूमि सुधार कानून नाम भर के हैं और सिर्फ सरकारी कागजातों में ही मौजूद हैं। ऐसे में सिर्फ के.एम.के.यू ने ही राज्य स्तर पर भूमि के पुन: बंटवारें का मसला उठाया था।
के.एम.के.यू ने न केवल खेती लायक फालतू जमीन का मसला उठाया बल्कि 1.रिहायशी प्लॉट के लिए जमीन, 2.जनवितरण प्रणाली (पी.डी.एस) से जुड़ी मांग, 3.सरकारी खेतिहर जमीन के पट्टे का मसला और भूमिहीन किसानों के व्यापक जनसमुदाय को संगठित करने का काम भी किया। जनविरोधी भ्रष्ट सरकारी अमले ने सरकारी खेतिहर भूमि का बड़ा पट्टा, जो कि दलित जातियों के लिए आरक्षित था, झूठी नीलामियों के जरिए सस्ते दामों पर बड़े जमींदारों के हाथों में सौंप दिया। के.एम.के.यू ने इस कदम के खिलाफ गरीब और भूमिहीन किसानों को संगठित किया और सरकारी जमीन की झूठी नीलामी के खिलाफ आंदोलन किया। यह आंदोलन राज्य के विभिन्न जिलों के कई गांवों में चलाया गया। इस संघर्ष ने गरीब जनता के साथ-साथ खुद सत्ताधारी वर्ग को भी जगा दिया। दमन का हालिया चक्र इसी संघर्ष के बाद शुरु हुआ।
पहले दौर में बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया। के.एम.के.यू के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक झूठे मुकदमों में फंसाए गए। वो लोग जो के.एम.के.यू को फंड, खाना, ठिकाना, और दूसरी मदद देते थे, उन्हें भी झूठे केसों में फंसाया गया, और गांव घसौ (जींद) के तकरीबन 50 लोगों को सलाखों के पीछे ठूंस दिया गया। जे.सी.एम छात्र संगठन के कुछ सदस्य जिन्होंने भूमिहीन गरीबों के आंदोलन में शिरकत की थी, उन्हें भी हरियाणा पुलिस ने योजनाबद्ध धरपकड़ों द्वारा गिरफ्तार कर झूठे मुकदमों में फंसा देशद्रोह (धारा 121, 124ए) के मुकदमे थोपे गए। जो कार्यकर्ता बच निकले, उन्हें पुलिस ने फरार घोषित कर, भूमिगत होने पर मजबूर कर दिया।
जे.सी.एम द्वारा प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल के खिलाफ मार्च, 2007 में नरवाना से चंडीगढ़ तक के साईकिल अभियान को राज्य सरकार द्वारा देशविरोधी गतिविधि घोषित कर दिया गया। अभियान को नेत्तृत्व देने वाले और उसमें शिरकत करने वाले छात्रों जिन में लड़कियां भी शामिल थीं, गिरफ्तार किया गया और उन पर केस दर्ज किए गए। उन्हें आठ-नौ महीने की विचाराधीन कैद के बाद जमानत पर छोड़ा गया। यहां तक कि जिला और सेशन कोर्ट ने छात्रों को जमानत देने से मना कर दिया। आखिर में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने उनको जमानत दी।
के.एम.के .यू ने कुरुक्षेत्र जिले के इस्माईलाबाद कस्बे में, शहरी गरीबों के लिए रिहायशी प्लॉटों की मांग को लेकर संघर्ष किया। संघर्ष करने वाले लोगों से देशद्रोही जैसा सलूक किया गया और बूढ़ों, औरतों और बच्चों समेत 15 कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह के आरोप में मुकदमे दर्ज किए गए।
साल 2008-09 में सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने की बाढ़-सी आ गई थी। के.एम.के.यू के दो लोगों राजेश कापड़ो और वेदपाल को जिला कैथल के गांव बालू से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें धारा 436, 307, 427 आई.पी.सी और 4 पी.डी.पी एक्ट 1984 के तहत फंसाया गया। ये गिरफ्तारियां अगस्त, 2008 में हुई थी।
मई, 2009 के संसदीय चुनावों के मद्देनजर, यमुनानगर जिले में एस.जे.एम ने झूठे संसदीय चुनावों को उजागर करने के लिए चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया। यमुनानगर पुलिस ने 17 अप्रैल, 2009 को बिना किसी शिकायत के खुद ही धारा 124ए, 153, आम्र्स एक्ट, एक्सप्लोसिव एक्ट के तहत छछरौली थाने में एफ.आई.आर नं. 54 दर्ज की और एस.जे.एम की एक कार्यकर्ता पूनम को गिरफ्तार कर लिया, जिसे जींद पुलिस ने भी मई, 2007 में देशद्रोह के झूठे मुकदमे में गिरफ्तार किया था पर बाद में सेशन कोर्ट ने उसे एक अन्य सह-आरोपी के साथ बरी कर दिया था। हिरासत में पूनम के झूठे कबूलनामे की बिनाह पर, करीब 8-10 देहाती नौजवानों को गिरफ्तार किया गया, और झूठे तरीके से इस मुकदमे में घसीटा गया। सभी नौजवान दलित व भूमिहीन परिवारों से थे। ज्यादातर यमुना नदी की रेत की खान में कामगार थे।
एस.जे.एम के एक मुख्य संगठनकत्र्ता सम्राट को दिनदहाड़े एक सरकारी बस से गिरफ्तार करके दो हफ्तों से भी ज्यादा गैरकानूनी हिरासत में रखा गया, और किसी भी कोर्ट में पेश नहीं किया गया। एक अन्य सत्या नामक महिला कार्यकर्ता को, पुरुष कार्यकर्ता संजय और मुकेश के साथ जिले की अलग-अलग जगहों से गिरफ्तार किया गया। ये सभी एक ही जिले और दलित व पिछड़ी जातियों से थे। पुलिस ने तकरीबन 35 कार्यकर्ताओं को हरियाणा भर से गिरफ्तार किया था। अन्य जिलों से जुड़े बहुत से कार्यकर्ताओं को भी इस केस के मद्देनजर गिरफ्तार किया गया था। यमुनानगर पुलिस ने न केवल छछरौली पुलिस थाने में दर्ज एफ.आई.आर नं. 54 की तफतीश की, बल्कि इसने अन्य जिलों के पुलिस स्टेशनों में पड़े अनसुलझे केसों की भी तफतीश की और अन्य बहुत से लोगों को गिरफ्तार कर उन्हें भी यमुनानगर के साथ-साथ उनके अपने जिलों के भी झूठे केसों में फंसाया। यमुनानगर जिला पुलिस द्वारा कैथल के कृष्ण कुमार व सहीराम और जींद के राजीव व गीता पर झूठे केस दर्ज किए गए।
इस संपूर्ण घटनाक्रम में पूरी राज्य मशीनरी शामिल रही। डॉक्टर प्रदीप के साथ सम्राट, संजय, मुकेश, सत्या, गीता और रिंकू इन सभी को गैरकानूनी तौर पर रखा गया और बुरी तरह से प्रताडि़त किया गया। लगभग सभी जिलों में, गुप्त प्रताडऩा कक्ष हैं जो उच्च अधिकारियों की नजदीकी निगरानी में सी.आई.ए पुलिस द्वारा संभाले जाते हैं। ये कक्ष, प्रताडऩा के सभी तरीकों के साजो-सामान से लैस होते हैं। सभी पीडि़तों को इन प्रताडऩा कक्षों में 15 दिनों तक रखा गया और 6 जून, 2009 को पी.यू.सी.आर (पब्लिक यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज) नामक मानव अधिकार संगठनों से जुड़े कुछ जनतांत्रिक संगठनों के कानूनी हस्तक्षेप के बाद यमुनानगर कोर्ट में पेश किया गया, क्योंकि पुलिस अत्याचार के खिलाफ पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में ये एक याचिका लेकर पहुंच गए थे। कोर्ट द्वारा कानूनी रिमांड की अनुमति मिलने पर इन्हें 15 दिन और पुलिस हिरासत में रखा गया।
समाचार है कि यमुनानगर अदालत ने सम्राट, रिंकू, पूनम, संजय और जगतार को देशद्रोह के आरोप से बरी कर दिया है पर बाकी आरोप अभी चलेंगे।
भूड़ गांव के चरण सिंह, मुकेश, मनवर और बिंटू, इन सभी को अप्रैल, 2009 के शुरुआती हफ्ते में कोर्ट में पेश करने से पहले, गिरफ्तार करके लगभग हफ्ते भर तक गैरकानूनी हिरासत में रखा गया था। इस्माईलपुर गांव के देवी दयाल, बरखा, प्रवीन, संजय, चंदन (70), प्रवीन, पोहला को हत्या के प्रयास के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया गया, हालांकि कुछ आरोपी कोर्ट द्वारा बरी कर दिए गए थे। दिनेश उर्फ बिल्ला, सुभाष और गांव मोमडीवाल के संजीव को एफ.आई.आर नं. 54 के तहत गिरफ्तार किया गया। दिनेश उर्फ बिल्ला के साथ गीता, राजेश कापड़ो, वेदपाल, सम्राट, संजीव को जींद जिले में एक अन्य हत्या के झूठे केस में फंसाया गया, जोकि नरवाना सदर थाने में 23 मई, 2008 को अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज था।
14 मई, 2009 को जींद पुलिस ने, 10/13 गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यू.ए.पी.ए) 1967, 25/54/59 आम्र्स एक्ट 120बी आई.पी.सी के तहत एक झूठी एफ.आई.आर दर्ज की और राजेश कापड़ो, वेदपाल, संजीव को एक गांव अभियान से गिरफ्तार किया। एक ग्रामीण टिल्कू को भी इनके साथ गिरफ्तार किया गया। जबकि मास्टर दिलशेर, एक उभरते हरियाणवी जनतांत्रिक गीत लेखक को वांटेड घोषित किया गया और गांव मंडी कलां (जींद) में उनके मकान पर पुलिस ने छापा मारकर गिरफ्तार किया। उन्हें सी.आई.ए पुलिस द्वारा शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया गया, और बाद में बिना किसी आरोप के बरी कर दिया। उन्हें किसी भी तरह की सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों में शिरकत करने पर, कड़े नतीजे भुगतने की धमकियां दी गई थी। और इसी गांव के देवेंद्र उर्फ काला को भी उसकी शादी के कुछ दिन पहले ही घर से गिरफ्तार कर लिया गया। वह एक देहाती मजदूर था और जे.सी.एम का भूतपूर्व कार्यकर्ता भी। उसे पहले भी 12 अन्य छात्रों के साथ देशद्रोह के झूठे आरोपों में फंसाया गया था, मगर बाद में सेशन कोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया था। लेकिन पुलिस ने उसे राजनैतिक मंशा से दोबारा गिरफ्तार किया। स्थानीय अखबारों ने उसकी बेगुनाही को उजागर करते हुए साफ तौर से बताया भी कि वह पुलिस द्वारा गैरकानूनी तरीके से उठाया गया था। उसकी 18 मई को शादी तय थी, मगर वह जींद सी.आई.ए में पुलिस रिमांड पर था। वह पांच महीने बाद घर लौटा मगर तब तक उसकी शादी टूट चुकी थी। उसने खुदकुशी करके अपनी जिंदगी का मायूसी भरा खात्मा कर लिया।
कैथल पुलिस ने जींद पुलिस के साथ तालमेल बनाकर गांव बालू में शमशेर सिंह जिसकी तीन साल पहले मौत हो चुकी थी, उसे गिरफ्तार करने के लिए छापा मारा। इसी गांव के कृष्ण कुमार को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने धड़ाधड़ कई छापे मारे। उसके बड़े भाई धीरज को बंदी बनाकर कृष्ण पर आत्मसमर्पण करने का दबाव बनाया गया। धीरज को भी बुरी तरह से प्रताडि़त किया गया, आखिरकार इस तरह पुलिस ने कृष्ण को गिरफ्तार कर लिया। के.एम.के.यू कार्यकर्ताओं के कुछ मोबाईल नंबर ढूंढने के लिए एक एस.टी.डी बूथ मालिक को भी पुलिस द्वारा घेरा गया। पुलिस ने उसे इतना आतंकित किया कि उसने इस घटना के बाद अपना बिजनेस ही बंद कर दिया।
लगभग तीन साल के अरसे के बाद भी पुलिस धारा 173 सी.आर.पी.सी व चार्ज शीट के तहत आखिरी तफतीश की रिर्पोट जमा नहीं करा पायी। तफतीश की यह नाकामयाबी इस सारे मुकदमे को एक अकेला झूठ साबित करती है। जबरदस्त दमन के इस मार्ग को प्रशस्त करने में मीडिया एक खास भूमिका अदा करता है। यह राजनैतिक आंदोलन से जुड़ी खबरों को सनसनीखेज बनाता है। साल 2000 से ही, बहुत सारी सनसनीखेज खबरें लगभग सभी दैनिक अखबारों में कई बार छापी गईं, कि राज्य में कुछ जनसंगठन माओवादी गतिविधियों में शामिल हैं या कुछ खास संगठन सरकार की नजर में हैं, इत्यादि। एक तरफ मीडिया पुलिस को सख्ती करने के लिए उकसाती रही, और दूसरी तरफ पुलिस ज्यादत्तियों पर गौर करने की बजाए, मुंह पर पट्टी बांधे रही। ये हालात पुलिस को जनतांत्रिक आंदोलनों का दमन करने के लिए अनुकूल माहौल देते रहे। इस घटनाक्रम पर सभी विपक्षी दल भी चुप्पी साधे रहे, और किसी भी तरह की राजनैतिक या अन्य कोई दखलंदाजी नहीं की।
कुछ पीडि़त कैद के लंबे दौर के बाद जमानत पर रिहा हो चुके हैं। पर वे राज्य और साथ ही साथ केंद्र की भी जांच एजेंसियों की लगातार निगरानी में हैं। हालिया बरी हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं पर दबाव बनाने के लिए ये जांच एजेंसियां उन्हें गैरकानूनी तरीके से गंभीर नतीजों के प्रति लगातार धमकाती रहती हैं। इसी गैरकानूनी चलन से हिसार की सी.आई.ए पुलिस ने राजेश कापड़ो को पूरे एक दिन के लिए बंधक बनाए रखा। हिसार पुलिस ने 2 फरवरी, 2012 की अल सुबह गांव कापड़ो में राजेश कापड़ो की रिहायश पर छापा मारा, उन्होंने मकान की तलाशी ली और उसे गिरफ्तार कर लिया। 2 फरवरी, 2012 की तारीख तरणजीत कौर जे.एम (आई) सी नरवाना की कोर्ट में सुनवाई के लिए तय थी, इसी दिन पुलिस ने उसे बंदी बनाया और बाद में छोड़ दिया। पुलिस जानबूझ कर उसे कोर्ट से गैरहाजिर करके कोर्ट की प्रक्रिया को बाधित करना चाहती थी, ताकि नतीजतन जमानत की शर्तों के उल्लंघन के जुर्म में कोर्ट उसके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दे।
राज्य में जगह-जगह हाई-टेक होल्डिंगों पर मोटे अक्षरों में हरियाणा सरकार की उपलब्धियों के इश्तिहार लगे हैं जो हरियाणा को खूबसूरत रंगों में ऊंची विकास दर, बढ़ती प्रति व्यक्ति आय, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विकास आदि के साथ पेश करते हैं। लेकिन इस तस्वीर का स्याह पहलू गैरहाजिर है जो राज्य के दलितों और 25 प्रतिशत भूमिहीनों के नारकीय जीवन की कथा छिपाए है।

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

ये दीवारें गिरेँगी -- राजेश कापड़ो


ये दीवारें गिरेँगी,ये पहरे हटेगेँ !
लोहे के पिँजरोँ से पंछी उड़ेँगे !!
मिटा दे चमन को या फूलों को मसले
वो गुलिस्ताँ की खुशबू मिटा ना सकेंगे !

ये जमना के धारे ये सतलुज की हलचल
वो गंगा पे पहरा लगा ना सकेंगे !

ये फाँसी के फंदे ये बिजली के हँटर
दिवानों का मस्तक झुका ना सकेंगे !

स्वर्गोँ की दुनिया मुबारक हो तुमको
ये महलों के झाँसे हिला सकेंगे !

कमेरोँ के आँगन में लाखों अँधेरा !
वो लहू के चरागे बुझा ना सकेंगे !

ये भाड़े की फौजेँ बड़े तोपखाने !
बस्तर को आँखें दिखा ना सकेंगे !

ये कुत्तों की भों-भों सियारोँ की चिं-पों !
पपीहे सी सरगम सुना ना सकेंगे !

ये दीवारें गिरेँगी ये पहरे हटेँगेँ !
लोहे के पिँजरोँ से पंछी उड़ेँगे !!

अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति

 


अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति
विशेष लेख
आतंक के खिलाफ युद्ध अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का मंत्र है. आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है…
राजेश कापड़ो
अमरीकी अर्थ व्यवस्था एक यु्द्ध–अर्थव्यवस्था है . अमरीका आज विश्व के कई हिस्सों में युद्ध में उलझा हुआ है . बराक ओबामा बेशक युद्ध विरोधी भावना जो कि अमेरिका के लगातार युद्धों में फंसे रहने के फलस्वरूप पूरे देश में उभार पर थी, पर सवार होकर सत्ता पर काबिज हुआ . अमेरीकी युद्ध विरोधी अभियान ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व भर के अमन पसंद लोगों को एक भ्रम था कि हाँ, यह कुछ कर सकता है . लेकिन अब यह भ्रम मिट चुका है ओबामा प्रशासन ने व्हाईट हाऊस पर काबिज होने के बाद न केवल अफगानिस्तान में सैनिक बलों की संख्या में बढ़ोतरी की, बल्कि किसी भी प्रकार से अफगानिस्तान में डटे रहने की शपथ भी ली.
विश्व व्यापी आर्थिक संकट से उभरने के लिये युद्ध डांवाडोल अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए प्राण वायु जैसा काम करता है . युद्ध अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिये सस्ते संसाधन तो मुहैया करवाता ही है बल्कि युद्धों के फलस्वरूप तत्काल रूप से भी फायदा पहुंचता है . इसलिए अमरीकी राज्य द्वारा जान बूझ कर हथियार उद्योग को बढ़ावा दिया जा रहा है . अपने अधीनस्थ राज्यों को दबाव में लेकर हथियार बेच रहा है . यह सब कुछ अधीनस्थ राज्यों में सत्ता पर काबिज सरकारें अपने अपने सैन्य बलों के हथियारों की अपडेटिंग और अपग्रेडिंग के नाम पर कर रही हैं .
तथाकथित आतंक के खिलाफ युद्ध भी अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का ही मंत्र है . यह दुनिया भर में सैन्य रूप से अमरीकी आधिपत्य को तो जायज ठहराता ही है, साथ ही अमरीकी हथियार निर्माताओं के लिए बाजार भी पैदा करके देता हैँ . आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है . पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों को इस श्रेणी से सहायता प्रदान की जाती रही है . युद्धक सामान बनाने वाली कम्पनियों ने अमरीकी राज्यतंत्र पर कब्जा कर लिया है, इसलिये दुनिया भर में युद्ध होते रहे हैं .
यह अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है . यह सब आतंकवाद से लडऩे के नाम पर किया जा रहा है . शांति कायम करने के नाम पर किया जा रहा है . विश्वभर में अमरीकियों को और ज्यादा सुरक्षित करने के नाम पर किया जा रहा है . अमेरिका ने 2010 में विश्व के समुचे हथियार बाजार पर अधिपत्य जमा लिया . अमेरिका की कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की परम्परागत हथियारों की रिपोर्ट पर गौर करें तो 2011 में अमेरिकी सरकार द्वारा 21.3 बिलियन के हथियार बेचने के ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए गए हैं . 2009 में ऑर्डर हस्ताक्षर करने में कुछ कमी आई थी, लेकिन 2011 में इसमें जबरदस्त बढ़ोतरी हुई . 2009 में देखा जाए तो कुल विश्व शस्त्र बाजार में अमेरिका का हिस्सा 35 प्रतिशत था जो कि 2010 में 53 प्रतिशत हो गया .
अमेरिकी कम्पनियों ने 2010 में 12 बिलियन डालर के हथियारों की वास्तविक आपूर्ति की और लगातार आठ वर्षों से अमेरिका इस मामले की अग्रणी है . हथियारों की होड़ लगी हुई है . विभिन्न हथियार निर्यातक देश इस होड़ को अपने बाजार के स्वार्थों के वशीभूत होकर बढ़ावा दे रहे हैं . मान लीजिये अमरीका ने भारत को एक उच्च किस्म का सैन्य सामान बेचा तो वह इसके साथ ही पाकिस्तान को भी आश्वस्त कर रहा है कि इसको टक्कर देने के लिये फलां किस्म का हथियार उसे भी बेचा जा सकता है . वास्तव में अमेरीकन अर्थव्यवस्था का उदय ही एक युद्ध अर्थतंत्र के रूप में हुआ था . दोनों बदनाम विश्व युद्धों के दौरान अमरीका हथियार उत्पादक राज्य के रूप में उदित हुआ, जिसकी समृद्धि युद्ध में हैं शांंति में नहीें . आज भी इसका वही चरित्र बना हुआ है .
रशियास् सैंटर फॉर एनालीसिस ऑफ वर्ल्ड आर्म ट्रेड की अगस्त 2012 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व का सैन्य साजोसामान का निर्यात 69.84 बिलियन डालर पर पहुंच चुका है, जोकि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के अपने उच्चत्तम स्तर पर है . पिछले एक वर्ष में ही इसमें 3.84 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है . 2011 में यह 67.26 बिलियन डालर था जो कि 2010 के 56.22 बिलियन डालर से 20 प्रतिशत ज्यादा है . पूरे विश्व को हथियारों से ढक देने का यह क्रूर अभियान ऐसे समय चल रहा है जबकि दुनिया भर में कुपोषित बच्चों की संख्या 10 करोड़ पहुँच गई है .
कांगो, सोमालिया और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा अकेले भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादी–शुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
कांगो, सोमालिया और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा अकेले भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादीशुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका के घटनाक्रमों को भी अमरीकी युद्ध अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखकर ही समझना चाहिये . इस क्षेत्र में दिसम्बर 2011 के बाद आए जन उभार अमरीकी सैन्य साजोसामान बनाने वाली कम्पनियों के लिये बाजार मुहैया करवा रहे हैं . बहरीन, टयूनिशिया, मिश्र, यमन आदि देशों की सरकारों को यह कम्पनियाँ भीड़ नियन्त्रण के साजोसमान जैसे प्लास्टिक की गोलियाँ, आँसू गैस के गोले आदि बेच रही हैं . मानवाधिकारों को पैरों तले रौंदने वाले तानाशाह शासनों की खुली मदद कर रही हैं . सऊदी अरब ने वर्ष 2010 में 60 अरब डालर में अमरीका निर्मित एयरकाफ्रट की खरीद को सिद्धाँत रूप से हरी झण्डी दिखा दी है . जो तानाशाह अमरीका या पश्चिम के हितों से मोल भाव करने में तालमेल नहीं बिठाते हैं, उन्हें लोक तन्त्र स्थापित करने के नाम हटाना अमरीकी राज्य का कोई नया हथकण्डा नहीं है.
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं लोकतंत्र’ की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .
इस कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि 2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल 3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष 2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है . उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं . अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए . 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31 प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार किए .
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं लोकतंत्र’ की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .
इस कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि 2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल 3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष 2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है . उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं . अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए . 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31 प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार किए .
इटली, फ्रांस, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोपीय शस्त्र निर्माताओं ने 2009–10 में विकासशील देशों के साथ ऐसे क्रमश: 24 प्रतिशत और 13 प्रतिशत आर्डर प्राप्त किए . हथियार खरीद के समझौतों के कुल मूल्य के मामले मे 2003–2006 के काल में रूस ने अमरीका को पीछे छोड़ दिया था लेकिन 2007–2010 की अवधि में अमरीका ने फिर ओवरटेक कर लिया है . पिछले आठ वर्ष से अमेरिका और रूस दोनों ही विकासशील देशों का हथियार निर्यात करने वाले प्रमुख देश रहे हैं .
पिछले आठ वर्षों में विभिन्न हथियार निर्यातक राज्यों द्वारा विकासशील देशों को बेचे गए कुल हथियारों के मूल्य पर गौर करें तो अमरीका पहली पंक्ति था. इन आठ वर्षों में अमरीका ने विकासशील देशों को कुल 60 अरब डालर के हथियार बेचे . रूस ने 38 अरब डालर तो, ब्रिटेन ने 19 अरब डालर के हथियारों की बिक्री की . फ्रांस ने 12.13 अरब डालर, चीन ने 11 अरब डालर, जर्मनी ने 6 अरब डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे . इजराईल ने 3.5 अबर डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे .
एशियाई बाजारों में भी अमरीकी दखल बढ़ा है . 2003–2006 के काल में अमरीका द्वारा ऐशियाई देशों के साथ कुल मूल्य के 17 प्रतिशत ऑर्डर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2007 से 2010 के काल में 26 प्रतिशत तक बढ़ गये . इसी चर्चित अवधि मे रूस का हिस्सा 2003 से 2006 के दौरान 36 फीसदी, और 2007 से 2010 के बीच में 30 फीसदी रहा . निकटवर्ती पूर्वी देशों के साथ अमेरिका ने 2003–2006 में कुल हस्ताक्षर किए गए मूल्य के 33 फीसदी आर्डर हस्ताक्षर किए और 2007–2010 के काल में यह आश्चर्यजनक रूप से 57 प्रतिशत तक बढ़ गया .
भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयात करने वाला देश बन गया है . भारत की हथियार आयात के विस्तार की योजनाओं पर नजर डाले तों यह अगले दस वर्ष में 100 अरब डालर पार करने वाला है . विभिन्न अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियां जेसै बोईंग आदि इस विशाल सैन्य बजट से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने के लिए मचल रही हैं . भारत की योजना अगले पांच वर्ष में सैन्य साजोसामान पर 55 अरब डालर खर्च करने की है .
भारत के साथ 1.4 अरब डालर की लागत वाले 22 हमलावर हेलीकॉप्टर के सौदा करने के मामले में अमरीका ने रूस को पछाड़ दिया है . अमरीकी कम्पनी बोइंग के साथ यह करार भारत सरकार ने कर लिया है . रूस ने भारत के सामने एम आई–26 बेचने का प्रस्ताव रखा है, तो अमरीका बदले में सी एच–47 शिनूक का प्रस्ताव रख रहा है . रूस भारत को भारी वजन लेकर उडने वाले 15 हेलीकॉप्टर बेचने के मामले में अमरीका से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है . स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2007–2010 के काल में 80 फीसदी हथियार, जोकि 207 अरब डालर के मूल्य के हैं, रूस से खरीदे हैं .
यूपीए गठबंधन सरकार ने वर्ष 2012–13 के अपने रक्षा बजट में 17.63 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है . इस वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 193407.29 करोड़ रूपये सैन्य बजट के लिये आबंटित किये हैं . वित्त वर्ष 2009–10 में भी रक्षा बजट में 34 प्रतिशत की बेतहाशा बढ़ोतरी भारत सरकार कर चुकी है . अमरीकी कम्पनी बोईंग अपने पहले दस सी–17 ग्लोब मास्टर–111 जून, 2013 में भारत को बेचेगी . इनकी खरीद का ऑर्डर 2011 में दिया जा चुका है .
भारत अमरीका से 4.1 अरब डालर यानि 22,960 करोड रूपये की लागत वाली यूएस एयर फोर्स वर्कशाप खरीदना चाहता है . इसका उपयोग अमरीकी सैन्य बलों द्वारा इराक एवं अफगानिस्तान में व्यापक रूप से किया गया था . अब तक का यह सबसे बड़ा रक्षा समझौता दोनों सरकारों के बीच होना है . 2011 में ही भारत सरकार ने अमरीका से हवा एवं पानी में एक साथ काम करने वाले ट्राँस्पोर्ट वैसल 50 मिलियन डालर मूल्य में खरीदा है . साथ ही इसके साथ काम करने वाले 6 यूएच–3 एच हेलीकॉप्टर भी खरीदे हैं, जिनकी कीमत 49 मिलियन डालर आँकी गई है .
इसके अलावा 200 मिलियन मूल्य की पनडूब्बी विरोधी हारपीन मिज़ाइलें और सी–130 लम्बी दूरी की एकाऊस्टिक डिवाईसिस व अन्य रक्षा साजोसामान, जिनका मूल्य 2.1 मिलियन डालर है, अमरीका से खरीदा गया है . अमरीकी शासक वर्गों की पैदाईश –आतंकवाद के खिलाफ युद्ध– ओर कुछ नहीं, बल्कि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों के लिए बाजार मुहैया करवाने का मन्त्र है . भारत के शासक वर्ग सहित सभी एशिया, अफ्रीका महाद्वीप के दलाल शासक भी अमरीका के सुर में सुर मिलाकर यही जाप कर रहे हैं .
भारत चीन सीमा पर संभावित खतरों के नाम पर भारत के शासक वर्ग सैन्य तैयारी बढ़ा रहे हैं . बढ़ते हुए सैन्य खर्चों को विदेशी आक्रमण का भय दिखा कर जनता के एक हिस्से खासकर मध्यम वर्गों को अपने पक्ष में करने का यह एक शासक वर्गीय हथकंडा है, जिस पर बाकायदा राष्ट्रवाद का रंग चढ़ा हुआ है जोकि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है .