गुरुवार, 23 मार्च 2017

दलित लड़की का गैंगरेप, विरोध करने पर भाई की उंगलियां काटीं


योगी जी की पुलिस पहले गैंगरेप के सबूत मिटाती है फिर चार दिन बाद ​मुकदमा दर्ज करती है



मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही एक्शन में आए योगी आदित्यनाथ के प्रदेश की स्थिति यह है कि वहां चार ब्राह्मण जाति के लड़के जीतू, बॉबी, रितेश और प्रवीण पहले एक नाबालिग दलित लड़की का गैंगरेप करते हैं, भाई द्वारा विरोध करने पर उसकी उंगलियां काटते हैं, पेट में चाकू से 10 बार से ज्यादा वार करते हैं, मरा हुआ जानकर छोड़ जाते हैं और पिता शिब्बू जब इन घटनाओं को बताने के लिए पुलिस को फोन करते हैं तो इलाके का एसएचओ पीड़िता के बाप को एक रात हवालात की हवा खिलाकर कुटाई करता है कि तुम अपना केस वापस लो, मासूम लड़कों को बलात्कार जैसे संगीन आरोप में न फंसाओ, उनकी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।

और जब पिता ऐसा नहीं करता है तो आरोपियों के परिजन 17 वर्षीय नाबालिग पीड़िता के पिता के घर की छत में छेद करते हैं, उसे बाहर निकालते हैं, दम भर कु​टाई करते हैं और फिर घर लूटकर फूंक देते हैं। जिसमें दो मोटरसाइकिलों समेत सबकुछ जलकर खाक हो जाता है। साथ ही आरोपियों के परिजन धमकाते हैं अब राज बदल गया है. भाजपा विधायक अनिल शर्मा भी हमारा, पुलिस भी  हमारी. इस बीच वाल्मिकी परिवार खेतोंखलिहानों के रास्ते भागते हुए बुलंदशहर जाकर अपनी जान बचाता है। लूटपाट, आगजनी और जान से मारने की कोशिश के मामले में  मनोज, मनोज की घरवाली, पंकज, मुकेश, मनीष, नीतू, सोनू, राधा शर्माशिवदत्त, सत्ता, वीरेंद्र और सोमू पर मुकदमा दर्ज है। पर एक भी गिरफ्तारी अबतक नहीं हुई है।

जी, हां। यही हुआ है यूपी के बुलंदशहर जिला के थाना जहांगिराबाद के ​कटियावली गांव में। गांव में तीन घर वाल्मिकी और पूरा गांव ब्राह्मणों का है। 14 मार्च की शाम 7.30 बजे अपने घेर (घर से अलग थोड़ी दूर पर जहां जानवरों को पालते हैं) पर पीड़िता जानवरों को बांधकर लौटने की ही वाली थी कि चार ब्राह्मण जाति के लड़कों ने उसको दबोच कर गैंगरेप किया। रेप करने वाले चारों आरोपियों की उम्र 20 से 30 साल के बीच है।

पीड़ित पक्ष के वकील रणवीर सिंह लोधी बताते हैं, '14 मार्च की घटना का मुकदमा 18 मार्च को दर्ज हुआ। जहांगीराबाद थाना प्रभारी श्यामवीर ​सिंह ने मुकदमा दर्ज करने की बजाए पीड़िता के पिता को ही हवालात में डाल दिया और मुकदमा नहीं लिखाने पर दबाव बनाने लगे। दो दिन बाद में जब ये लोग मेरे पास आए तो एसएसपी सोनिया सिंह के हस्तक्षेप पर धारा 376, एसएसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज हुआ है। हालांकि अब तक चारों में से किसी आरोपी की गिरफ्तारी पुलिस नहीं कर सकी है। पुलिस ने यह जरूर किया है कि आरोपियों के साथ मिलकर ज्यादातर सबूत मिटा दिए हैं।'

मुकदमा दर्ज कराए जाने के बाद पीड़ित परिवार गांव लौटने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। मगर सरकार की ओर से अब तक पीड़ित परिवार के लिए न तो रहने की कोई व्यवस्था, न सुरक्षा और न ही कोई आर्थिक मदद मिली है। पीड़िता के भाई को बुलंदशहर जिला अस्पताल से दिल्ली रेफर कर दिया गया है। वहां के डॉक्टरों ने बताया कि पीड़िता के भाई राजा की हालत नाजुक है, उसे बेहतर ईलाज की जरूरत है।

गौरतलब है कि 14 मार्च की शाम पीड़िता की चीख सुन उसका भाई राजा उसको बचाने के लिए दौड़ा आया। भाई को देख चारों ने लड़की को छोड़ उस पर हमला कर दिया। दरिंदों ने बचाव करते भाई के हाथ की चार उंगलियां काट दीं और 10 बार से ज्यादा बार चाकू से वार किया। इस जघन्य वारदात की सूचना के लिए पीड़िता के पिता ने रात में कई बार पुलिस के 100 नंबर पर फोन किया पर कोई नहीं आया। पीड़िता के पिता शिब्बू अन्य रिेश्तेदारों के साथ बेटे को नजदीकी अस्पताल में ले गए।

जनज्वार डोट कोम से साभार

एक कदम आगे चार कदम पीछे

एक कदम आगे चार कदम पीछे
समर


अन्तरराष्ट्रीय खाद्यान्न नीति शोध संस्थान ने हाल में साल 2016 के आंकड़े जारी किये हैं। यह अन्तरराष्ट्रीय संस्थान विभिन्न देशों में कुपोषण और भुखमरी से संबंधित आंकड़े जारी करता है। भारत के संदर्भ में जारी इसके आंकड़े बेहद परेशान करने वाले हैं। इसने जिन 118 देशों में अपना अध्ययन किया उसमें भारत का स्थान 97वां है। यानि कुपोषण के मामले में दुनिया के केवल 21 देश भारत से पीछे हैं। इलैक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया में इस को लेकर जरा सी भी हलचल दिखाई नहीं दी। स्वाभाविक भी है कि जिस तिलस्मी संसार में रहने का वे भ्रम पाले हैं या जनता को भ्रम में रखना चाहते हैं, ये आंकड़े उस मायावी दुनिया को तार तार कर देते हैं। जिस कुपोषण की महामारी से भारत जूझ रहा है, उसमें 36 इंच का सीना बनाने के केवल ख्वाब देखे जा सकते हैं। पता नहीं ये सभ्य नागरिक कहां से 36 इंच से लेकर 56 इंच का सीना तान कर कहते हैं कि भारत एक महाशक्ति बन रहा है। असलियत में भारत आज भी गरीब और कुपोषित लोगों का देश है वरना यह कैसे हो सकता है कि हमारे यहां 5 साल से कम उम्र के बच्चाें में से 43 प्रतिशत कुपोषण के शिकार हैं। 48 प्रतिशत बच्चों की लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से कम है। यह आंकड़ा बताता है कि कुपोषण की इस समस्या से ये बच्चे कोई दो चार महीनों से नहीं बल्कि लंबे समय से यानि जन्म से और ज्यादातर मामलों में तो जन्म से पहले से ही जूझ रहे हैं। 
लेकिन इससे भी ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि इस मामले में भारत दुनिया के सबसे गरीब कहे जाने वाले सब-सहारा देशों से भी पिछड़ गया है। जरा कुछ तथ्य देखिये।


               देश का नाम    5 साल से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिग की दर     प्रति व्यक्ति जीएनपी (क्रयशक्ति के अनुसार) अमरीकी डॉलर

  • घाना                         23 प्रतिशत                                           1910
  •  माली                 28 प्रतिशत                                           1140
  • बुरकिना फासो          33 प्रतिशत                                           1480
  • केमरून                  33 प्रतिशत                                           2270
  • युगांडा                  33 प्रतिशत                                            1300
  • केन्या                   35 प्रतिशत                                            1730
  • नाइजीरिया           36 प्रतिशत                                            2400
  • भारत                   39 प्रतिशत                                             5050

 (स्टंटिंग की दर का अर्थ है कि बच्चे की उम्र के अनुसार उसकी लंबाई नहीं बढ़ती। यह दीर्घकालिक कुपोषण की ओर इशारा करता है।)
उपरोक्त आंकड़े बता रहे हैं कि भारत की प्रति व्यक्ति क्रयशक्ति ज्यादा होने के बावजूद कुपोषण की दर इन गरीब अफ्रीकी देशों से कहीं ज्यादा है। इससे दो बातें साबित होती हैं। पहली चूंकि ये आंकड़े औसत की बात करते हैं इसलिए भारत में अमीर और गरीब की खाई इन देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है और दूसरा देश में सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो, उसके एजेण्डा में कुपोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ना कभी नहीं रहा। वर्तमान सरकार के चाटुकार इस बात से तसल्ली ले सकते हैं कि यह समस्या इस सरकार की दी हुई नहीं है लेकिन यह सरकार भी इस गंभीर समस्या के खिलाफ लड़ाई में पिछली सरकारों से भिन्न नहीं है। निम्न आंकड़े इसी बात को प्रमाणित करते हैं ।
केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले कुल खर्च का अध्ययन करने से पता चलता है कि शिक्षा पर होने वाला खर्च पिछले आठ सालों में ठहराव में है जबकि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कटौती की गयी है। शिक्षा पर साल 2008-09 में कुल सरकारी खर्च का 10-1 प्रतिशत खर्च होता था जो साल 2014-15 में 10-2 प्रतिशत था। इसी समय के दौरान स्वास्थ्य पर यह खर्च क्रमशः 4-6 प्रतिशत और 4-0 प्रतिशत रहा। खर्च में कटौती का मतलब साफ है। न तो कोई केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ‘बेकार’ चीजों पर खर्च करना चाहती हैं। अब अगर देश में कुपोषण और भुखमरी से मौतें होती हैं तो इनकी बला से। 
प्रत्येक जागरूक नागरिक यह बात जानता है कि कमजोर शरीर में कमजोर दिमाग रहेगा। देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों में से आधे अगर कुपोषण का शिकार बनेंगे तो देश कहां जाएगा? क्या ‘देशभक्तों’ को यह बात नहीं सोचनी चाहिए! कुपोषण की समस्या का एक परिणाम हमें तपेदिक की बीमारी (टीबी)के रूप में दिखाई दे रहा है। दुनिया के आधे तपेदिक के मरीज भारत में हैं। वैश्विक तपेदिक रिपोर्ट 2016 के अनुसार इस साल देश में तपेदिक के 28 लाख मरीज हैं जबकि पूर्वानुमान केवल 17 लाख मरीजों का था। लेकिन सरकार इसे लेकर परेशान नहीं है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अनुसार यह बेहतर रिपोर्टिंग की वजह से है, अन्य किसी कारण से नहीं। यानि सरकार की मंशा इन आंकड़ों के प्रति फिलहाल आंखे बंद करके रहने की है। 
अगर यह कहा जाए कि कुपोषण की इस समस्या के प्रति सरकारों ने कुछ किया ही नहीं, तो ऐसा कहना सरकार के प्रति नाइंसाफी होगी। जनता तक खाद्यान्न पहुंचाने के सरकार के तीन मुख्य कार्यक्रम हैं। पहला सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसके तहत देश के गरीब और अति गरीब लोगों को सस्ते दाम पर अनाज पहुंचाने का प्रावधान है। दूसरा आईसीडीएस के तहत चलाई जा रही आंगनवाडि़यां जहां 6 साल तक के बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था है और तीसरा स्कूलों मे चलाए जा रहे मिड-डे मील कार्यक्रम जिसमें स्कूली बच्चों को दोपहर का खाना दिया जाता है। 
पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बेहद सीमित कर दिया गया है। पिछले 25 सालों में विभिन्न सरकारों की एक सोच यह रही है कि अगर किसी कार्यक्रम के वांछित परिणाम नहीं निकल रहे तो उसके कारणों पर जाकर उनका समाधान करने की बजाय वे इसे बंद करने के लिए बहाने के रूप में इस्तेमाल करती आई हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के नाम पर इस कार्यक्रम को सीमित कर दिया गया। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न सरकारें कल्याणकारी राज्य होने का दावा करती हैं और अपनी पीठ थपथपाती हैं। ये कार्यक्रम कई सालों से चल रहे हैं। इसके बावजूद साल 2016 में अगर आधे बच्चे अभी भी कुपोषित हैं तो समझा जा सकता है कि कहीं न कहीं कोई गंभीर समस्या है जिसे आज तक की कोई भी सरकार या तो दूर नहीं कर पायी या उसने दूर करने का प्रयास ही नहीं किया। 
खाद्य सुरक्षा से संबंधित इन तीनों कार्यक्रमों में मौजूद खामियाें को दूर करने के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे। मसलन मिड डे मील कार्यक्रम में खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डारण की एक बड़ी समस्या है। बहुत से स्थानों पर अध्यापकों को पढ़ाने के स्थान पर स्वयं इसे सुनिश्चित करने में वक्त लगाना पड़ता है। बजट सही वक्त पर नहीं पहुंच पाता। अध्यापकों को अपनी जेब से पैसा खर्च करना पड़ता है। मध्य प्रदेश सरकार ने बच्चों में प्रोटीन की कमी को दूर करने के लिए इस कार्यक्रम में अण्डा शामिल करने की योजना बनाई थी जिसे धर्म के ठेकेदारों ने सिरे नहीं चढ़ने दिया। 
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सरकार ने पूरी तरह आधार से जोड़ दिया है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि किसी भी कल्याणकारी योजना को आधार से न जोड़ा जाए लेकिन सरकार ने इस दिशा निर्देश को दरकिनार कर दिया है।  इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से सुपात्र इस योजना से वंचित हो गये हैं। खास तौर पर बुजुर्ग लोग जिनके हाथ के अगूंठे का निशान नहीं मिलता या जिनके पास आधार कार्ड नहीं है, वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर हो गये हैं। बहुत से लोग जो पीले राशन कार्ड और गुलाबी राशन कार्ड के घोटाले में पिस गये और अपने लिए गुलाबी राशन कार्ड नहीं जुटा पाए, वे पहले ही इससे बाहर हो चुके थे। सरकार की निगाहों में जो गरीब नहीं हैं लेकिन जिनका जीवन स्तर बेहद निम्न स्तर का है और जिन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली से राहत मिलनी ही चाहिए थी, वे भी इससे बाहर हैं। 
इन तीनों कार्यक्रमों में घटिया सामग्री की आपूर्ति तो खैर लंबे समय से चली आ रही समस्या बनी ही हुई है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में गेंहू की बोरियों में भरी मिट्टी की आपूर्ति तो कई दिनों तक मीडिया में भी छाई रही थी। 
लेकिन एक और विषय जो कोई सरकार सोचने की जहमत नहीं उठाती, और जो इन तीनों कार्यक्रमों में कॉमन है कि यह आम जनता को भिखारी वाली स्थिति में खड़ी कर देती है। चूंकि भिखारी के पास अपना कोई अधिकार नहीं होता इसलिए दान देने वाला जो दे, उसे स्वीकार करना उनकी नियति होता है। देश की जनता को इस सरकारी खैरात की जरूरत ही क्यों पड़ रही है? क्यों नहीं जनता खुद अपना ध्यान रख सकती?? सरकारें खैरात कार्यक्रम को जारी रख सकती हैं लेकिन जनता को आत्मनिर्भर बनाने वाला कार्यक्रम यानि रोजगार मुहैया नहीं करवा सकती। पिछले 25 सालों में जो नीतियां देश की हर सरकार ने जारी रखी हैं, उन नीतियों ने देश में रोजगार विहीन विकास किया है। यहां बात सरकारी नौकरियों की नहीं की जा रही बल्कि सरकारी या निजी क्षेत्र कहीं पर भी, रोजगार के सृजन की है जो लगभग नगण्य है। मौजूदा भाजपा सरकार भी प्रत्येक साल 2 करोड़ नौकरियों का वायदा कर सत्ता में आयी थी लेकिन स्वयं सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि इन सालों में महज चंद लाख नौकरियों का सृजन हुआ है। न तो मेक इन इंडिया कार्यक्रम नौकरियां दे पाया है और न ही स्टार्ट-अप इंडिया। बिना नौकरियों के जनता को सरकारी कार्यक्रमों का मोहताज होना ही पड़ेगा। 
भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए सरकार की क्या योजनाएं हैं? जब हम इनका अध्ययन करते हैं तो हमें हास्यस्पद नीतियों के अलावा कुछ नजर नहीं आता। जिन दिनों कुपोषण से संबंधित ये आंकड़े आये थे, उन्हीं दिनों दिल्ली में एक सम्मेलन चल रहा था जिसमें चार मंत्रलयों के अलावा कई कारपोरेट हाऊस भी हिस्सा ले रहे थे। कुपोषण को दूर करने के लिए इनका विचार है कि भोजन को फोर्टिफाइड किया जाए यानि सार्वजनिक वितरण प्रणाली या अन्य जगहों पर मिलने वाले खाद्यान्नों में सूक्ष्म पोषक तत्व डाले जाएं जैसा कि हम नमक में आयोडिन खाते आ रहे हैं। स्वाभाविक है कि यह काम बड़ी कारपोरेट ही कर सकती हैं और इस प्रक्रिया में उनके लिए करोड़ों रुपए का मुनाफा कमाना संभव है। पता नहीं क्यों सरकारें भूल जाती हैं कि अगर विभिन्न क्षेत्रें में रहने वाले लोगों को उनके इलाके के हिसाब से खाद्यान्न उपलब्ध हो जाए तो इन कृत्रिम तरीकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। 
कई साल पहले हमने एक विचार आयात किया था- हरित क्रांति का। इस तथाकथित क्रांति का गुणगान अभी तक हो रहा है हालांकि इसने हमारे जमीन, पानी और हवा को जहरीला बना दिया। जमीन के अंदर मौजूद पानी के भंडारों को खत्म कर दिया। हमारी जैविक सम्पदा को जबर्दस्त नुकसान पंहुचा दिया। और हमारी जमीनों को बंजर बना दिया। उस वक्त हमें पढ़ाया गया कि गेंहू और चावल उत्तम खाद्यान्न हैं। मकई, ज्वार, बाजरा आदि हमारी थाली से अलग कर दिये गये और उनके स्थान पर गेंहू और चावल डाल दिये गये। लेकिन अब उन्हें समझ में आ गया हैै कि मकई, ज्वार और बाजरा ही असल में ज्यादा उत्तम हैं। आज ओट्स के नाम से बाजार में कई उत्पाद उपलब्ध हैं लेकिन यह ओट्स असल में हमारा ज्वार है जिसे पिछले पांच दशकों तक हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है।
ऐसे ही ‘फोर्टिफाइड अन्न’ के विचार का अब आयात किया जा रहा है। इसके पीछे मकसद हरित क्रांति की ही तरह किसानों की मदद करना नहीं है बल्कि बड़े कारपारेट निगमों को एक विशाल बाजार उपलब्ध करवाना है। हमें डिब्बा बंद भोजन नहीं चाहिए बल्कि परंपरा से चला आ रहा भोजन चाहिए जिसकी उपलब्धता की गांरटी सरकार को करनी चाहिए। जब तक सत्ता इस मामले में गंभीर नहीं होती और सरकारें कारपोरेट जगत की जरूरत के अनुसार उत्पादन करने की बजाय जनता की जरूरतों और इलाका विशेष में पैदावार की संभावनाओं को ध्यान में रख कर पैदावार को बढ़ावा नहीं देगी, तब तक भारत में कुपोषण की समस्या का समाधान संभव नहीं है। क्या यह भारत की जनता के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र नहीं है कि यहां की स्थानीय फसलों को खत्म कर केवल गेंहू और चावल को बढ़ावा पिछले पांच दशकों के दौरान दिया जाता रहा है? अब एक नया षड््यंत्र फोर्टिफाइड फूड के रूप में रचा जा रहा है जिससे खुले बाजार में अन्न के दामों में भारी वृद्धि होगी और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारी मुनाफा।

साभार अभियान

मंगलवार, 21 मार्च 2017

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।
राजेश कापड़ो




खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।
सोणे आळे  जागज्या  खेती  नै चरगे  रै ।।

कैम्पा कोला पेप्सी मिलती-मिलता ना पानी
अंग्रेजी की बोतल ऐसी जणो राजा नै राणी
बिस्लरी का पानी नलका पाड़ कै धरगे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।।

घरके राक्खे बीज नै हम बो लिया करते
सारा साल घर म्हं राटी पो  लिया करते
करकै कब्जा  बीज  का  पेटैंट करगे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।।

मंहगे भा का बीज दवाई चढरी कास म्हं
सपरे पी पी मरगे  करजे उतरैं ल्हास म्हं 
तों बैठ्या जिस आस म्हं वें ऊंट लदगे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

बेकारी  की मार नहीं मजदूरां  नै दिहाड़ी
करजा होया विदेशी हालत देश की माड़ी
जुड़गी लोगो जाड़ी गुठली खाखा मरगे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

कांग्रेस तै भी ऊपर लेे सैं भाजपा आळे
भाईयो बहनो मितरो कहकै पाड़गे चाळे
जात-धर्म के पाळे लोगो दंगे छिड़गे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

शिक्षा देणा जिम्मेदारी ना सरकार की
स्कूल हावै पंचैती चौधर ठोळेदार की
मिड्डे मीलका रासन बडे अपसर चरगे रै

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

रोटी खाणी दुभर होगी फोन हो गया सस्ता
शिक्षा पाणी दुभर होगी बोझ हो गया बस्ता
मुसकल है जीवन का रस्ता आंटण पड़गे रै ।।

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।

लाला जी नै खागी  रौणक सोपिंग माल की
रेहड़ी खोखे जकड़ लिए या मकड़ी जाल की

खेत-क्यार सब बाजारां म्हं खागड़ आ लिए
छोटी- बडी   सरकारां म्हं खागड़ आ लिए 
फोज पुलस अर हथियारां म्हं खागड़ आ लिए
महंगी -मंहगी  कारां के म्हं  खागड़ आ लिए
मेक इन इंडिया के नार्यां म्हं खागड़ आ लिए
हर हर मोदी हुंकार्यां म्हं  खागड़  आ  लिए
कच्चे पक्के रोजगारां  म्हं  खागड़ आ लिए

करे मुलाजम बाहर वें सबकी छटनी करगे रै ।
खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।


खागड़ां  के  पाच्छे लाठी  लेकै लागल्यो
जुलमतां की हद होली थम इबतै जागल्यो
भगत सिहं से वीर न्यूए ना फांसी चढगे रै

खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे-खागड़ बड़गे रै ।।

गुरुवार, 16 मार्च 2017

गौवंश संरक्षण एवं संवर्धन

गौवंश संरक्षण एवं संवर्धन 
कितना संरक्षण और कितना संवर्धन?

प्रदीप 

वर्तमान दौर अजीब सा दौर है। हम पहले से जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर बंटे हुए हैं और अब इसमें एक नया आयाम जुड़ गया है। आज देश गाय के नाम पर भी बंट रहा है। केंद्र और विभिन्न राज्यों में भाजपा सरकारों के सत्ता में आने के बाद देश में गाय और गौवंश को लेकर एक खतरनाक माहौल तैयार हो रहा है। अगर हम उत्तर भारत और पश्चिम भारत का उदाहरण देखें तो हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ऐसे अनेक संगठन खड़े हो गये हैं जो स्वयं को गौवंश का रक्षक बता रहे हैं। इनका मकसद उन लोगों को उचित सबक सिखाना है जो गाय को माता नहीं मानते। एक ओर इन्होंने गाय को राष्ट्रीय माता घोषित करने की मुहिम छेड़ रखी है तो दूसरी ओर तथाकथित गोभक्षकों के विरूद्ध गैरकानूनी कार्रवाइयों में लगे हुए हैं जिसका एक उदाहरण गुजरात की ऊना घटना है। 
ऊना में दलितों की सरेआम पिटाई की घटना तो अनेक घटनाओं के संयोग से राष्ट्रीय मीडिया में अपना स्थान बनाने में कामयाब हो गयी लेकिन ऐसी दर्जनों छोटी बड़ी घटनाएं हर राज्य में घटी हैं जिनकी चर्चा मीडिया में नहीं हुई लेकिन वे भी उतनी ही वीभत्स थीं जितनी ऊना की यह घटना। उदाहरण के लिए हरियाणा में फरीदाबाद जिले में ऐसी ही एक घटना में तथाकथित गाय का मांस लेकर जाने वाले लोगों के मुंह में गाय का गोबर और पेशाब डाला गया। ऐसा महसूस हो रहा है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा इन लोगों का समर्थन कर रहा है मानो ये लोग किसी महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यकलाप का हिस्सा हैं। लेकिन कई बार जो दिखता है, वह होता नहीं है और जो हो रहा होता है, वह सच नहीं होता। 
गौवंश को लेकर चल रही मौजूदा सक्रियता कुछ ऐसी ही है। 
सबसे पहला मुद्दा तो यह है कि जिन लोगों पर गौवंश की तस्करी का आरोप है, वे गौवंश लाते कहां से हैं? एक बात तो सच है कि गौवंश की चोरी की पुलिस रिपोर्ट नहीं हैं। अगर पंजाब और हरियाणा का उदाहरण लें जहां मुस्लिम आबादी बहुत कम है, और ग्रामीण क्षेत्रें में अधिकतकर हिंदू गाय पालते हैं, तो गौ तस्कर अगर गौवंश की चोरी करते तो इनके खिलाफ  दर्जनों शिकायतें अभी तक दर्ज हो जानी चाहिएं थीं। अगर ऐसा नहीं है तो इसका एक ही अर्थ है कि गौवंश चोरी नहीं किया जा रहा बल्कि लोग इन्हें बेच रहे हैं। जितनी संख्या गौवंश के तस्करों की है, उससे कई हजार गुणा संख्या गौवंश को बेचने वालों की है जिन्हें अच्छी प्रकार पता होता है कि इनका हश्र क्या होने वाला है। और इन लोगों में से अधिकांश हिंदू हैं। इस तथ्य को कभी भूला नहीं जाना चाहिए। 
वास्तव में जब प्राचीन भारत में गौवंश को संभाल कर रखने और इसके सरंक्षण की बातें शुरु हुईं थीं, उस वक्त यह गाय के प्रति किसी भक्तिभाव की वजह से नहीं था बल्कि ऐसा उस वक्त की अर्थव्यवस्था की जरूरतें पूरी करने के लिए था। बैल खेती के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण जानवर था जिसकी वजह से खेती करना न केवल आसान हो गया था बल्कि इससे उत्पादन में भी जबर्दस्त वृद्धि हुई थी। इसलिए लोगों के लिए गाय और गौवंश का संरक्षण विशेषकर किसान समुदायों में संस्कृति का एक हिस्सा बन गया। लेकिन वर्तमान दौर वैसा नहीं है। खेती में आज बैलों की लगभग कोई उपयोगिता नहीं है। देश के बेहद पिछड़े क्षेत्रें में भी बैलों का स्थान ट्रैक्टर लेने लगे हैं। इसलिए आज हमारे ग्रामीण क्षेत्रें में बैल एक बोझ बन गया है जिससे किसान पीछा छुड़ाना चाहते हैं। गाय की उपयोगिता उसके दूध को लेकर है। लेकिन बूढ़ी हो चुकी गाय की वह उपयोगिता खत्म हो जाती है और किसान ऐसी बूढ़ी हो चुकी गायों से भी पीछा छुड़ाना चाहते हैं। इस प्रकार दूध देने वाली गायों को छोड़ कर बाकी का सारा गौवंश ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए अपना औचित्य खो चुका है। पहले से ही संकट झेल रहे किसानों के लिए इस गौवंश का पेट भरना बेहद कठिन है। दूसरे यह गौवंश ग्रामीण इलाकों में फसलों को नुकसान पंहुचाता है।  
इस अर्थव्यवस्था को गौसंरक्षक नकारते हैं। उनका तर्क होता है कि गाय के गोबर और मूत्र से भी बहुत कमाई की जा सकती है। उनके द्वारा पेश किए आंकड़े बड़े विचित्र होते हैं। ‘बूढ़ी हो चुकी गायों से भी पैसा कमाया जा सकता है’, वे ऐसा तर्क देते हैं। लेकिन ये सारे तर्क तब हवा हवाई हो जाते हैं जब देश में फैली गौशालाओं के प्रबंधकों को चंदा जुटाने के लिए मारामारी करते देखते हैं। अगर सचमुच गाय का गोबर और मूत्र इतना ही कीमती है तो इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि उससे गौशालाओं का खर्च निकल जाए। लेकिन गौशालाएं या तो सरकारी अनुदान पर निर्भर करती हैं या जनता द्वारा दिए जाने वाले चंदे पर। 
जब अर्थव्यवस्था वाला तर्क निराधार साबित हो जाता है तो भावनात्मक पहलू को सामने रखा जाता है। फ्क्या हम अपने बूढ़े मां-बाप को भी घर से निकाल देते हैं?य् उनका कहना होता है कि जिस प्रकार बूढ़े और आर्थिक तौर पर अनुपयोगी हो जाने के बाद भी हम अपने मां बाप को घर से नहीं निकाल देते उसी प्रकार बूढ़ी और अनुपयोगी हो जाने के बाद भी गऊ माता को किस प्रकार बाहर निकाला जा सकता है? यह तर्क रामबाण का काम करता है और ज्यादातर लोग चुप हो जाते हैं। 
लेकिन क्या हम एक चीज भूल सकते हैं कि इंसान का जीवन सबसे ज्यादा कीमती है। किसी भी जानवर से कहीं ज्यादा। आज भी हमारे देश के 42» बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। देश के एक तिहाई लोग यानि 40 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। भूख से तड़प तड़प कर अभी भी देश के अनेक लोग दम तोड़ देते हैं, ऐसे में हमारी पहली प्राथमिकता निश्चिता तौर पर इंसान होने चाहिएं। निस्संदेह, कल, जब देश के सभी लोगों को भोजन मिलने लगे, सबके सिर पर छत्त हो, तो हम गाय या और भी जानवरों के बारे में सोच पाएंगे। लेकिन जब तक ऐसी स्थिति नहीं पैदा होती, बूढ़े मां-बाप वाला उदाहरण उचित नहीं है। न तो हम अपने मां बाप को घर से निकालने के बारे में सोच सकते हैं और न ही यह सोच सकते हैं कि देश के किसी इलाके में किसी भी व्यक्ति के बूढ़े मां बाप भूख से दम तोड़ दें। और जब तक देश में ऐसा हो रहा है तब तक हम गाय या गोवंश से पहले इन्हें प्राथमिकता में रखेंगे और अपने सीमित संसाधनों को इंसानों के लिए सहेज कर रखेंगे।
लेकिन वर्तमान दौर में इससे उलटा हो रहा है। गौवंश के नाम पर इंसानों की बलि चढ़ाई जा रही है। कहीं उनकी हत्या कर, कहीं उन्हें मध्ययुगीन तौर तरीकों से उत्पीडि़त करते हुए। और इसके लिए बाकायदा एक सिस्टम बन चुका है। हर राज्य में गौ रक्षा के नाम पर ऐसे संगठन खड़े हो गये हैं, जो स्वयं में सत्ता हैं। वे तथाकथित दोषियों को पकड़ते हैं, उन्हें सजा सुनाते हैं और फिर सजा देते हैं। क्या यह गैरकानूनी काम नहीं है? क्या ये गतिविधियां संविधान के खिलाफ नहीं हैं? क्या इन संगठनों को इन गतिविधियों के लिए उसी प्रकार गैरकानूनी घाेषित नहीं कर देना चाहिए जिस प्रकार देश में अन्य बहुत से संगठनों के साथ किया गया है?
यह सिलसिला असल में बहुत साल पहले हरियाणा के छज्जर जिले के दुलिना गांव से शुरु हुआ था जहां पांच दलितों को जिंदा जला दिया गया था क्योंकि वे एक मृत गाय के शरीर से चमड़ी उतार रहे थे। लेकिन आज यह देश के हर राज्य में फैल गये हैं। जिस प्रकार खुलमखुला ये लोग अपनी गतिविधियां चलाते हैं, और उनकी पब्लिसिटी करते हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि इस काम के लिए उन्हें सरकार और प्रशासन से खुली छूट मिली हुई है। वर्तमान गौवंश से संबंधित कानून का अगर कोई उल्लंघन करता है तो इसके लिए दोषियों को पकड़ने, केस की जांच करने और दोषियों को सजा देने के लिए एक व्यवस्था बनी हुई है लेकिन उसको न मान कर ये संगठन स्वयं सत्ता की भूमिका निभाते हैं। स्पष्ट है कि यह स्थिति जिस अराजकता को जन्म देने वाली है, उसके भीषण परिणाम निकलने वाले हैं। दादरी में अखलाक की हत्या, मध्य प्रदेश के मंदसौर में भैंस का मीट ले जाते हुए दो महिलाओं की पिटाई, ऊना में दलितों की सरेआम पिटाई इसके महज कुछ उदाहरण हैं। ऐसी बीसियों घटनाएं मीडिया में स्थान हासिल नहीं कर पाई हैं लेकिन उनमें से अधिकांश सोशल मीडिया में चक्कर काटती जरूर दिख जाती हैं। लेकिन ये गौरक्षक असल में कितने संजीदा हैं, इसकी पोल राजस्थान में खुली जहां कुछ दिनों के भीतर 500 से ज्यादा गाय भूख और बीमारी से मारी गयीं। हालांकि वहां राज्य सरकार ने इसके लिए अलग से एक मंत्रलय बना रखा है और वहां गौरक्षकों की भारी संख्या मौजूद है। मीडिया की खबरों के अनुसार इन दिनों में कोई गौरक्षक या सरकारी व्यक्ति इन गायों की सुध लेने नहीं पंहुचा। अगर गौरक्षक सचमुच अपने काम के प्रति इमानदार हैं तो उन्हें इतना तो करना ही चाहिए कि प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को बूढ़ी हो चुकी दो-चार गाय खुद पालनी चाहिएं।
गौवंश के संरक्षण से संबंधित कानून बनने के बाद निश्चित तौर पर गौवंश के संरक्षण में वृद्धि हुई हैं और यह धरातल पर दिखाई भी दे रहा है। पहले दावा किया गया था कि आवारा घूमते गौवंश को गौशालाओं में भेजा जाएगा और देश की सड़कें आवारा पशुओं से निजात पाएंगी और देश के नागरिकों को सुरक्षित सड़कों पर आवागमन की सुविधा मिल पाएगी जो असल में देश के हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन पिछले दो सालों का अनुभव कुछ और ही कहानी बयान कर रहा है। शहरों की सड़कों पर आवारा पशुओं की बाढ़ आ गयी हैं पिछले कुछ महीनों के दौरान आवारा गौवंश की संख्या दसियों गुणा बढ़ गयी है। इनमें भी सांड और बैलों की संख्या ज्यादा है। ये गौवंश कहां से आ गया है? जाहिर सी बात है कि गांवों के लोग इन्हें सड़कों पर छोड़ गये हैं। पशुपालन का काम मुख्यतः गांवों में ही होता है। किसी जमाने में बैल और सांड खेती में खूब काम आते थे इसलिए किसान भी इनकी खूब देखभाल करते थे। लेकिन आधुनिक खेती में इनकी उपयोगिता खत्म हो जाने से ये किसानों के लिए बोझ हैं। अगर किसान इन्हें गांव में छोड़ेगा तो वहां ये खेती को बर्बाद करेंगे। इसलिए अब वे इन्हें शहरों की सड़कों पर छोड़ने लगे हैं। और शहर एक नई समस्या से जूझने लगे हैं। इनकी वजह से सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं के लिए कौन जिम्मेवार है? आवारा घूमते इन पशुओं की वजह से लोगों में झगड़े बढ़ने लगे हैं। गांवों के बीच आपस में अंतरविरोध बढ़ने की घटनाएं सामने आने लगी हैं। क्योंकि एक गांव के लोग इन्हें दूसरे गांव की सीमा में धकेल देते हैं और दूसरे गांव की फसलों के बर्बाद होने से वे पहले वाले गांव के लोगों से लड़ने लगते हैं। शहरों में पहले से तंग पड़ रही सड़कों पर जब पशु अधिकार कर बैठ जाते हैं तो ये उस सड़क का इस्तेमाल करने वाले लोगों में आपसी तनाव का कारण बनते हैं। पंजाब के कुछ गांवों में एक नया व्यवसाय शुरु हो गया है। अब कुछ लोगों का काम ही आवारा पशुओं को गांव की सीमा से बाहर करने का हो गया है जिसकी एवज में वे किसानों से प्रति एकड़ एक निश्चित राशी वसूल करते हैं। 
गौवंश के संरक्षण और संवर्धन के लिए बना कानून असल में गौवंश के लिए और ज्यादा अत्याचार का कारण बनने लगा है। राजस्थान के जयपुर की गौशाला एक अपवाद नहीं है। आप किसी भी गौशाला में चले जाइए और गायों की हालात देखिए, आपको वहां मौजूद गायों की दुर्दशा स्वयं समझ में आ जाएगी। टीन के शैड के नीचे खड़ी गाय, गाय कम कंकाल ज्यादा नजर आती हैं। गौशालाओं में गाय उनकी क्षमता से ज्यादा भरी हुई हैं। धूप, गर्मी, सर्दी, बरसात और भूख की मारी ये गाय कैसे  संरक्षित की जा रही हैं, कोई भी समझ सकता है। सड़कों पर घूमते गौवंश की हालात तो और भी दयनीय है। भूख और प्यास से बिलबिलाती ये गाय जब दुकानों और रेहडि़यों से खाने का सामान उठाने की कोशिश करती हैं तो इन्हें गौमाता कह कर सम्मान पूर्वक खाना नहीं दे दिया जाता बल्कि इनके मुंह पर डंडा मारा जाता है। आने जाने वाले लोग इन्हें सम्मान से नहीं देखते बल्कि घृणापूर्वक गाली देकर आगे बढ़ते हैं क्याेंकि ये उनके लिए परेशानी का सबब बन चुकी हैं। शहरा की सड़कों पर मरने वाली गायों के पेट से कई कई किलो प्लास्टिक का निकलना यह दिखाता है कि जब वे जिंदा थी तो किस तकलीफदेह स्थिति से गुजर रही थीं। अफसोस और त्रस्दी की बात तो यह है कि किसी गौ रक्षक को भी इन पर तरस नहीं आता। उन्हें उन्हीं गायों पर तरस आता है जो या तो किसी वाहन में लदी होती हैं (मान लिया जाता है कि इन्हें काटने के लिए वाहन में लादा गया है। और इस वजह से पंजाब का डैरी उद्योग बर्बाद हो गया है क्योंकिे दुधारू पशुओं को आज एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना संभव नहीं रह गया है।) या किसी दुर्घटना का शिकार हो गयी होती हैं। (मीडिया में फोटो आने का मौका होता है)। गऊ माता केे लिए चंदा इक्ट्ठा करने का काम जरूर चल निकला है। लगभग हर तीसरी दुकान पर इसके लिए चंदा देने के लिए दानपात्र रखा दिखाई देता है। लेकिन इसमें कितनी राशी इकट्ठा हुई है, इसकी रसीद नहीं दी जाती। अब बिना रसीद दिए इक्ट्ठा हुआ दान सही जगह इस्तेमाल हुआ या गलत हाथों में पंहुचा, इसकी क्या गारंटी? जब दुकानदारों से बात होती है कि आप रसीद क्यों नहीं लेते तो उनका सरल सा तर्क होता है कि हमने तो अच्छी भावना से दान आगे पंहुचा दिया, अब आगे उसका सही इस्तेमाल होता है या गलत, इसका पाप आगे वाले को लगेगा!!
हमारा समाज बहुत से अतंरविरोधों के साथ जीता है। हम कन्या की पूजा करते हैं और कन्या भ्रूण हत्या भी करते हैं। हम यह भी कहते हैं कि ‘उसकी’ निगाहों में सब बराबर हैं लेकिन भयंकर जाति प्रथा को भी मानते हैं। नदियों को देवी मानते हैं लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा गंदा भी रखते हैं। यही स्थिति गाय के बारे में भी है। गाय के शरीर में सभी देवताओं का वास होता है’, मान कर और उसे मां का दर्जा देकर सड़कों पर आवारा घूमने के लिए मजबूर भी करते हैं। गौशालाओं में कंकाल बन रही और भूख से बिलबिलाती सड़कों पर आवारा घूमती गाय पर क्या कम अत्याचार हो रहा है? क्या ऐसा कर उसे तिल तिल कर मरने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा? हम प्रतिदिन इस दृश्य को देखते हैं और देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।
सच्चाई को स्वीकार न करने की वजह से असल में ऐसे ही हालात पैदा होते हैं।

प्रदीप का यह लेख तर्कशील व अभियान पत्रिकाओं में छप चुका है ।

बुधवार, 15 मार्च 2017

नोटबंदी



परेशान भारत को क्या कुछ मिल पाएगा?
परमजीत

अभियान के अंक 97  में छपा लेख


 8 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने 500 और 1000 रुपए के नोटों को अवैध घोषित कर दिया। और 500 तथा 2000 के नए नोट जारी करने की घोषणा की। यह कदम उठाने से उनके अनुसार देश से काला धन खत्म हो जाएगा, जाली नोटों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान से मुक्ति मिल जाएगी, देश में फैल रहे आतंकवाद और माओवाद को करारा झटका लगेगा। उन्होंने कहा था कि इस एक कदम से देश के भ्रष्ट लोग परेशान होंगे और ईमानदार लोग चैन की नींद सोएंगे। काले धन के रूप में कोठरियों में रखे पैसे जब बैंकों में आएंगे तो देश की अर्थव्यवस्था बेहतर होगी, नई नौकरियों का सृजन होगा। 
उस दिन शायद ही देश का कोई ईमानदार व्यक्ति ऐसा होगा, जिसने प्रधानमंत्री के इस कदम की सराहना न की हो। किसी भी देश से काले धन को बाहर निकालने और मुद्रा की खामियों को दूर करने के लिए जो तरीके अपनाए जाते हैं, विमुद्रीकरण (नोटबंदी) उनमें से एक तरीका होता है। देश में पहले भी दो बार यह विमुद्रीकरण हो चुका था। हालांकि उस वक्त कोई उत्साहजनक परिणाम नहीं मिले थे, लेकिन मोदी की इस घोषणा के बाद लोगों में पुनः आशा की किरण जगी थी कि शायद इस बार काले धन से मुक्ति मिल सकें।
विमुद्रीकरण को हुए एक महीना बीत चुका है। इस दौरान बहुत सी चीजें सामने आई हैं। इनकी रोशनी में प्रधानमंत्री के इस कदम का विश्लेषण करना हमारे लिए संभव है। 
देश में 1अप्रैल 2016 को कुल 17 लाख करोड़ रुपए की करेंसी मौजूद थी। इसमें से लगभग 85» यानि लगभग 14 लाख करोड़ रुपए की करेंसी 500 और 1000 के नोटों के रूप में थी और बाकी की करेंसी इससे छोटे यानि 100,50,20, 10 और 5 के नोटों के रूप में थी। यानि सरकार के सामने मोटा-मोटी यह काम था कि पुराने पड़ चुके 14 लाख करोड़ रुपए के नोटों के स्थान पर नए 14 लाख करोड़ रुपए के नोट बाजार और बैंकों में उतार दे। इस प्रक्रिया में जिन लोगों ने अपनी तिजोरियों, गल्लों, तकियों, कोठरियों और जमीन में पुराने नोट गाड़ के रख रखे थे, या तो वे इन्हें बैंकों में जमा करवा सकते थे, या ये नोट कागज के टुकड़े बन कर रह जाने थे। 
विमुद्रीकरण की प्रक्रिया से होने वाले जो लाभ प्रधानमंत्री ने अपने 8 नवंबर वाले भाषण में गिनाए थे, एक महीने के बाद वे लाभ मिलते नजर नहीं आ रहे हैं। फिर भी अगर यह प्रक्रिया तैयारी के साथ होती तो जनता को उन भयानक दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता जिनसे उन्हें अभी दो-चार होना पड़ रहा है। एक औसत बुद्धि का व्यक्ति भी जिन तैयारियों के बारे में पूछेगा, एक महीना बीतने के बाद समझ में आ रहा है कि वे तैयारियां भी नहीं की गयी। इस एक महीने के दौरान पूरा देश कतारों में लगा नजर आया है। लगभग 100 लोगों की मृत्यु इन कतारों में हो गयी या करेंसी न मिलने के चलते उन्होंने आत्महत्या कर ली। किसानों की बिजाई वक्त पर नहीं हो पायी है। किसानों द्वारा खेतों में पैदा की जाने वाली फसलें जैसे हरी सब्जियां आदि खरीददारों के अभाव में बर्बाद हो गयी और करोड़ों रुपए का नुकसान किसानों को उठाना पड़ा। छोटे और मझौले उद्योग करेंसी के अभाव में बंद हो गये। मजदूर बेरोजगार हो गए। सीएमआईई (सैंटर फॉर मोनिटरिंग आफ इंडियन इकॉनामी) के बहुत कंजरवेटिव अनुमान के मुताबिक देश को इस विमुद्रीकरण की वजह से 1-28 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ेगा। इसका अर्थ है कि यह नुकसान और ज्यादा भी हो सकता है। इस नुकसान में लगभग 65 हजार करोड़ रुपए तो उद्योगों को ही उठाना पड़ेगा। इसके अलावा इसमें नए नोट छापने पर होने वाला खर्च, किसानों का होने वाला नुकसान, काम धंधा छोड़ कर बैंकों की लाइनों में लगने वाले लोगों को होने वाले आर्थिक नुकसान आदि शामिल हैं। 19 दिन बाद भी 14 लाख करोड़ रुपए के नोटों के बदले रिजर्व बैंक महज 1-5 लाख करोड़ रुपए ही बाजार में डाल पाया था। इससे समझा जा सकता है कि बिना करेंसी के अर्थव्यवस्था का हर अंग कैसे ठप्प होकर रह गया है। हालांकि ई-कामर्स के दावे किए जा रहे हैं लेकिन ये केवल बड़े शहरों के चंद लोगों तक ही सीमित है। देश की 96» जनता अपने भुगतान नकदी में करती है। और इसे एक झटके में कैश लैस भुगतान में बदलने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। 
देश की जनता बड़े से बड़ा नुकसान भी बर्दाश्त कर लेगी अगर उसे सचमुच काले धन से मुक्ति मिल जाए। लेकिन काले धन से मुक्ति के सरकारी दावे चुनावी जुमले ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं। जरा इन आंकड़ों पर नजर डालिए। 
राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए का कहना है कि देश में कुल जाली करेंसी 400 करोड़ रुपए की है। यानि प्रत्येक एक हजार रुपए के पीछे 28 पैसे जाली करेंसी के रूप में है। आर्थिक जानकारों का मानना है कि यह अनुपात आटे में नमक के बराबर भी नहीं है। और इससे ज्यादा जाली करेंसी दुनिया के बहुत से देशों में है। इससे न तो देश की अर्थव्यवस्था को कोई बड़ा नुकसान पंहुचता है और न ही इसके लिए इस प्रकार के र्रैिडकल कदम उठाने की जरूरत पड़ती है। सोशल मीडिया पर एक बात को आमतौर पर स्वीकार कर लिया जा रहा है कि नई करेंसी की डुप्लीकेट तैयार नहीं की जा सकती। यह एक बहुत बड़ा मिथक है क्योंकि दुनिया की हर करेंसी की जाली नोट मौजूद हैं। डॉलर और पाउंड के भी जाली नोट मौजूद हैं और अच्छी खासी संख्या में मौजूद हैं। इसलिए जाली नोटों की समस्या से निपटने के लिए नोटबंदी कोई प्रभावी और अकलमंदी वाला निर्णय नहीं है। ऐसी सूरत में तो बिल्कुल भी नहीं जब जाली करेंसी सिर्फ 400 करोड़ की हो। इन चंद सप्ताहों के दौरान ही तीन करोड़ रुपए के नए नोटों की जाली करेंसी की बात तो जांच एजेंसियों के सामने आ भी चुकी है। 
इसी से सरकार के दूसरे तर्क की पोल पट्टी खुलती है। जब सरकार यह कहती है कि पाकिस्तान जाली करेंसी भेज कर भारत में आतंकवाद फैला रहा है, तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाए कि पाकिस्तान 400 करोड़ के जाली नोटों के द्वारा भारत में आतंकवाद फैला रहा है और अब सरकार द्वारा नोटबंदी के बाद यह बंद हो जाएगा? इससे ज्यादा हास्यस्पद कोई तर्क नहीं हो सकता क्योंकि किसी देश के लिए 400 करोड़ रुपए बड़ी रकम नहीं होती। अगर पाकिस्तान को हमारे देश में आतंकवाद फैलाना ही है तो वह असली करेंसी देकर भी यह काम कर सकता है। 
माओवाद और पूर्वोत्तर के राज्यों में चल रहे राष्ट्रीयता के संघर्ष जनता के सहयोग से चल रहे हैं। हो सकता है कि उनके रिजर्व कम हो जाएं, कुछ समय के लिए उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़े लेकिन वे संघर्ष भाड़े के सिपाहियों के द्वारा नहीं लड़े जा रहे, न ही वे चंद व्यक्ति द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयां हैं। ये आंदोलन देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों से पैदा हुए हैं। इन्हें कभी किसी पूंजीपति, बड़े जमींदार या किसी विदेशी ताकत का पैसा नहीं मिला। जनांदोलन में पैसे जरूरी होते हैं लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी नहीं। आने वाला वक्त यह बात साबित कर देगा कि सरकार के इस कदम से इन आंदोलनों पर कोई निर्णायक कुठाराघात नहीं हुआ है। और ये जनता के सहयोग के साथ आगे भी बदस्तूर चलते रहेंगे। 
क्या कालाधन बाहर आएगा? अगर आएगा भी तो कितना? यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। पुनः आर्थिक जानकारों का मानना है कि तिजोरियों में रखा पैसा कालेधन का एकमात्र स्रोत नहीं होता। काला धन कई रूपों में मिलता है। करेंसी के रूप में एक अनुमान के अनुसार काला धन कुल काले धन का महज 20» तक ही होता है। जेएनयू के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरूण कुमार जिन्होंने काले धन पर किताब भी लिखी है, उनका मानना है कि करेंसी के रूप में काला धन महज 3» होता है। बाकी का काला धन अन्य रूपों में मिलता है। 2014 में लोकसभा के चुनावों के वक्त काले धन पर जितनी भी चर्चा हुई वह सारी विदेशों में गए काले धन पर थी। मोदी और अमित शाह ने अपने चुनावी रैलियों में विदेशों में गए काले धन को वापिस लाने पर ही देश की जनता को सब्जबाग दिखाए थे जिसे अमित शाह ने बाद में चुनावी जुमला बता दिया था। यानि उस वक्त वे लोग स्पष्ट थे कि काले धन का मुख्य भंडारण विदेशी बैंक खातों में है जिस पर बाद में सरकार ने यू टर्न ले लिया। इसके अलावा रियल एस्टेट व सोना काले धन को छुपाने के मुख्य तरीके हैं। असल में पूंजीपति कभी तिजोरियों में अपना काला धन नहीं रखता। उसका काला धन कहीं न कहीं निवेश करके रखा होता है। या तो शेयर बाजार में, कहीं बेनामी सम्पत्तियों के रूप में तो कहीं विदेशी कंपनियों में। इसलिए कल तक जिन लोगों के पास काला धन होने की बात थी, उन्हें इस नोटबंदी से कोई सेक नहीं लगा। रियल एस्टेट और सोने के रूप में जिन लोगों ने काला धन रखा है, उन्हें भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। याद होगा, 8 नवंबर की रात से 10 नवंबर तक लोगों ने खूब सोना खरीदा था। उस वक्त 60,000 रुपए प्रति 10 ग्राम में सोने की कालाबाजारी चल रही थी हालांकि सफेद धन के रूप में सोना तब भी 34,000 रुपए प्रति 10 ग्राम मिल रहा था। इसके क्या निहितार्थ हैं? कुछ लोगों का काला धन दूसरों के काले धन में बदल गया। काले धन ने जेब बदल दी। आखिर 34000 रुपए वाला सोना जिस व्यक्ति ने 60000 में बेचा, उसने काला धन ही तो कमाया है।
हालांकि सरकार कह रही है कि वह बेनामी सम्पत्तियों की जांच करवाएगी। सोने के रूप में जिन लोगों के पास काला धन है, उसे भी बाहर निकालेगी। लेकिन यह बात आज जनआक्रोश को कम करने के लिए कही जा रही है। इसमें असली मंशा का कोई सवाल नहीं है। अगर सरकार सचमुच देश में गैरबराबरी खत्म करने और काले धन को खत्म करने के लिए सकंल्पबद्ध है तो देश के व्यापक इलाकों में रैडिकल भूमि सुधारों की जरूरत है। देश के कानून के मुताबिक भूमि का वितरण कर दिया जाए, तो देश से आधी से ज्यादा समस्याओं का स्वतः समाधान हो जाएगा। देश में या तो भूमि सुधार लागू ही नहीं किए गए। जहां भूमि सुधारों का ढोल पीटा गया वहां लाखों एकड़ जमीन कुत्ते-बिल्ली, देवी देवताओं के नाम पर है, लाखों एकड़ जमीन बेनामी है। अगर सरकार ईमानादारी से इन सभी बेनामी सम्पत्तियों को इनके असली हकदारों को दिलवा दे, तो सचमुच में यह मोदी सरकार का एक क्रांतिकारी कदम होगा। लेकिन हाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के और। 
काला धन करेंसी के रूप में भ्रष्ट नौकरशाह, सूदखोर और राजनीतिक पार्टियों के लोग रखते हैं। राजनीतिक पार्टियों को अपने चंदों के स्रोत बताने चाहिए इसे लेकर भाजपा सहित कोई भी पार्टी सहमत नहीं है। क्यों नहीं सभी राजनीतिक दल सूचना के कानून के दायरे में आते? क्यों नहीं सभी राजनीतिक दल अपनी सम्पत्तियों के स्रोत सार्वजनिक करते? ईमानदारी की अलंबरदार बनी भाजपा क्यों इसका विरोध करती है? यह बात समझने के लिए हमें आइंसटीन के दिमाग की जरूरत नहीं है। नोटबंदी के प्रकरण पर भी भाजपा और प्रधानमंत्री कटघरे में खड़े दिखते हैं। प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि उनके इस कदम की जानकारी किसी को नहीं है। क्या यह महज एक संयोग है कि पश्चिमी बंगाल की भाजपा इकाई ने इस एलान से महज कुछ घंटे पहले अपने खातों में 3 करोड़ रुपए जमा करवाए थे? क्या यह एक महज संयोग है कि बिहार में लगभग 22 जगह पर पिछले महीने में भाजपा ने जमीनें खरीदी हैं। क्या यह भी महज एक संयोग है कि भाजपा के नजदीक माने जाने वाले समाचार पत्र दैनिक जागरण के कानपुर संस्करण में अक्तूबर के आखिरी दिनों में यह समाचार छप चुका था कि 500 और 1000 के नोट बंद होंगे और 2000 के नोट चालू किए जाएंगे।
कितना काला धन सरकार के पास आएगा? इसका उत्तर है कि अधिकतम राशि 4 लाख करोड़ रुपए की है। और न्यूनतम के बारे में आज आकलन नहीं किया जा सकता। क्योंकि 14 लाख करोड़ रुपए में से 4 लाख करोड़ रुपए पहले से ही बैंकों में, आरबीआई और अन्य सरकारी अर्ध सरकारी संस्थाओं के पास मौजूद थे। दिसंबर की 3 तारीख तक लगभग 12-75 लाख करोड़ रुपए बैंकों के पास वापिस आ चुके हैं। माना जा सकता है कि इसमें से अधिकांश धन काला नहीं है। बाकी बची राशि में से कितना पैसा और आगे आने वाले दिनों में वापिस आएगा, इसके बारे में आज दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन निश्चित ही एक अच्छी खासी रकम वापिस जरूर आएगी। इस गति से लगता तो यह है कि सरकार को अंततः प्रिंट की गई करेंसी से भी ज्यादा करेंसी मिलने वाली है। ये आंकड़े बता रहे हैं कि काला धन उजागर करने के लिए मोदी का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ पूरी तरह फेल हो गया है। उलटे इस कदम से देश और ज्यादा कंगाल हो गया है। क्योंकि 1-28 लाख करोड़ रुपए के खर्च के अलावा देश की जीडीपी में जितनी कमी आएगी, वह अतिरिक्त घाटा देश उठाने वाला है। 
क्या इस कदम से आने वाले समय में काला धन संचित करने पर रोक लगने वाली है। साफ जबाव है कि नहीं। नए सिरे से भ्रष्टाचारी अपने पुराने घाटों को पूरा करने के लिए काम करेंगे। अब तो सरकार ने और सुविधा कर दी है। 1000 के नोटें की जगह 2000 के नोट जारी करने से अब काला धन रखना और आसान हो गया है। पंजाब और उत्तरप्रदेश के चुनाव दिखाने वाल हैं कि कैसे इस नोटबंदी का असर बेअसर हो गया है। 
हां, एक बात जो इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण दिखाई दी, वो है जनता की भूमिका। अगर जनता को लगने लगता है कि कोई कदम आम तौर पर समाज की सफाई के लिए जरूरी है तो उसके लिए वह अनेकों कष्ट उठाने के लिए भी तैयार रहती है। हालांकि यह एक कड़वी सच्चाई है कि जनता को पुनः धाोखा मिलने वाला है लेकिन कल अगर कोई सचमुच जनता के हित में काम करेगा, तो जनता उसके साथ खड़ा भी होगी और कष्ट भी सहेगी। यह तय है। और यही एक मात्र सुनहरी किरण है इस अंधेरे समय में ।

मंगलवार, 14 मार्च 2017

भूमण्डलीकरण के भारत की अर्थव्यवस्था पर हमले के 25 साल विषय पर एक दिन के सेमीनार का आयोजन


राजनीतिक व सांस्कृतिक पत्रिका ‘अभियान’ का आयोजन 
भूमण्डलीकरण के भारत की अर्थव्यवस्था पर हमले के 25 साल बीत जाने पर एक दिवसीय सेमीनार
दिनांक 26 मार्च 2017 दिन रविवार सुबह 10 बजे गुज्जर धर्मशाला ब्रह्मसरोवर कुरूक्षेत्र   

नई आर्थिक नीतियों को लागू हुए 25 साल गुजर चुके हैं। सन् 1991 में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह की सरकार ने इन्हें लागू करते समय हमें बताया था कि सन् 1991 तक आते आते भारत में नेहरू की आर्थिक नीतियों के परिणाम नुकसानदायक साबित होने लगे थे और स्थिति यह बन गयी थी कि हमें अपना सोना विश्व बैंक के पास गिरवी रखना पड़ा था क्योंकि हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार बस इतना बचा था कि उससे हम महज 15 दिन की जरूरतें पूरी कर सकते थे। इन नीतियों को अन्तर-राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं आईएमएफ और विश्व बैंक के मार्गदर्शन में लागू किया गया था। भारत की ही तरह दुनिया के बाकी देश भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रहे थे। दुनिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए इन नीतियों को रामबाण के रूप में पेश किया गया और कहा गया कि इन नीतियों का कोई विकल्प नहीं है, कि या तो हम विकास के रास्ते पर चलने के लिए इन नीतियों को अपनाएं या फिर पिछड़ेपन और गरीबी में बने रहें।
नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के 25 साल गुजरने के बाद आज हम कहां हैं? इन नीतियों से किसे फायदा हुआ? किसे नुकसान?? इन नीतियों की दो बुनियादी बातें थीं। पहली यह कि कारपोरेट पूंजी के भारत में निवेश करने का रास्ता सुगम बनाया जाये। इसके लिए जो भी बाधाएं, सीमाएं और प्रतिबंध लगाये गये हैं, उन्हें सरकार दूर करे ताकि दुनिया के किसी भी कोने से पूंजी को भारत में बेरोकटोक आने-जाने का अवसर मिले। इसके पीछे तर्क यह था कि भारत को विदेशी पूंजी की दरकार है जो तभी भारत में आएगी जब उसके आने का रास्ता खोला जाएगा और उसे न्यूनतम शर्तों पर यहां काम करने का अवसर दिया जाएगा। दूसरी बुनियादी बात यह बतायी गयी कि सरकार का काम सत्ता चलाना होता है, फैक्टरियां - कारखाने चलाना नहीं। फैक्टरियां-कारखाने निजी हाथों में सौंप देने चाहिएं। सरकार जनता को विभिन्न प्रकार की सब्सिडी देती है, उसे खत्म करना चाहिए। सरकारी कर्मचारियों की संख्या में कटौती करनी चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी चीजों पर सरकारी खर्च को तर्कसंगत बनाना चाहिए यानि ये सब एक टारगेट समूह को ही उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। यह माना गया कि इन मदों पर होने वाला खर्च असल में सही लाभार्थियों तक नहीं पंहुचता इसलिए ऐसी योजनाओं को बंद कर देना चाहिए। उनके द्वारा हमें बताया गया था कि इसी तरीके से देश का पिछड़ापन दूर होगा, देश से गरीबी दूर होगी और लोगों को रोजगार मिलेगा। हमें बताया गया कि जब ऊपर के वर्गों के पास खूब सारा पैसा आएगा तो वह रिस रिस कर नीचे जाएगा और नीचे के पायदान पर खड़े लोगों को भी इससे फायदा होगा। दूसरे सरकार अपने अनावश्यक खर्चों को कम करेगी तो बचे हुए पैसे का इस्तेमाल सही जरूरतमंदों पर किया जा सकेगा।
 इन 25 सालों में लगभग प्रत्येक पार्टी ने केंद्र में राज किया है और कभी न कभी गठबंधन के रूप में केंद्र में सत्तासीन रही है। ये पार्टियां अपने सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बेहद भिन्न मत रखती रही हैं। घोर ब्राह्मणवादी पार्टियों से लेकर दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां, हिंदूत्ववादी पार्टी, मुस्लिम कट्टरपंथियों की पार्टी, क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां_ ये सभी बाकी मामलों में कितना भी भिन्न होने का दावा करें पर एक मामले में हमेशा एक सुर में बात करती रही हैं और यह मामला है उपरोक्त वर्णित आईएमएफ और विश्व बैंक के मार्गदर्शन में लागू नई आर्थिक नीतियों का। 1991-96 काल में जब कांग्रेस केंद्र में थी तो भाजपा ने विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस की इन नीतियों का विरोध किया था और स्वदेशी जागरण मंच नाम का संगठन भी खड़ा किया था लेकिन वही भाजपा जब 1999 में सत्ता में आई तो उसने इन्हीं नीतियों को और भी तेजी से लागू किया था। पिछले 25 सालों के इस राजनीतिक अनुभव से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि विपक्ष में रहते हुए कोई पार्टी चाहे जैसा मर्जी राग अलापे, सत्ता में आते ही उसके सुर बदल जाते हैं और वह आईएमएफ और विश्व बैंक के सुर में सुर मिलाने लगती है। 
इन 25 सालों में भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत ज्यादा विस्तार हुआ है। भारत दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया है। भारत की जीडीपी जो 1991 से पहले 3-4-5» के बीच रहती थी अब 7-9» के बीच रहने लगी। भारत के पास 21 लाख करोड़ रुपए का विदेशी मुद्रा भंडार है जिससे हम 11 महीने का आयात कर सकते हैं। भारत का विदेश व्यापार इन सालों में कई गुणा ज्यादा हो गया है। इन आंकड़ों को मजबूती देने के लिए हमें एक्सप्रैस वे, 8 लेन वाली सड़कें, गुरुग्राम (गुड़गांव) जैसे शहरों में बड़ी निगमों के बहुमंजिली दफ्रतर, हर शहर में बन रहे मॉल और मल्टीप्लैक्स दिखाए जाते हैं। पहले जो चीजें केवल विदेशों में उपलब्ध थीं, अब उस प्रत्येक ब्रांड को भारत में खरीदा जा सकता है। 
तस्वीर का यह पहलू जितना चकाचौंध वाला है, दूसरा पहलू उतना ही स्याह, काला और दर्द से भरा है। साल 1997 से 2016 के बीच देश में तीन लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इतनी बड़ी संख्या में किसानों की मौतों के आंकड़ों की तुलना 19वीं सदी में पड़े सूखे और अकालों के दौरान हुई मौतों से की जा सकती है। आक्सफैम नाम की एक संस्था के आंकड़ों ने बताया है कि दुनिया में (भारत में भी) अमीरी और गरीबी के बीच खाई आज जितनी चौड़ी है उतनी पहले कभी भी नहीं थी। दुनिया की आधी से ज्यादा दौलत सबसे अमीर 1» लोगों के पास है। दुनिया में सबसे अमीर 8 लोगों के पास जितनी दौलत है, उतनी ही सम्पत्ति दुनिया की सबसे गरीब आधी आबादी के पास है। नई आर्थिक नीतियां इसके लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं। लाखों रुपए की मासिक आय और लाखों रुपए की अन्य सुविधाएं पाकर भी संतुष्ट नहीं होने वाले हमारे सांसद और विधायक जब गरीबी रेखा की बात करते हैं तो उन्होंने इसे 32 रुपए प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति तय किया है। इसके बावजूद देश की 25» आबादी इस गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रही है। भुखमरी से होने वाली मौतें भी पहले की ही तरह अखबारों की सुर्खियां बटोर रही हैं। इन नई आर्थिक नीतियों की चकाचौंध शहरों के मॉल के दरवाजे पर आकर रुक जाती है। उससे आगे तो अंधेरा और बेबसी ही बाकी बचते हैं। 
भारत में विनिर्माण क्षेत्र की हालत इन 25 सालों में नहीं सुधरी। 1988-89 में यहां जीडीपी का 16-4» पैदा होता था और 2015-16 में यहां जीडीपी का 16-2» पैदा होता है। यानि जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान कुछ कम ही हुआ है, बढ़ा नहीं है। इन 25 सालों में औद्योगिक उत्पादन 27-28» के आसपास ठहराव का शिकार रहा है। जबकि इसके समानान्तर चीन, इंडोनेशिया, कोरिया आदि देशों में यह 40 से 50» के बीच है। इस दौरान खेती में जीडीपी का हिस्सा बहुत कम हुआ है और सेवा क्षेत्र में यह भागेदारी बढ़ी है। उपरोक्त आंकड़ों से जो तस्वीर मिलती है, वह एक विकृत विकास की तस्वीर है। कृषि और विनिर्माण क्षेत्र जिन पर देश की अधिकतर आबादी अपनी आजीविका के लिए निर्भर करती है, इनका हिस्सा जीडीपी में कम हुआ है। इसकी वजह से खेती और विनिर्माण उद्योग में लगे 36 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों के लिए भयंकर संकट खड़ा हो गया है। अगर उनके परिवारों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या 100 करोड़ बन जाती है। देश का विनिर्माण उद्योग स्थानीय बाजार की मजबूती पर विकसित नहीं हुआ है बल्कि विदेशी बाजार पर निर्भर हैं इसलिए जब भी धनी देशों में आर्थिक संकट तीखा होता है, भारत में विनिर्माण क्षेत्र चरमराने लगता है और लाखों मजदूर सड़कों पर आ जाते हैं। 
भारतीय कृषि यूं तो लगभग हर साल संकट में रहती है सिवाय उन सालों के जब देश में अच्छी मानसून होती है। इतने अधिक विकास के बाद भी खेती ‘ऊपर वाले’ की दया पर निर्भर रहती है। इन 25 सालों में किसानों की हालत बद से बदतर हुई है। बिना राजकीय सहायता के खेती अपने दम पर न भारत में टिक सकती है और न ही अमरीका और युरोप के धनी देशों में। आप स्वयं अंदाजा लगाइये कि अमरीका अपने किसानों को (जो असल में कई-कई हजार एकड़ जमीन के मालिक होते हैं) प्रतिदिन 6000 करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रदान करता है। हमारे किसानों को पूरे साल में भी इतनी सब्सिडी नहीं मिलती । नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती की गयी, बाजारों को बड़ी कंपनियों के लिए खोल दिया गया जिससे बीजों और अन्य रसायनों के दामों पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं रह गया। बैंकों ने अपने व्यापार में इजाफा किया लेकिन किसानों के पास अभी भी कर्ज के लिए मुख्यतः पुराने सूदखोरों और आढ़तियों के पास जाने के इलावा कोई विकल्प नहीं था। बैंकों का इस्तेमाल धनी किसान और बड़े जमींदार कर रहे थे जो बैंक पूंजी से अपनी सूदखोर पूंजी को ही बढ़ा रहे थे। मोनसेंटो, कारगिल जैसी कंपनियों ने इसी दौरान खुद को दुनिया की सबसे बड़ी सौ कंपनियों में स्थापित किया। देश के बड़े जमींदारों और आढ़तियों ने इन नीतियों की बदौलत खूब विकास किया। बाजार के साथ जुड़ कर कई धनी किसानों ने भी फायदा उठाया। लेकिन मध्यम, गरीब और भूमिहीन किसानों की अगर हम बात करें तो उन्हें इन नीतियों की वजह से और ज्यादा अराजक स्थितियों का सामना करना पड़ा है। वे और ज्यादा बाजारवाद के शिकार हुए हैं। संकट का आलम हमें उनकी आत्महत्या के आकड़ों से साफ साफ दिखाई दे जाता है। साल में कई करोड़ नौकरियों का वायदा करके 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार भी इन दो सालों में महज दो चार लाख लोगों को ही नौकरियां दे पायी है। असल में नई आर्थिक नीतियों का मकसद कभी रोजगार उपलब्ध करवाना था ही नहीं। 
इन नीतियों की बदौलत सरकारी नौकरियों की संख्या में भारी कटौती हुई है, बहुत से काम अब ठेके पर करवाए जाने लगे हैं। हरियाणा रोडवेज में 1992 में 1 करोड़ की आबादी के लिए लगभग 3600 बसें और 25000 कर्मचारी थे। लेकिन अब 2-5 करोड़ आबादी के लिए सिर्फ 4000 बसें और 19000 कर्मचारी हैं। लगभग 12000-13000 कर्मचारियों को ठेके पर रखा गया है। इसी प्रकार बिजली विभाग में सन् 1987-88 में लगभग 50000 कर्मचारी थे जो अब घट कर 23000 रह गये हैं। ऐसे ही स्वास्थ्य विभाग और शिक्षा विभाग का मामला है। ये ऐसे विभाग हैं जिनका काम सीज़नल नहीं है बल्कि परमानेंट प्रकार का है और कानूनी तौर पर इन विभागों में ठेके पर कर्मचारी नहीं रखे जाने चाहिएं।
इन नीतियों ने देश में एक विकृत विकास को जन्म दिया है। इससे कुछ क्षेत्रें में भारी औद्योगिकरण हुआ है जबकि देश के विशालकाय इलाके औद्योगिक रूप से पिछड़ गये हैं। दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बैंग्लुरु आदि चंद इलाकों में आज देश भर से लोग काम की तलाश में पंहुच रहे हैं। इससे इन इलाकों में झोपड़पट्टी में रहने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। वहां मकानों के किराये इतने ज्यादा बढ़ गये हैं कि निम्न मध्यम वर्ग के लिए भी दो कमरे का मकान लेना संभव नहीं है। इसका समाधान केवल तभी है जब इन शहरों पर यह अनावश्यक बोझ कम हो, उद्योग उन क्षेत्रें में भी लगाये जायें जहां से श्रमिक पलायन कर रहे हैं। 
25 सालों का इन नीतियों का अनुभव हमें यही बताता है कि ये नीतियां अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब हुई हैं। इनका मकसद पूंजीपतियों की ताकत को और ज्यादा मजबूत बनाना था, उन्हें ज्यादा मुनाफा कमाने के अवसर उपलब्ध करवाना था, मजदूरों की संगठित ताकत को तोड़ना था। इन नीतियों ने ठीक यही किया है लेकिन अगर आम आदमी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये नीतियां उसके जीवन में सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं लेकर आई हैं। अभियान पत्रिका पिछले 25 साल से भूमंडलीकरण, उदारीकरण और नीजिकरण की जन विरोधी नीतियोें के विरूध सतत एवं सचेतन रूप से कलम थामे हुए है। और इन जन विरोधी नीतियों के खिलाफ मेहनतकश जनता के जझारू संघर्षों में सच्ची भागेदारी निभाने के लिए गर्व महसूस करती है। इसी कड़ी में आप सभी मजदूर-किसानों, छात्रें-नौजवानों, जन पक्षधर बुद्धिजीवियों, कला कर्मियों, राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रताओं को सादर आमंत्रित करते हुए अभियान पत्रिका इस महत्वपूर्ण मसले पर एक दिन के सेमीनार का आयोजन कर रही है । इस कार्यक्रम में बढ़ चढ़ कर भाग लें ।    

सेमीनार के विषय
भूमंडलीकरण और रोजगार का संकट,
भूमंडलीकरण और खेती का संकट,
भूमंडलीकरण के दौर में बदलते सांस्कृतिक सरोकार
वक्तागण- राहूल वर्मन और मनाली वर्मन, आई आई टी कानपुर, अंजनी कुमार, संपादक भौर पत्रिका दिल्ली ।
दिनांक 26 मार्च 2017 दिन रविवार सुबह 10 बजे गुज्जर धर्मशाला ब्रह्मसरोवर कुरूक्षेत्र
राजनीतिक व सांस्कृतिक सजृन का अभियान