रविवार, 24 दिसंबर 2017

इस देश से जब तब जाति-प्रथा का उन्मूलन नहीं होता, तब तक क्रांति असंभव है और जब तक क्रांति नहीं होती, जाति-प्रथा का उन्मूलन असंभव है -- आनंद तेलतुम्बड़े



इस देश से जब तब जाति-प्रथा का उन्मूलन नहीं होता, तब तक क्रांति असंभव है और जब तक क्रांति नहीं होती, जाति-प्रथा का उन्मूलन असंभव है           --  आनंद तेलतुम्बड़े


प्रस्तुत लेख डॉ आनंद तेलतुम्बड़े द्वारा 17 सितंबर 2017 को पब्लिक धर्मशाला नरवाना में अपने 100 अंकों का सफर पूरा होने के उपलक्ष में अभियान द्वारा आयोजित अभियान गोष्ठी में जाति-प्रथा का उन्मूलन विषय पर दिए गए भाषण के संपादित अंश हैं ।


आज हम बड़े ही कठिन दौर से गुजर रहे हैं । हमारी पूरी जिंदगी चुनाव बहिष्कार करने में लगी रही है । लेकिन आज हमें चुनाव की बात करनी पड़ रही है । संकट हमारे सामने खड़ा है । अगले चुनाव में मोदी यदि टेक ऑफ कर जाता है तो हम अपनी लड़ाई अगले सौ साल के लिए कम से कम हार जाएंगें । 2014 से जब से हिंदुत्व की ताकतें पावर पर आयी हैं । आज के विषय को भी इसी संदर्भ में समझना होगा । जब भी जाति का जिक्र आता है, एकेडमिक लोग तो एकेडमिक लाईन लेते हैं तथा बाकि  बातें हैं वो दलितों पर छोड़ देते हैं कि तुम सोचो तुम्हारा सवाल है । यह सवाल सिर्फ उनका सवाल नहीं है । यह सवाल इस देश की क्रांति का सवाल है । जब तक जाति प्रथा खत्म नहीं होगी, तब तक इंडियन रिवोल्यूशन नामुमकिन है । इसलिए यह सबका प्रश्न है । अभी एक साथी ने कहा है कि किसी प्रश्न का अगर हल ढुंढना हो तो उसकी जड़ में जाने की जरूरत होती है । जाति प्रथा के जड़ में जाने की जरूरत नहीं है । क्योंकि जब हम लोग जड़ में जाते हैं, तो देखते हैं कि उसकी जड़ें कहां हैं और उस पर अगर वहां प्रहार करें तो उसको जड़ से उखाड़ फेंका  जा सकता है । जाति प्रथा ऐसी प्रथा नहीं है । जैसे भी वो जन्मी हो लेकिन वास्तव में वह विकसित हुई है । उसका इवोल्यूशन हुआ है । इस इवोल्यूशन का उसके जड़मूल से कोई संबंध नहीं है । अगर जड़ की ही बात करनी है तो मेरी मान्यता है । जो शायद किताबों में नहीं मिलेगी । एक भौतिकवादी दृष्टि से अगर जाति को देखा जाए तो जाति-प्रथा की जड़ें हैं, इस देश की प्राकृतिक सम्पन्नता में गड़ी हुई हैं । यहां पर जो नोमेडिक ट्राईब थे । सारी दुनियां में, वे जब खेती के लिए बसने लगे, तब उनको एक ढांचागत बदलाव से गुजरना पड़ा । उसको एक ढांचागत प्रारूप मिला । लेकिन यहां पर इतनी सारी जमीन थी, इतना सारा सुर्य प्रकाश था, इतना सारा पानी था, सब कुछ खेती के लिए एकदम अनुकूल वातावरण था इसलिए उनको यहां वैसे ढांचागत बदलावों से गुजरने की जरूरत नहीं पड़ी । भारत में नोमेडिक ट्राईब्स् जैसे था वैसा ही, वहीं  का वहीं खेती करने के लिए बस गया । वही जातियां थी । उसमें उंच-नीच थी । लेकिन उंच-नीच का सैंस नहीं था । वह एक प्रकार की ट्राइब्ल आईडेंटिटि थी । जैसा दक्षिण अफ्रिका में देखने को मिलता है । बाहर के लोग भारत आए । उनके पास अपना वर्ण व्यवस्था का एक विकसित ढांचा था  जिसमें पहले तीन वर्ण थे, फिर चार, फिर पांच वगैरह-वगैरह । वे विकसित होते गए । उन वर्णों में वास्तव में एक उंच नीच का सैंस था । पदसोपान का सैंस था । उन्होने यहां प्रचलित जाति-व्यवस्था पर उसको लादा । धीरे धीरे जातियां बनती गई । लेकिन बाद में यहां बहुत विरोध हुआ । एक किस्म का विचारधारात्मक विरोध हुआ । आप जानते हैं ये जो था उसको ब्राह्मणवााद कहते हैं उसके विरोध में जो था वह श्रमणवाद था । श्रमणों ने उसका विरोध तो जरूर किया लेकिन आगे चलकर उन्होनें इसको आत्मसात कर लिया ।  इतिहास में सिर्फ दो ही श्रमण थे । उदाहरण के रूप में जैन धर्म और बौद्ध धर्म । वो बचे रहे । उसमें भी परिवर्तन आते रहे । ऐसा कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म ने जाति प्रथा का बहुत विरोध किया । बौद्ध धर्म ने जरूर विरोध किया है लेकिन वह केवल विचारधारात्मक स्तर पर ही रहा । जाति की सामाजिक प्रथा ने समाज को जकड़ लिया था । जातियां एक जीवंत सच्चाई बन गई थी । इसका अर्थ यह है कि जातियां सिर्फ सामाजिक नहीं थी, जातियां सिर्फ धार्मिक नहीं थी, जातियां सिर्फ आर्थिक नहीं थी, जातियां केवल राजनीतिक नहीं थी, जातियां सब कुछ थी । लोग जातियों को जीने लगे थे । निचली जातियों ने भी मान लिया कि वे निम्न हैं । इसका यही कारण है कि जातियां यहां तीन हजार वर्ष तक टिकी रही । आपको किसी भी देश में ऐसी सामाजिक पद्धति  नहीं मिलेगी । यह दुनिया की  सामाजिक व्यवस्थाओं में सबसे पूरानी मानव-निर्मित व्यवस्था है । हमें जाति प्रथा को इस तरह जुझना पड़ेगा । जाति प्रथा में काफि सालों तक कोई परिवर्तन नहीं आये । गांव में इनका सिस्टम रहा । लोग इसी में जीते रहे । जब तक यहां पर 12वीं या 13वीं सदी में, मुस्लिम धर्म के लोग आकर नहीं बसने लगे । यहां पर उन्होनें एक वकैल्पिक सामाजिक सभ्यता का निर्माण किया । तब तक यहां पर जाति  प्रथा का कोई भी (काउंटर पोल्ट) नहीं था । उन्होनें भी कुछ ज्यादा नहीं किया । क्योंकि उनको भी राज करना था । उन्होनें उच्च जातियों से अपना मेल-मिलाप किया । उसके तहत थोड़े बहुत कॉस्मेटिक बदलाव उन्होनें आए । एक डेमोग्राफिक बदलाव आया । निचली जातियों कोे एक वकैल्पिक सभ्यता का नमूना देखने को मिला । इसके कारण बहुत सारी जातियां मुसलमान बनी । विवेकानंद कहते हैं कि हिंदू जनसंख्या का 20 प्रतिशत इस्लाम में चला गया जो कि तलवार के बल पर नहीं था । संघ परिवार के लोग कहते हैं कि मुसलमानों ने तलवार के दम पर धर्मातंरण किया है । ये झूठ है । लोगों को इस्लाम में समता का दर्शन मिला । एक ऐसी सभ्यता, और एक ऐसा भगवान मिला जो इस भगवान से निराला था । इसलिए उन्होनें इस्लाम को ग्रहण किया ।
भारत में औपनिवेशिक शासन के तहत बहुत सारे बदलाव आने लगे । यहां पूंजीवाद आया, पश्चिमी सभ्यता और मूल्य आए । जब अंग्रेज यहां आकर बसने लगे तो यहां पश्चिमी जीवन शैली का मॉडल आया । पूंजीवाद का विकास होने से आधारभूत ढांचा आने लगा । इसके कोई इन्टैंडेंट बेनीफिट नहीं थे लेकिन दलितों को इससे काफि कुछ अवसर मिला । यहां तक कि दलित आंदोलन का जन्म भी औपनिवेसिक काल में हुआ । दलितों की चेतना, दलितों का संघर्ष, ये सब उसी काल में हमें देखने को मिलेगा ।
1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली । वह एक मोड़ है । जाति प्रथा का अध्ययन करने की दृष्टि हम उसको ऐतिहासिक रूप से पांच मुख्य मंजिलों में बांट सकते हैं: 1- ठहराव के काल में जाति व्यवस्था 2- मुगल काल में जाति व्यवस्था 3- औपनिवेसिक काल में जाति व्यवस्था 4- 1947 के बाद जाति व्यवस्था तथा 5- नव-उदारवाद के काल में जाति व्यवस्था ।
अगर हम इस विषय में रूचि रखते हैं कि जाति प्रथा का उन्मूलन कैसे किया जाए ? आज के दौर में हम जाति के नाम पर जो झेल रहे हैं  उसको इस दायरे में देखना होगा । हम देखते हैं कि जो कुछ बदलाव 1947 के बाद देश में आये ऐसे बदलाव पिछली कई सदियों में भी नहीं आए होगें । ये कोई सकारात्मक बदलाव नहीं थे । लोगों को बहुत गलतपफ़हमियां हैं । क्योंकि हमारे विद्वान लोगों ने इनको ठीक से परखा नहीं । ये बड़े दुख की बात है । जो कुछ भी मैं कहुंगा शायद ऐसा सुनकर आपको धक्का लगे । लेकिन वह बोलने की जरूरत है । जब संविधान सभा का स्तर चल रहा था । तब महात्मा गांधी की जय-जयकार के बीच छुआछुत का उन्मूलन किया गया । इसके लिए कानून बनाया गया कि आज से भारत में छुआछुत नहीं होगी । लेकिन जाति को गैर-कानूनी नहीं बनाया गया । सभी लोग मानते हैं कि जातियां संविधान से निकाल दी गई हैं या स्वतंत्र भारत में जातियां नहीं हैं । यह एक गलत फहमी है । जातियों का उन्मूलन क्यों नहीं किया गया ? ये कहकर कि हम निचले लोगों को सामाजिक न्याय देना चाहते हैं । कौन सा सामाजिक-न्याय देना चाहते हैं ? आरक्षण देना चाहते हैं ।  जोकि पहले से ही था । बहुतों को मालूम नहीं कि आरक्षण  शाहू महाराज ने 1902 में लागू किया था । ब्रिटिश भारत में आरक्षण 1946 में लागू किया गया । इसके लिए बाबा साहब लड़े थे । गोलमेज सम्मेलन में उन्होने दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडलों की मांग की और वे जीत गए । गांधी ने इसके विरोध में आमरण अनशन किया । इस तरह गांधी ने दबाव डालकर बाबा साहब के हस्ताक्षर ऐतिहासिक पूना पैक्ट पर करवा लिए थे । बाबा साहब को ध्यान में नहीं आया कि क्या गलती हो रही थी । बाबा साहब ने कहा कि मैं बहुत खुश हूं, अगर गांधी का रवैया ऐसे ही होता तो मुझे गोलमेज सम्मेलन में झगड़ा करने की जरूरत ही नहीं थी । लेकिन बाद में उनको अपनी गलती का अहसास हुआ । पहली बार यह कहा गया कि राज्य दलितों के उत्थान के लिए प्रयत्न करेगा । बाबा साहब की लड़ाई राजनीतिक आरक्षण हासिल करने की लड़ाई थी । लेकिन शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण पाया जाता है, उसको पूना पैक्ट में इंगित किया गया । उसको भारत सकार कानून 1935 में शामिल किया गया । वह उसकी जड़ है । तब आरक्षण लागू नहीं किया गया क्योंकि उस समय दलितों में पढ़े लिखे लोग नहीं थे । ऐसा सोचा गया अगर कोई दलित पढ़ा-लिखा मिलता है, और कोई नौकरी है तो उसको तुरंत भर्ती कर लिया जाएगा । इस तरह यह प्रीफ्रेंसियल पॉसिसी अपनाई गई । बाबा साहब ने 1943 में वायसरॉय को एक नोट लिखा - ‘‘ ये जो प्रीफ्रेंसियल पॉसिसी हम चला रहे हैं, मुझे नहीं लगता ये काम कर रही है । इसके बदले दलितों की जनसंख्या के अनुपात में उनका हिस्सा कोटा के रूप में दिया जाए ।’’ और वायसरॉय ने उसका अनुमोदन कर दिया । यह नोट आज की कोटा-व्यवस्था का जनक है । 1943 में ही आरक्षण की व्यवस्था पूरे देश में आ चुकी थी । 1947 में जब सत्ता का हस्तातंरण हुआ है और 1950 में यह संविधान लागू किया गया है, उसके कई वर्ष पहले ही आरक्षण मौजूद था । ये कौन-सा नया आरक्षण देने वाले थे ? मैं कहता हूं कि अगर इनकी नियत साफ होती तो छुआछुत के साथ जाति-प्रथा का उन्मूलन भी उसी दिन कर दिया गया होता । परिस्थितियां ऐसी थी । क्योंकि 1936 में जिन्हें आरक्षण मिलना था उनको एक प्रशासनिक श्रेणी में सम्मिलित किया गया था । उसका नाम था अनुसूचित जाति । यह एक प्रशासनिक श्रेणी थी । उसका हिंदू धर्म की जातियों से कोई संबंध नहीं था । जातियों को भी उसी समय जड़ से उखाड़ कर फेंक सकते थे । लेकिन उनका इरादा ये नहीं था । क्योंकि जाति और धर्म को किसी भी कीमत पर संविधान में जिंदा रखना था । क्योंकि किसी भी शासक वर्ग की ये आवश्यकता थी । ये दो हथियार हैं जो देश की जनता की एकता को खंड खंड कर सकते हैं । इसलिए उन्होनें जातियों को मरने नहीं दिया । बाद में जनजातियों के लिए एक अनुसूचि बनाई गई - अनुसूचित जनजाति । उसमें एक समस्या थी कि उनके लिए कोई निश्चित मानदंड नहीं था । जिस प्रकार अनुसूचित जाति के लिए निश्चित मानदंड था कि जो लोग अछूत हैं वही आएगें । कोई अपने आप नहीं बोलता कि मैं अछूत हूं । यह एक निश्चित मानदंड था ।  लेकिन जनजाति के लिए कोई परिभाषा नहीं थी । आधी जनजातियां जो जंगलों में बसी थी, वो तो ठीक है लेकिन अब जनजातियां शहरों और समतल भू-भागों पर भी बसने लगी थी । अब कोई भी दावा कर सकता था कि वो भी जनजाति है । अगर इस आरक्षण को उन तक भी विस्तार करना था तो पहले से अस्तित्व में चुकी सूचि में ही उनको भी सम्मिलित कर लिया जाता । वह नहीं किया । क्योंकि अनजातियां अछूत नहीं थी । उनमें जातियां नहीं थी । अगर उनको एक ही अनुसूची में सम्मिलित कर लेते तो उस अनुसूची का कलंक कम से कम धुंधला हो जाता । उन्होनें नहीं किया । जाति की जगह जनजाति लिखा गया । उसको अलग अनुसूची बनाया गया । आगे चलकर एक और प्रावधान संविधान में लिखा कि देश में जो भी वर्ग शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं, उनको राज्य दीया लेकर ढुंढेगा और उनके लिए भी इसी प्रकार के प्रावधानों का बंदोबस्त करेगा । ये था अन्य पिछड़े वर्गों का आरक्षण । आरक्षण पिछड़ेपन के लिए नहीं दिया गया था, लोगों में यह बहुत गलतफहमी है । औपनिवेसिक शासन के दौरान आरक्षण अपवादस्वरूप सामाजिक श्रेणियों के लिए अपनाई गई, एक अपवादस्वरूप नीति थी । अंग्रेजों को हम गाली देते नहीं थकते कि वे फूट डालो और राज करो की नीति के जनक हैं । मेरे हिसाब यह नीति उन्होनें यहां के ब्राह्मणों से सीखी है, वे खुद इस नीति को यहां नहीं लाये थे । पहली बार, संविधान में जो आरक्षण साफ-साफ, सिद्धांतिक एवं विशुद्ध रूप से लागू किया गया था, उसको पिछड़ेपन से जोड़ा गया । आज जो आरक्षण के नाम पर माहौल देखते हैं, ऐसी कोई जाति ही नही है जो आरक्षण नहीं मागती हो । क्योंकि भारत एक पिछड़ा देश है । आज 70 वर्ष के बाद भी भारत Comity of Nations में  निचले पायदानों पर आता है । इनमें बहुत से छोटे-छोटे देश हैं, लेकिन बड़े देशों में भारत अकेला ऐसा देश है, जो निचले पायदान पर है । इस तरह के देश में पिछड़ेपन को आधार बनाकर आरक्षण की नीति बनाना कितनी बड़ी चालबाजी थी, आपको समझना होगा । ये बात आज तक कोई भी नहीं बोला । इस तरह से उन्होनें जाति को जिंदा रखा ।
जाति इस देश की प्रगति के अड़चन है, ऐसा कहने वाला पहला आदमी कौन था ? कौन था ? भगत सिंह, महात्मा गांधी, पेरीयार, अंबेडकर या ज्योति बा फूले । नहीं । उसका नाम था कार्ल मार्क्स । न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में वह बेचारा अपने जीवन यापन के लिए लेख लिखता था । उस समय मार्क्स ने भारत के बारे में काफि लेखन किया । मार्क्स ने 1852 में लिखा था कि भारत में रेलवे आएगी । रेलवे की बदोलत यहां पर उद्योग आएगा । उद्योग की बदोलत ये जाति प्रथा ढीली हो जाएगी । धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी । लोग बहुत कुछ कहते हैं कि मार्क्स भारत के बारे में नहीं जानता था या भारत के बारे में मार्क्स का ज्ञान सतही था या जाति-प्रथा के बारे में मार्क्स नहीं जानता था वगैरह-वगैरह । बाकि के लोगों का ठीक है, मार्क्स के प्रति बहुत सारी भावनांए हैं, उनका आदर करना चाहिए लेकिन कम्यूनिस्ट कहते हैं और वे भी क्षमा-याचना भरे अंदाज में कि क्या करें मार्क्स को भारत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी या यह कि मार्क्स गलत था । मै कहता हूं कि मार्क्स एकदम सही था । इसलिए सही था कि जब यहां पर पूंजीवाद आया और जिन जातियों का सम्बन्ध पूंजीवाद के साथ बना उन जातियों के जातिवादी संस्कार ढीले हो गये । वे वैश्य जातियां थी क्योंकि पूंजीवाद पहले शहरों में आया था । यहां जिन भी जातियों का सामना पूंजीवाद से हुआउनके जातिय बंधन करीब-करीब नष्ट हो गये । कारण है जब ऐसे सामाजिक संबंध बनते हैं उसमें ट्रांजेंक्शन कोस्ट बहुत कम हो जाती है । आप जानते होगें कि मारवाड़ी लोगों का अपना एकाउंटिंग सिस्टम था । वह उनकी अपनी विकसित की हुई व्यवस्था थी । क्योंकि सब कुछ विश्वास पर आधारित था कि किसने-कितना रूपया लिया है या कितना-किसको बेचा, उसकी एक ही एंट्री हो जाती थी । दोहरी ऐट्री वाली आधुनिक लेखा-व्यवस्था उनके पास नहीं थी । उन्होनें काफि बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया था । भारत के पूंजीवाद में मारवाड़ी, गुजराती तथा पारसी समुदायों का बड़ा हाथ रहा है । इन सामाजिक सम्बन्धों के कारण, उनकी जातियां जाती रही । हर वर्ण में जातियां थी, यहां तक कि द्विज जातियों में भी जातियां थी । इस आर्थिक कारण के वजह से ये जातियां समाप्त हो गई । आगे चलकर, स्वतंत्रता के बाद, जब ऐसी कुछ पॉलिसी आई, वे क्या नीतियां थीं मैं बाद में व्याख्या करूंगा । यहां पर शुद्र जातियां का मध्य क्रम था, उससे एक वर्ग निर्माण किया गया । ये जातियां भी पूंजीवाद के साथ रूबरू हुई । इन जातियों का बैंडवेगन उपरोक्त जातियों के साथ जुड़ गया । आज आपको यह देखने को मिलेगा कि ये जो शुद्र जातियां हैं, उनमें से भी द्विज जातियों में शादी संबंध बनते हैं ।अमीर लोगों में सबकुछ बराबर चलता है ।
ये एक प्रक्रिया थी कि जिसमें जातिवाद पर पूंजीवादी आधुनिकता के प्रहार हो रहे थे । जिससे जातिवाद के समाप्त होने की संभावना पैदा हो रही थी । यह एक सदियों पूरानी बीमारी है । इतनी आसानी से नहीं जा सकती । लेकिन क्या हुआ कि संविधान में जातियों को जिंदा रख लिया गया ।  हिंदू जातियों का अपने आधुनिकतम संवैंधानिक धरातल पर पुर्नरोपण किया गया । हिंदू-धर्म की परंपरागत पुरानी जातियां तो प्रहार करने से समाप्त हो सकती थी । लेकिन आधुनिकता के आधार पर जिनका पुर्नरोपण किया गया हो, उनको कैसे उखाड़ेंगे ? जिस आधुनिकता में हम आज जी रहे हैं, उसमें इन जातियों की जड़ है । आज की जातियां मनु-स्मृति से नहीं, आधुनिक संविधान से आती हैं ।
जब 1915 में गांधी दक्षिण-अफिका से वापस आये  उसने जान लिया था कि इस देश में जब तक जन-आंदोलन  नहीं बनेगा तब तक कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता । गांधी जैसा रणनीतिकार संभवतः भारत में पैदा नहीं हुआ । वह 1915 में भारत आया, 1916 में उसने पूरे देश का भ्रमण किया, सारी जानकारी हासिल की । कांग्रेस पहले एक शिक्षित जमीदारों का कल्ब था, गांधी ने उसको एक व्यापक जन-आंदोलन का स्वरूप दिया । कांग्रेस ने अपने आप को ऐसे चरित्र में पेश किया कि वह जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई संगठन है । यह भूलभुलैया लोगों में आज भी कायम है कि कांग्रेस देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी ।  Congress was not representing Janta, Congress was always representing the incipient  bourgeoisie of this land, एकदम शुरूआत से ही उनको मालूम था कि इस देश की प्रगति ठवनतहमवपेपम ब्ंचपजंसपेउ से ही होनी है और उसका समर्थन करना है । जब से सत्ता का हस्तातंरण हुआ, तब से उन्होनें इसी दिशा में अपनी सारी हरकतें शुरू की । लोगों के नाम पर संविधान को अपनाया गया - We the people of India...-वगैरह । हर कोई नीति जनता के नाम पर सेल की गई । लेकिन अंदरूनी रूप से सारी नीतियां केवल पूंजीवाद को ही लाभ पंहुचाने वाली थी । उदाहरण के तौर पर जब संविधान-सभा का स्तर चल रहा था, नेहरू ने ऐलान किया था कि हमने बोम्बे-प्लान को स्वीकार नहीं किया है । 1942 में 8 बड़े पूंजीपतियों ने मिलकर यह प्लान बनाया था कि यदि भारत स्वतंत्र हुआ तो उसके 15 वर्ष के काल के लिए ऐसी योजना होनी चाहिए कि इस काल में देश का जीडीपी 3 गुणा तथा प्रति व्यक्ति आय दो गुणा बढ़ जाए । उन लोगों की ऐसी खुबसूरतयोजना थी । जब यह प्लान 1947 में नेहरू के सामने पेश किया तो नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया था कि उन्होंने यह प्लान स्वीकार नहीं किया है । जब नेहरू ने पहली पंचवर्षिय योजना की घोषणा की, उन दिनों पंचवर्षिय योजना सोवियत व्यवस्था में हुआ करती थी, दुनियां को ऐसे लगा कि नव-स्वतंत्र भारत सोवियत मार्ग पर जाएगा । इसने सभी को आर्श्चय में डाल दिया था । अपनी पहली पंचवर्षिय योजना की पड़ताल करके देखिए, उस योजना के आंकड़े और बॉम्बे प्लान की पांच वर्ष के लिए बनाई गई योजना के आंकड़े एक समान थे । उन्होनें हुबहू बॉम्बे प्लान को ही लागू किया लेकिन सार्वजनिक रूप से कहते रहे कि उसको स्वीकार नहीं किया गया । भारत सरकार ने पहली पंचवर्षिय योजना में बॉम्बे प्लान के आंकड़े स्वीकृत किए । अगर हम उसकी पड़ताल करेंगें तो दिखाई देगा कि सारे के सारे आंकड़े एक समान हैं । दूसरी पंचवर्षिय योजना के बारे में कहा गया था कि यह हमारा होम ग्रोन मॉडल है । यह Mahalanobis-Nehru Model था । लेकिन दूसरी पंचवर्षिय योजना और तीसरी पंचवर्षिय योजना के आंकड़ों की अगर जांच करेंगें तो वो भी लगभग मिलते-जुलते दिखाई देगें ।  इस तरह का Deception (धौखा) चलता रहा ।
यहां पर भूमि सुधार लाये गए । जनता में जमीन की भूख थी । जनता ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था । उनको लगा कि स्वतंत्रता मिलने के बाद उनको जमीन मिलेगी । इसके लिए भूमि-सुधार का कार्यक्रम बनाया गया । जमीन को राज्यों का विषय बना दिया । इनकी नियत यदि साफ होती तो भूमि को केंद्रीय विषय बनाते । एक केंद्रीय कानून बनाने के बाद, उसको राज्यों द्वारा लागू किया जाना चाहिए था । भूमि हदबंदी आदि नाम देकर कई वर्षों तक अलग-अलग राज्यों में भूमि-सुधारों के लिए बहुत से कानून बनाये गए । आज भी हमें पता नहीं चलता है कि किस किस्म का भूमि-सुधार इस देश में हुआ ? आज देश के 9-5 प्रतिशत लोगों के पास 56-4 प्रतिशत कृषि भूमि है । यहां पर 41 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं । इस तरह की विषमता शायद ही किसी देश में मिले । इससे हम यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि इस देश में कैसे भूमि-सुधार हुए थे । भूमि-सुधार इस मकसद से किए क्योंकि कांग्रेस को इतना आत्म-विश्वास नहीं था कि ग्रामीण भारत पर शासन कैसे किया जाए ? उनको ग्रामीण क्षेत्रें में अपने एजेंट पैदा करना था । वहां पर धनी किसानों का एक वर्ग तैयार किया गया । India is the only country on the face of Earth जहां पहले स्टेट का निर्माण हुआ और उस स्टेट ने बाद में अपने Conginial Class का निर्माण किया । किसी के ध्यान में ये बात नहीं आती है । जो जातियां पहले से जमीन पर थी, उनको ही जमीन मिली, दलितों को नहीं । दलित वास्तव में जमीन से जुड़े थे, कृषि-भूमि उन्हें मिलनी चाहिए थी । थोड़ी बहुत जमीन के अलावा दलितों को कुछ नहीं मिला । क्योंकि रिकॉर्ड आदि में दलितों के नाम नहीं थे । भू-लेखों पर काश्तकारों के नाम थे, ये मध्यम जातियां थी । उन जातियों को जमीनें मिली । ये जमींदार बन गए । हमारे क्षेत्रें में जो ब्राह्मण जमींदार होते थे, गांव छोड़कर शहरों में बस गए । इन मध्यम जातियों के हाथ में ब्राह्मणवाद का डंडा आ गया । दलितों में यह प्रचलित है और वे इसे एक गाने की तरह रटते रहते है कि ब्राह्मणों ने ये किया-वो किया आदि-आदि । लेकिन अभी वह डंडा इन मध्यम जातियों के हाथ में है, यह समझ में नहीं आता है ।  बाद में हरित क्रांति आई । Green Revolution was again a Capitalist Startegy. पूंजीवादी रणनीति के तहत ही देश का कृषि-उत्पादन बढाना था । बोला गया कि भारत में भूख है ? उसको मिटाने के लिए इसकी जरूरत है । इससे वास्तव में जिस वर्ग का निर्माण हुआ, उसको समृद्ध किया गया । एक गणना के अनुसार 50 के दशक के अंतिम वर्षों और 60 के दशक के मध्य तक इस वर्ग की आय में 25 से 55 गुणा तक की वृद्धि दर्ज की गई । इससे गांव में क्या-क्या बदलाव आये । ये पूर्ण रूप से पूंजीवादी रणनीति थी । इसके तहत गांवों में इनपुट मार्केट बढ़ा । उच्च उत्पादकता वाले बीज लाने थे । बीज का बाजार खड़ा हुआ । कृषि उत्पादों को बेचने के लिए मंडियां बनी । कृषि का मशीनीकरण हुआ, जैसे पंजाब को हरित क्रांति का एक उदाहरण माना जाता है । कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि का बाजार खड़ा हुआ । क्रेडिट मार्किट बना क्योंकि इसके लिए पैसा भी चाहिए था । सारा बाजार ग्रामीण भारत में आ धमका । कृषि में एक किस्म के पूंजीवादी संबंध पैदा हो गये । पूंजीवाद इस तरह से सामंतवाद को बढावा नहीं देता है । पूंजीवाद चाहे वह उद्योग में हो, या खेती में हमेशा पूंजीवाद ही होता है । जो कपड़ा उद्योग बॉम्बे में आया था, तब भी अम्बेडकर ने कम्यूनिस्टो को कहा था कि यहां पर दलित मजदूरों के लिए अलग पानी के मटके रखे हैं या विभिन्न सेक्सनों में दलितों का प्रवेश वर्जित है । उनको यह ध्यान में लाना पड़ा और तब भी कम्यूनिस्ट इस विषय को तव्वजो नहीं देते थे । ये दूसरी बात है कि कम्यूनिस्टो ने ऐसा क्यों नहीं किया । आज जिस तरह से कम्यूनिस्ट वोटों के पिछे पड़े रहते हैं । तब उनका यही कन्सर्न था कि यदि हमने जाति का सवाल उठाया तो मजदूरों में फूट पड़ जाएगी । वैसे भी वे जाति के सवाल को बाह्य ढांचे के सवाल के रूप में देखते थे । इन सारे बदलावों, भूमि-सुधार और हरित क्रांति, आदि का दलितों पर क्या असर हुआ ? कितनी भी गालियां हम जाति प्रथा को दे सकते हैं । जाति प्रथा एक परस्पर निर्भरता की व्यवस्था थी । गांव में जो दलित रहते थे, जैसा मैनें कहा -‘‘सभी ने मान लिया था कि जाति हमारे सामाजिक जीवन का भाग है, इसी में जीना है। ये स्वाभाविक है ।’’ गांव में क्या होता था कि हरेक को अपनी-अपनी जाति के अनुसार काम करना है । बाद में सबको खाना है, चाहे दलितों को दूर से फेंक कर ही दिया जाता था लेकिन उनको मरने के लिए नहीं छोड़ दिया जाता था । लेकिन ये पूंजीवादी संबंध आने की वजह से जजमानी-व्यवस्था जैसी परंपरागत प्रथाएं नष्ट हो गई । दलित ग्रामीण सर्वहारा बन गए । दलित खेतों पर काम करने की एवज में मिलने वाली मजदूरी पर निर्भर हो गए । किस पर ? जो धनी किसानों का नया वर्ग बना उन पर । एक तरफ ग्रामीण सर्वहारा के रूप में दलित और दूसरी तरफ पूंजीवादी किसान के रूप में धनी किसान, ये जो वर्ग अंर्तविरोध है, वह अपनी जानी-पहचानी जातिवादी लाईन पर जातिय उत्पीड़न के रूप में अभिव्यक्त होने लगा । अपनी किस्म की पहली एवं शास्त्रीय घटना तमिलनाडू के किल्वनवेरी में घटित हुई, जहां पर दिसंबर 1968  में 44 लोगों को जिंदा जलाया गया, जिनमें ज्यादातर दलित मजदूर महिलाएं थी और उनके बच्चे थे । इस घटना ने जातिय-उत्पीड़न के नए अवतार का अनावरण कर दिया । दलित समुदाय में बहुत ज्यादा और आमतौर पर सभी लोगों में यह गलतफहमी है कि ऐसे अत्याचार तो तीन हजार सालों से होते आए हैं । ऐसे अत्याचार नहीं हुए हैं । 1968 से पहले या  1950 से पहले ऐसे अत्याचार नहीं हुए । अगर तुम ही मानते हो कि तुम नीच हो और उसका कोई विरोध नहीं है तो कौन आपको मारेगा । अगर एक आध आदमी विरोध करने वाला भी है, तो उसको एक आध झापड़ मार दिया बस है । परन्तु इस तरह के अत्याचार जो एक जाति विशेष पर होते हैं और बड़े ही क्रूर ढंग से किए जाते हैं । ऐसे अत्याचार इतिहास में नहीं थे । ये भारत की स्वतंत्रता के बाद की चालबाजियों की पैदाइश है । ये हमें पता ही नहीं है ।
अभी हम नव-उदारवाद के दौर में जी रहे हैं । उसका थोड़ा जिक्र करना चाहिए । जब भारत का संविधान बना और बाबा साहब को संविधान सभा में लाया गया । ये एक बड़ी रणनीति थी । मेरी मान्यता है कि यह गांधी की रणनीति थी कि अम्बेडकर को संविधान सभा में लाया जाए और उसको प्रारूप समिति जैसी महत्वपूर्ण समिति का अध्यक्ष बनाया जाए । ये गांधी जानता था कि समाज का निम्न तबका अगर इस संविधान को Uphold करता है तो यह संविधान कभी नहीं मर सकता । क्योंकि वह यह जानता था कि थोड़े दिनों बाद इस संविधान का असली चरित्र जनता के सामने आ जाएगा । जैसाकि बाबा साहब ने चेतावनी दी थी कि इस राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ यदि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं आया, तो इसके भुगत-भोगी लोग इस ढांचे को तहस-नहस कर देगें । ऐसा कुछ नहीं हो इस वजह से अंबेडकर को इसका मुख्य शिल्पकार बनाया गया । जिनको यह गलत फहमी है कि ये संविधान बाबा साहेब ने लिखा है, बाबा साहब इसके शिल्पकार हैं । उनको यह समझना होगा कि ये एक रणनीतिक किलेबंदी थी । दलित इसके बावजूद नहीं मानते हैं कि 2 सितंबर 1953 को बाबा साहब ने राज्य सभा में खुद कहा था - '' I was used as hat. इन लोगों ने जो मुझसे लिखवाया, मुझे लिखना पड़ा । ये संविधान किसी के भी काम का नहीं है । अगर कोई कहे कि इसको जला दो, इसको आग के हवाले करने वाला मैं पहला आदमी हूंगा।’’ ये सब बाबा साहब के शब्द हैं, जिसे दलित सुनना नहीं चाहते । ये सारे तथ्य इंटरनेट पर उपलब्ध हैं । संविधान निर्माण की प्रक्रिया बताते हैं फिर पता चलेगा कि कोई एक आदमी संविधान नही लिख सकता है । जब संविधान सभा बनी, तब संविधान का ढांचा वास्तव में तैयार था । संविधान सभा में उसके मुख्य-मुख्य अनुच्छेदों पर चर्चा होनी थी । उसके लिए सदस्यों की एक उप समिति बनाई गई । उस उप समिति ने विषयों पर चर्चा की और निर्णय लिये । उसके ऊपर एडवाइजरी कमेटियां थी । इस प्रकार 14-15 एडवाईजरी कमेटियां थी । हर कमेटी का अध्यक्ष कोई न कोई कांग्रेसी था, या तो सरदार पटेल या नेहरू । उप-समिति के निर्णयों पर अंतिम मुहर लगाने का अधिकार एडवाईजरी कमेटियों के पास था । वहीं अंतिम निर्णय संविधान सभा के खूले सदन में रखा जाता । उस पर चर्चा होने के बाद प्रारूप समिति का काम था, उसको डिफेंड करना और यह कार्य बाबा साहब ने खराब स्वास्थ्य होने के बावजूद भी अच्छी प्रकार से किया । उन्होनें एक अच्छी भाषा में उसको संविधान में लिखा । बाबा साहब ने इतना ही काम किया था जिसके लिए उन्होनें कहा था कि मुझे एक हेट के रूप में प्रयोग किया गया है तथा इन्होनें-मुझे इस्तेमाल किया-कहकर ऐलान किया । यदि बाबा साहब ही संविधान लिखते तो संविधान सभा का क्या काम था ? ये जानने की जरूरत है । इससे भी ज्यादा हमें ये देखना होगा कि इस संविधान ने किया क्या है ? संविधान का 3/4 यानि तीन चौथाई भाग भारत-सरकार कानून 1935 से लिया गया है । दूसरे देशों के संविधानों में जो कुछ भी अच्छा था, वो लिया गया है । ऐसे भारत का संविधान बना है । उसमें कुछ भी नया नहीं है । जो कुछ औपनिवेसिक शासन का सार था, वही संविधान में लाया गया है । औपनिवेशिक राज्य तो यहां शोषण करने के लिए बना था । यह नया संविधान भी नये दौर में वैसा ही शोषण करने का हथियार बनने वाला था । बाबा साहब संविधान सभा में सिर्फ एक ही मकसद से गए थे कि उनको दलितों के हितों का संरक्षण करना है । उनका खुद का कथन है, मैं नहीं बोल रहा हूं । उनको एक ही फिक्र पड़ी थी कि जो कुछ मैनें जिंदगी में कमाया है, उसको ये लोग कहीं नष्ट ना कर दे । उनका इतना ही सरोकार था। बाकि चीजों से उनको ज्यादा वास्ता नहीं था । आजादी के बाद के भारत का जो शासकीय ढांचा है, वह औपनिवेसिक काल  का ही है । वही आईपीएस, वही आएएएस, वही सब कुछ, कोई पद नहीं बदले, वही आईपीसी है, जो आईपीसी एक सामान्य नागरिक से राफ्रता रखता है, वही का वही है । वही काले कानून है । वही देशद्रोह की धाराऐं हैं । इस प्रकार के सभी प्रावधान भारत के संविधान में हुबहू रख लिये गये है । हम उसको सिर आंखों पर उठाते हैं ।
मैनें जिक्र किया था कि जाति के साथ-साथ धर्म को भी उन्होनें मरने नहीं देना था । आज जिस संकट की मैंने बात की थी, वह भी इसके ही कारण है । यदि मैं कहता हूं कि यह देश एक धर्म-निरपेक्ष देश नहीं है । बहुत से लोगों को आर्श्चय हो सकता है । धर्म-निरपेक्ष नाम का शब्द संविधान में है ही नहीं । उस पर जो उप-समिति बनी थी, उसने यह निर्णय लिया था कि भारत को एक धर्म-निरपेक्ष देश होना चाहिए । उसके ऊपर की एडवाईजरी कमेटी का अध्यक्ष नेहरू था । नेहरू ने उनको फटकार लगाई थी । यह कि जो लोग धर्म- निरपेक्षता की बात करते हैं, उनको मालूम नही हैं कि धर्म-निपरेक्षता का क्या अर्थ होता है । केंब्रिज से पढ़े हुए नेहरू की अंग्रेजी अच्छी थी और वह अच्छी तरह जानता था कि धर्म-निपेक्षता का अर्थ क्या होता है । तुम धर्म को अपने घर तक रखो, उसको बाजार में मत लाओ, राजनीति में मत लाओ । धर्म-निरपेक्षता का विपरित अर्थ है That was a fire-wall between the Religion and Politics. धर्म-निरपेक्षता का यही अर्थ है जिसकी वजह से उस समय इसको नकारा गया था । इसलिए ये धर्म-निरपेक्षता नाम का शब्द संविधान में कहीं नहीं है । आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी ने यह शब्द संविधान की प्रस्तावना में घुसाया था । प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती है । वैसे देखा जाए तो प्रस्तावना का हर एक शब्द- कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी, गणतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश है, एक बड़ा चुटकला है । भारत के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 58-4 प्रतिशत दौलत है, फिर भी यह एक स्वतंत्र देश है और इस पर किसी को आपति नहीं है । यह कहकर कि धर्म के अंदर सुधार लाना है । इसलिए धार्मिक मामलों में भी राज्य हस्तक्षेप करेगा । इन सत्तर वर्षों के दौरान कौन-सा सुधार लाया गया है ? इन सत्तर सालों केवल एक सुधार कार्य रिकॉर्ड पर है । जब 1987 में राजस्थान में रूपकंवर नाम की लड़की को उसके पति की चिता पर जलाया गया, तब एक सति-विरोधी कानून इन लोगों ने पास किया था। सुधार के नाम पर सिर्फ एक यही कानून इन सत्तर सालों के रिकॉर्ड पर है । और तो कुछ नहीं किया बाकि सब कुछ राजनीति ही की । इसी राजनीति का नतीजा है कि ये लोग, जिनके लिए भारत में कोई जगह नहीं होती, वही आज एक फासीवादी संकट बनकर खड़े हैं । इस तरह से हम देख सकते हैं कि ये सब नीतियां यहां पर कैसे विकसित हुई हैं ?
मैंने ये कहा है कि दलितों पर अत्याचारों का यह नया दौर 60 के दशक में विशेष रूप से, 1968 में शुरू हुआ था । तब बहुत से बदलाव आए थे । मैनें यहां पर  विशेष रूप से हरित क्रांति की बात की थी । इन नीतियों की बदोलत निचले स्तरों पर इन वर्गों को शक्तिशाली बनाया गया । इस वर्ग ने शुरू-शुरू में कांग्रेस पार्टी का समर्थन किया, उसके एजेंट के रूप में काम करता रहा । उनके अंदर महत्चाकाक्षाऐं पनपने लगी । राजनीति में जिसकी अभिव्यक्ति क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टियों के रूप में हुई । उन्होनें नयी क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टियां बनाई । कांग्रेस पार्टी सबको संभाल कर नहीं रख पायी । चुनावी प्रतिस्पृधा बढ़ गई । पहले वोट बैंक का इतना महत्व नहीं था क्योंकि सारी ही जनता कांग्रेस के साथ थी । दलित और पिछड़ी जातियां परंपरागत रूप से ही कांग्रेस के साथ थी । प्रतियोगिता बढ़ने से वोट-बैंक का महत्व बढ़ गया । वोट-बैंक का महत्व बढ़ते-बढ़ते बाबा साहब का महत्व बढ़ गया । 1956 में बाबा साहब का देहांत हुआ । बाबा साहब के नाम पर कोई सड़क, कोई बूत, कोई कोच 1965 तक इस देश में नहीं था । मैं ये सारी बातें दलितों की आंखें खोलने के लिए बोल रहा हूं । मेरे ससुर उनके बेटे थे, जिसको मऊ से बॉम्बे तक पद यात्र करनी पड़ी थी, लोगों से पाई-पाई सहयोग इक्ट्ठा करके चैत्य भूमि पर एक स्मारक बनवाया गया । यह छोटा सा भवन 1965 में बना, जिसको आज कोई एक व्यक्ति खुद के पैसे से भी बनवा सकता है । वहां पर लोग भावना के नाम पर आते थे । उसके बाद स्मारक बनने लगे, जब वोट-बैंक का महत्व बढ़ा और वोट-बैंक की राजनीति गहरी होने लगी ।
Neo-Liberalism  या नव-उदारवाद का दौर, सभी जानते है कि ये एक प्रकार की सरकारी नीतियां थी । क्या है ये नव-उदारवाद ? सभी दलित बुद्धिजीवियों व विद्वान ने इसका समर्थन किया था । उनका कहना था कि यह तो बहुत अच्छी नीतियां हैं । जो ज्यादा बड़े विद्वान थे, उन्होंने तो अम्बेडकर को ही इस तरह पेश किया कि वह भी एक नव-उदारवादी व्यक्ति था । ''Ambedkar was a Monetarist Economist'' Some fellow, who is now in  Rajya Sabha, that fellow had said in Maharashtra.  उसने पेश किया कि बाबा साहब अगर जिंदा होते तो वे भी भूमंडलीकरण का बहुत समर्थन करते । उनके अनुसार बाबा साहब खुद एक Monetarist  Economist थे । Monetarist  Economist मतलब जहां ये नव-उदारवादी अर्थ-शास्त्र या Monetarist  Economics  बना है, उस विचार से जुड़े अर्थ शास्त्रियों को Monitristic Economist कहते हैं । भूमंडलीकरण की नीतियों के मामले में बड़े-बड़े दलित चिंतक या तो चुप रहे या उन्होंने इनका समर्थन किया । हम सिर्फ अकेले थे, जो 1990 से ही भूमंडलीकरण के विरोध में लिख रहे थे । जब तक मैं इस देश में आया भी नहीं था, तब से लिख रहा कि भूमंडलीकरण दलितों व देश के सभी निम्न तबकों के िवरोध में है तथा एक बड़ी आपतिजनक बात है । किस तरह ? उसके लिए एक अनुभव आधारित उदाहरण भी है । जातिय अत्याचार के आंकडे़ हेरान करने वाले हैं । अत्याचार कब होते हैं ? यह जातिवाद का प्रतिबिम्बन है । इन अत्याचारों के आंकड़े पुलिस इक्ट्ठा करती  है । राज्यों की पुलिस से एनसीआरबी को जाते हैं तथा यह संस्था दिल्ली में इनका सार संकलन करके रिर्पोट तैयार करती है । ऐसा कहा जाता है कि अत्याचारों के जितने मामले पुलिस के पास दर्ज किए जाते, असल में उससे दस गुणा ज्यादा अत्याचार होते हैं । जो रिर्पोट ही नहीं किए जाते । अगर इन आंकड़ो को ही सही मान कर चलें तो ये आंकड़े भी हमें बता सकते हैं कि नव-उदारवाद के युग में , 1991 से आज तक, दलितों पर अत्याचारों में कितनी बढोतरी दर्ज की गई है । दूसरी बात ये है कि ये, जो नव-उदारवाद का दौर है, वास्तव मे यह एक Social Chauvinist विचारधारा है कि खूली प्रतियागिता और खूले बाजार में जिसके पास भी ताकत है, वह स्पृधा में जितेगा और उसकी जीत जायज है । यह सामाजिक न्याय की अवधारणा को नकारता है । पहले-पहल आप आईएमएफ और विश्व बैंक आदि के साहित्य को देखेंगे, उसमें ये सारी बातें खुलकर कही जाती थी, बाद में उन्होंने यह महसूस किया कि ये बातें इस प्रकार खूलकर नहीं कह सकते हैं । आजकल इन सब को पैच-अप करके सामाजिक न्याय की बातें भी उसमें सहयोजित कर ली गई है । कारपॉरेट-सोशल रिस्पोंसिबिलिटी का नयासिद्धांत भी ले आए हैं । इसमें हमें यह देखने को मिलेगा कि नव-उदारवाद के युग में दूनियां में कहीं भी, भारत कोई अकेला देश नहीं है, मूल-तत्ववादी ताकतों को प्रोत्साहन मिला है । नव-उदारवाद की छाया में ये ताकतें पनपी हैं । भारत में भाजपा के उभार को यदि नव-उदारवाद के संदर्भ में देखते हैं तो पता चलेगा कि 90 के दशक से इसका लगातार उभार होता गया है । ये आज हमारे सामने संकट बनकर खड़े हैं ।
आज के दौर में दलितों की क्या हालत है । दलितों की हालत का जायजा इसलिए लेना होगा क्योंकि जाति व्यवस्था का सबसे ज्यादा दलित ही शिकार बनते हैं । जैसा कि मैंने कहा यदि जाति-प्रथा का उन्मूलन करना है तो यह केवल दलितों की जिम्मेदारी नहीं है । यहां पर जो भी प्रगतिशील लोग हैं और जो ये समझते हैं कि इस देश की गंदगी का समाप्त करने के लिए क्रांति की जरूरत हैं, यह उन सबका कार्यभार है । ये सब कौन हैं ? ये सब हैं, दलितों के अलावा, यहां का लेफ्रट । लेफ्रट की चर्चा संक्षिप्त में नहीं हो सकती है क्योंकि बाबा साहब के जमाने से भारत का लेफ्रट जाति के सवाल को बाह्य ढांचे का सवाल कह कर नजरअंदाज करता रहा है । बॉम्बे के कम्यूनिस्ट अम्बेडकर का मजाक उड़ाते रहे कि इस बाह्य ढांचागत सवाल पर संघर्ष का निर्माण कैसे किया जा सकता है ? ये फालतू लड़ाई है । वे अंबेडकर पर हंसते रहे और इस प्रकार लेफ्रट व बाबा साहब के बीच दूरी बढ़ती गई । दलित आज वामपंथ के साथ नहीं हैं तो यह केवल बाबा साहब के ही कारण है । क्योंकि दलितों में जो वेस्टिड इंटरेस्ट है वे बाबा साहब को इसी तरह पेश करते रहे कि बाबा साहब मॉर्क्सवाद विरोधी थे । यदि कोई आज भी दलित तबकों में वर्ग आदि की बात करता है तो उनको इसमें वामपंथ की गंध आने लगती है । वे ऐसी बात करने वालों को -हमारा नहीं हैं-बोलकर दूर फेंकते हैं । वे ये नहीं जानते कि बाब साहब की खुद की लड़ाई एक वर्ग की लड़ाई थी । बाबा साहब ने अपने पहले निबंध में जाति को एक वर्ग के रूप में ही परिभाषित किया था । कोलंबिया में एक छात्र के रूप में बाबा साहब ने यह निबंध लिखा था । इसमें कहा था कि जाति कुछ नहीं, Enclosed क्लास है । अगर बाबा साहब मॉर्क्सवाद विरोधी होते तो वे अपना अतिंम भाषण-बुद्ध और कार्ल मॉर्क्स-पर ना देते । मॉर्क्स से ऐसे तुलना करने की उनको क्या जरूरत थी ? उन्होंने कहा कि बुद्ध और मॉर्क्स का अंतिम ध्येय एक ही है, सिर्फ मार्ग अलग-अलग है । उन्होंने कहा कि मॉर्क्स हिंसा और तानाशाही में विश्वास रखता है परन्तु बुद्ध ऐसा नही करता । इसलिए बुद्धवाद, मार्क्सवाद से बेहतर है । मॉर्क्सवाद पर बाबा साहब की ये समझ सही थी या गलत ये दूसरी बात है । लेकिन बाबा के अंदर मॉर्क्सवाद के प्रति आकृषण था, इसमें कतई शक नहीं है । मैंने यहां शुरूआत की बात की और अंतिम क्षणों की बात की लेकिन बीच में भी काफि सारी बातें हैं । 1953 में जब बाबा साहब नेहरू के केबिनेट से त्याग-पत्र देकर बाहर आ गए, वास्तव में तब से उन्होंने एक रीमॉर्सफुल जीवन गुजारा । वे पिछे मुड़कर देखते रहे कि मैंने जो कुछ किया, उसका क्या हुआ ? उन्होंने दादा साहब गायकवाड़ को एक पत्र लिखा जो मराठी में है । उन्होंने खिला- I do not think that my methods had worked मुझे यह नहीं लगता है कि मेरे तरिकों ने असल में काम किया है । यदि मेरी जनता को तुरन्त राहत चाहिए तो वे कम्युनिस्ट बन जांए । उन्होंने दादा साहब गायकवाड़ को दो वाक्यों का एक पत्र लिखा था । जो लोग उनको मिले वो बताते हैं कि वे अपने बुढापे में फूट-फूट कर रोते थे । एक बार एससीएफ के लोग उनसे, औरंगाबाद से दिल्ली मिलने आए थे, उनमें बीएस वाघमारे नामक दलित नेता थे, जब उनको मिलने के लिए बुलाया गया तो उन्हें यह देखकर बड़ा आर्श्चय हुआ कि बाबा साहब रो रहे थे । उनको बड़ा दुख हुआ । फिर अम्बेडकर ने खुद को संभालते हुए कहा कि उन्होंने जो कुछ भी किया है, वह सिर्फ मुट्ठी भर शहरी दलितों के हिताें के लिए हुआ है, मेरे दलित भाई जो गांवों में रहते हैं, उनके लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाया । बाबा साहब ने इन लोंगों से पूछा कि क्या आप लोग जमीन के सवाल पर कुछ कर सकते हैं ? ये बीएस वाघमारे औरंगाबाद वापस गया और उसने दो तीन महिने के अंदर गायकवाड़ की मदद लेकर एक भूमि-सत्याग्रह खड़ा किया । दलितों के इतिहास में जमीन की मांग के लिए यह सत्याग्रह 1953 में हुआ था । इस सत्याग्रह में एक ही दिन में 1700 लोग जेल में गए थे । इसकी पुर्नावृति दादा साहब गायकवाड़ ने रिपब्लिकन पार्टी का गठन करने के बाद बड़े पैमाने पर 1959 में की । अंतिम सत्याग्रह 1964 और 1965 में हुआ। तब से दलित नेताओं के सहयोजन की नीति की शुरूआत हुई । यह स्वतंत्र दलित राजनीति को ध्वंस करने की शुरूआत थी ।
 हमारी युवावस्था में हम लिखते थे-चुनाव का बहिष्कार करो, ये सब धौका है । कल तक हम चुनाव की बात नहीं करते थे । लेकिन सोचने का वक्त आ गया है कि इसी चुनाव के तहत मात्र 31 प्रतिशत लोगों का वोट हासिल करने वाला मोदी 120 करोड़ जनता की बात करता है । यह चुनाव-प्रणाली शासक-वर्गों के शासन को स्थायीत्व की गारंटी प्रदान करती है । इसका विकल्प है-आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली । इस चुनाव-प्रणाली को हम अपनी जरूरत के अनुसार ढाल सकते हैं । लेकिन वर्तमान चुनाव-प्रणाली में ऐसी बात नहीं है । वह पश्चिमी मॉडल हमने अपनाया था, लेकिन हमें जरूरत नहीं थी कि हम भी उसे ही अपनाए ।
जाति प्रथा से कैसे लड़ा जा सकता है ? ये कहना बड़ी आसान बात है कि दलित और लेफ्रट एक वर्ग के रूप में एक हो जाए । इसकी जरूरत भी है क्योंकि आज की जाति पहले वाली जाति नहीं रह गई है । जाति में वर्गों का निर्माण हो गया है । जाति प्रमाण-पत्र के आधार पर कोई क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा करना असंभव है । यह एक अतिरिक्त किस्म की समस्या सामने आ चुकी है । इसमें कोई दो राय नहीं है कि जब सभी शोषित लोग एक वर्ग के आधार पर साथ आए तो यह जरूर किया जा सकता है । जब हम जाति के उन्मूलन की बात करते हैं तो वह क्रांति के साथ ही जुड़ी हुई है । क्रांति के बिना यहां से जातियां जाएगी नहीं और बिना जाति व्यवस्था को समाप्त किए यहां क्रांति आएगी नहीं । इस तरह का समीकरण बनेगा । ये बात rhetorically बोल तो सकते हैं लेकिन इसको करेंगे किस तरह ? क्योंकि इस देश में लेफ्रट, लेफ्रट नहीं है । जो भी आशादायी लेफ्रट था, आज उसकी भी हालत खस्ता है । दलितों के अंदर भी बहुत सारा  विखंडन है । बिना किसी नुकसान के यदि इन मांगों पर जनता को जागृत करें । ये बहुत innocuous मांग है । इस पर लोगों का एक साथ आना संभव है । यह कि  हमारे देश की मौजूदा चुनाव-प्रणाली को बदलने की जरूरत है और Propoational Representation System लाने की जरूरत है । इससे शासक-वर्ग भी चौकन्ना नहीं होंगे । शासक-वर्ग चौकन्ना हो जाते है तो वे सेना व पुलिस का इस्तेमाल करके आंदोलन को कुचल देते हैं । एक रणनीति के रूप में ऐसी innocuous मांग लेकर संघर्ष खड़ा करें कि हमें यहां पर Propoational Representation System लाना है । इस पर काफि चर्चा भी होती है और इसकी संभावना भी है कि लोग मान लेंगे ।  Propoational Representation System में छोटी छोटी जातिया के अपने आप को प्रतिनिधित्व के लिए रेगूलेट करके आने की संभावना बढ़ जाती है । वे अपने हितों के लिए इस तरह से एकजूट हो जाए तो माहौल बन सकता है । उसके बाद में, कुछ कालांतर के बाद हम यह चेतना भी जनता में जगा सकते हैं कि आज तक जो दलित आंदोलन में हुआ है, वह सफल नहीं हुआ है । बाबा साहब ने अपने जीवनकाल  में ही अनुभव किया कि उन्होंने जिस तरह की भी लड़ाईयां लड़ी, वह असफल रही हैं । राजनीतिक प्रतिनिनित्व की लड़ाई उनकी मुख्य लड़ाई थी । वे शुरू में पूना पेक्ट से खुश थे लेकिन बाद में निराश हो गए । क्योंकि वे खुद ही अपना चुनाव नहीं लड़ सके । क्योंकि दलितों के लिए जो तथाकथित आरक्षित सीट है, वह वास्तव बहुमत पर ही निर्भर करती है । जो पार्टी उनको खड़ा करती है, वह उसका गुलाम होता है । बाबा साहब ने खुद ये महसूस किया है । जब संविधान में यह बात आयी थी, तब बाबा साहब चुप रहे थे क्योंकि उन से ज्यादा दूसरे लोग बोल रहे थे कि ये तो होना है । बाबा साहब ने बस इतना ही कहा कि दस वर्षों बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए । उनको यह राजनीतिक आरक्षण नहीं चाहिए था । जैसाकि कांसी राम ने आगे चलकर कहा कि ये दलितों के अंदर से चमचे बनाने की मशीन है । इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा विचारधारात्मक रूप से ही दलितों की दुश्मन है । लेकिन आज आरक्षित सीटों से चुन कर आने वाले ज्यादातर सांसद भाजपा के पास हैं और राज्यों में भी आरक्षित सीटों से चुनकर आए ज्यादातर एमएलए इसी पार्टी के पास हैं। हमें अपने दिमाग की गंदगी को साफ करना होगा और स्पष्टता के साथ देखना होगा कि हमें किस तरह आज तक उल्लू बनाया गया है । ऊना जैसे बहुत सारे संघर्ष देश भर में फैलाने होंगे । इससे लोगों में जागृति आएगी । एक वर्ग-चेतना लोगों में जागेगी । उससे हम शायद यह लड़ाई जीत पाएंगे । आखिर में एक बार फिर मैं दोहराऊंगा कि इस देश से जब तब जाति-प्रथा का उन्मूलन नहीं होता, तब तक क्रांति असंभव है और जब तक इस देश में क्रांति नहीं होती, तब तक जाति का उन्मूलन असंभव है ।
                                जाति, बाकि सबसे भिन्न, वह श्रेणी है जो केवल विभाजित करना जानती है । बाबा साहब ने दलितों को इक्ट्ठा करने की कोशिश की । वे सारे अछूत थे । वह एक किस्म का वर्ग था । अगर वह जाति की लड़ाई लड़ने वाले होते तो केवल महार जाति का झंडा उठाये रहते । उन्होंने ऐसा नहीं किया । अब यह कोई नहीं समझता तो क्या करें ? आप जानते होगें कि दलितों के अंदर से सब-कटैगरी की मांग आती रहती है । सब-कटैगरी की मांग पर 1995 में माला-मादिगा का विवाद पैदा हुआ था । हमारी सारी राजनीति आरक्षण के सवाल के इर्द-गिर्द चलती रहती है । यह कहा गया कि माला जाति ने सारा आरक्षण हड़प लिया है, मादिगा को कुछ नहीं मिला है । ये बात उस जाति के गरीब लोगों को अपील करती है ।
नव-उदारवाद की नीतियों ने दूसरी जातियों को भी संकट में धकेल दिया है । कृषि में संकट है । सब जगह संकट है । उनको क्या दिखता है कि इन्हीं लोगों की वजह से हम संकट में हैं । देहातों में क्या होता है ? उच्च जाति के गरीब लोगों को यह लगता है कि उनकी इस हालत के जिम्मेदार दलित हैं । राज्य इनको सहायता प्रदान करता है । क्योंकि दलितों के इक्का-दुक्का घर होते हैं, ऊपरी तौर पर यह दिखने में आ जाता है कि कोई लड़का पढ़ा-लिखा है या बड़ी नौकरी पर लग गया है या शहर में जा रहा है आदि । एकदम दर्शनीय हो जाता है । लोगों को जलन होती है । वे बोलते हैं कि हमारी दयनीय दशा के लिए ये जिम्मेदार हैं । जब कोई नौबत आती है या कोई अनहोनी होनी होती है तो इनको आसानी से उकसाया जा सकता है । उकसाने वाला कोई और होता है । ब्राह्मण नहीं बल्कि कोई और होता है । अमीर आदमी उकसाता है । उकसने वाले लोग दूसरे होते हैं । भोले-भाले लोगों के मन में द्वेष की भावना पैदा की जाती है । मैने खैरलांजी की घटना पर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें दलितों पर हो रहे अत्याचारों का जायजा और पूरे ही दलित सवाल का जायजा प्रस्तुत किया गया है । इसमें विस्तार से समीक्षा की गयी है कि ये घटनाऐं कैसे होती हैं या इनके पिछे कौन-सी ताकतें काम करती है या जैसा कि बाबा साहब ने कहा था कि दलितों में जो लोग ऊपर आऐंगे और वे दलितों के हितों का संरक्षण करेंगे- कैसे यह गलत साबित हुआ है । इस पुस्तक में मैंने यह भी विस्तार से बताया है कि ऐसा आगे भी नहीं हो सकता है । जो लोग आरक्षण को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं, उनके बारे में यहां एक बात बोलना मैं भूल गया था । लोगों को जल्दी सी समझ नहीं आता है कि ये क्या बात बोल रहा है । अगर आरक्षण चला गया तो दलितों के लिए बचेगा क्या ? देखिए । जब तक सारे लोगों को कुछ मौलिक-तत्व ना दिए जाएं, तब तक आरक्षण की बात फालतू है । वे मौलिक-तत्व कौन से हो सकते हैं ? आदमी का शरीर है, इसको जिंदा रखना है । इसके लिए आरोग्य सुविधा की जरूरत है । आदमी का एक दिमाग है, वह एक जानवर नहीं है, उसके संवर्धन के लिए शिक्षा । सबको एक समान श्क्षिा, आप बोलेंगे कि हां शिक्षण तो है । देहातों में जाकर देखिये । वहां अध्यापक नहीं है, ब्लैकबोर्ड भी नहीं है, कुछ भी नहीं है । स्कूल जरूर है । वहां पर मिड-डे मील मिलता है । उसका बजट पास होता है । लेकिन शिक्षण बिल्कूल भी नहीं है । ऐसे माहौल में एक बच्चा कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है ? आज सारा का सारा ग्रामीण भारत गुणवत्ता परक शिक्षा से पूर्ण रूप से कटा हुआ है । ऊपरी तौर  से, यहां पर अंग्रेजी माध्यम वाली पाठशालाएं आ गयी है । शिक्षा की दूकान खूल गई है ।
 एक वाक्य में कहा जाए तो इस देश में जो मल्टी-लेयर्ड शिक्षा व्यवस्था लागू की गयी है, इस तरह का सिस्टम किसी भी देश में नहीं है । यह सारी विषमता की जड़ है । आपका लड़का अगर वहां तक पहुंच ही नही पाता है, तो उसको जितना मर्जी आरक्षण दे दो । मैं आईआईटी में प्रोफेसर था । साढ़े पांच साल तक मनेजमैंट स्कूल में पढ़ाता था । आरक्षण के बावजूद मुझे वहां केवल दो दलित लड़के मिले । दो मतलब, एक वर्ष के लिए एक लड़का था और दूसरे वर्ष के लिए एक लड़का और एक लड़की थी । हम उसको सेलीब्रेट कर रहे थे कि कोई तो मिला । ये क्या है ? इसका दलितों में जिक्र करें तो बोलेंगे कि ऊपर बैठे हुए लोगों में जातिवादी पूर्वाग्रह होते हैं, इसलिए वे हमारे लड़को को नहीं लेते । आईआईटी में क्या होता है ? एक केट का पेपर होता है । मान लो अगर 98 प्रतिशत जनरल के लिए कटऑफ है कि 98 के नीचे हम कन्सीडर ही नहीं करते । उसके नीचे दो तिहाई पर दलितों का कटऑफ है । उतने अंक यदि केट के पेपर में मिलते हैं तो उसको कन्सीडर किया जाता है । उसी में नहीं आते हैं लड़के । किसी ने इस पर विचार ही नहीं किया कि आईआईटी या आईआईएम में दलित लड़के किस तरह जाएगें कैसे ये सीटें भरेंगी । पिछले बीस वर्षों से आईआईटी की सीटें भरती ही नहीं हैं । क्यों नहीं भरती ? क्योंकि यह आरक्षण-व्यवस्था एक बार जिसको फायदा देती है, उसी को फायदा देती रहती है । एक छोटा-सा पिरामिड बना देता है । ये ऊपर उठने वाले लोग इतने कम हैं । वे इतने सारे बच्चे चतवकनबम नहीं कर पाते कि वे आईआईटी की सीटें भर दें ।  सिर्फ यही बच्चे आईआईटी के सपने देख सकते हैं बाकि के बच्चे तो जैसे बच्चे ही नहीं हैं । कोचिंग कक्षांए हैं, शिक्षा का स्तर है और बहुत कुछ तामझाम है, ये सब कुछ होने के बाद आईआईटी होता है । लोगों के लिए आरक्षण एक भूलभूलैया बना दिया है कि चलो इसके पिछे भागते रहो । ये सारी बातें हमें गौर से सोचने की जरूरत है ।
जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया, उसको बहुत चालाकी से पिछड़ेपन से जोड़ा गया । आरक्षण और पिछड़ेपन का कोई सम्बन्ध नहीं है । औपनिवेसिक काल में जो आरक्षण दिया गया था, उसको सहज भाव से स्वीकार भी किया गया । किसी ने इसका विरोध नहीं किया ।  क्योंकि जो दलित या अछूत थे, वो बेचारे इतने बेचारे थे और लोगों को लगा कि ये ठीक है । आखिर उनके Proportion  का ही तो हिस्सा दे रहे हैं तो  इसमें क्या बूरा है ? दलित कितना भी काबिल हो, ये समाज-व्यवस्था उसको उसका हिस्सा नहीं देगी, ये तय था । उस समाज पर ये दबाव बनाने के लिए कि उसको उसका हिस्सा मिलना चाहिए, यह आरक्षण का अर्थ था । लेकिन संविधान में चालबाजियां करके पिछड़ापन लाया गया । यह भी कहा गया कि यदि कोई और भी पिछड़ापन है तो उसको भी ढुंढेगें । सब कुछ जातिमय करने की योजना थी । मैं यह कह सकता हूं कि भारत का समाज आज जितना जातिवादी है, उतना कभी नही रहा । जो कुछ था, लोग उसको मानते थे । लेकिन आज जैसी जातिवादी भावना नहीं थी । वह अमूर्त थी । आज जातिवाद की भावना एक मूर्त रूप में हमें सताती है ।
आरक्षण व्यवस्था कैसे होनी चाहिए ? आरक्षण की अवधारणा को ना तो औपनिवेशिक काल में ठीक परिभाषित किया गया और ना ही संविधान में भी इसको ढंग से लिखा गया । आरक्षण व्यवस्था जैसाकि मैनें कहा कि एक अपवाद स्वरूप व्यवस्था है । उसके समाप्त होने की बात उसी के अंदर निहित होनी चाहिए । आज ऐसा है कि उसका कोई अंत नही है, अंतहीन है । कैसे होना चाहिए था ? आरक्षण किस लिए दिया गया ? यह कि दलित बेचारे है, वे निबर्ल है, दलितों में अनुवांसिक दोष है-क्या आरक्षण इसलिए दिया गया था ? नहीं । इस समाज में अपंगता है । इस समाज में रोग है । अगर होता हो तो इस समाज में वह अनुवांसिक दोष है । ये समाज जब तक अपने आप को दुरूस्त नहीं करेगा, तब तक आरक्षण चलेगा । खुद खत्म हो जाने का प्रावधान अगर उसमें शामिल हो जाता तो यह अपने आप समाप्त हो जाता । उन्होनें यह नहीं किया । किसी ने इसको परिभाषित करने की कोशिश नही की । ऐसा अगर करते तो व्यापक समाज के अंदर एक आत्म ग्लानि की भावना आती । एक अपराधबौद्ध होता कि नहीं ये ठीक नहीं है । ये समाज का दोष है । इसका निवारण हो जाए तो तभी ये बंद हो जाएगा । दलितों में भी एक हीन-भावना आती है । जब टीचर छोटे बच्चों की क्लास में कहता है कि एससी-एसटी के लड़के खड़े हो जाओ । जब आप ऐसा बोलते हैं तो पांच छह वर्ष की उम्र में ही उसका सारा का सारा व्यक्तित्व ध्वंस कर डालते हैं । वह तभी समझ जाता है कि यह आरक्षण की कीमत है । दलितों ने यह समझ लिया है कि आरक्षण में ही उनका लाभ है । कभी यह नहीं सोचा कि कोई भी चीज बिना कीमत चुकाये नहीं मिलती है । कौन-सी कीमत दी आपने ? बहुत ज्यादा कीमत दी है । वह बच्चा कभी ऊपर नहीं आता है । यह कीमत दी है, आपने । वह बच्चा आरक्षण के दम पर सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती तो हो जाता है । वहां वह देखता है कि उसके साथ वाले लोग लगातार ऊपर जा रहे हैं लेकिन वह वहीं का वहीं है । दो-तीन प्रोबेशन के बाद उसका सारा व्यक्तित्व मिट जाता है और वह एक डेड-वुड के समान बच जाता है । यह कीमत दी है आपने । ऐसी कितनी जिंदगियां है, जो बर्बाद की गई है । ऊपरी रूप से देखने में लगता है कि ओह यह तो बड़ा अवसर मिल गया है ।  दलित भी सिस्टम की लाईन पर चलने लगते हैं । जब आप सिस्टम की लाईन पर चलने लगते हैं तो सिस्टम उसको और बढावा देने लगता है । इसी तरह यह सारा गतिक्रम चलता रहता है । यह सिविशियस साईकिल कैसे तोड़ा जाए ? मैनें थोड़ा सा तो जिक्र किया है । इस तरह देख सकते हैं । कई साल पहले मैनें कहा था कि जिस दिन दलित छत पर खड़े होकर कहेंगें कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, वह भारतीय क्रांति की शुरूआत होगी । आपके चाहने से भी आरक्षण को खत्म नहीं किया जाएगा । आरक्षण का फायदा उनके लिए है , दलितों के लिए नहीं । अगर दलितों में जागृति आ जाए और वे यह कहें कि हमें आरक्षण नहीं चाहिए, इससे हमें नुकशान हो रहा है तो भी शासक-वर्ग इसको समाप्त नहीं करेगें । वे आरक्षण को जिंदा रखेंगें । जैसे काश्मीर का मुद्दा उनको जिंदा रखना है । इसी प्रकार से आरक्षण को भी समाप्त नहीं होने दिया जाएगा । As a matter of fact, impirically आप देख सकते हैं कि नव-उदारवाद के बाद सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा, जहां कि आरक्षण लागू होता है, लगातार संकुचित होता गया है । 1997 में सार्वजनिक क्षेत्र में 197-82 लाख नौकरियां  थी जो 2007 में घटकर 180-02 लाख रह गयी है । इसका मतलब  है कि नेट टर्म में आरक्षण कभी का समाप्त हो चुका है । अभी किसी विभाग की तरफ नजर दृष्टि करेंगें और बोलेंगे कि 15 प्रतिशत पद अनुसूचित जाति के लिए रखा है या किसी विभाग के आंकड़े दिखाकर कहेंगे कि इतने पद भरे नहीं गए हैं या किसी विश्वविद्यालय में जाकर कहेंगे कि यहां अध्यापकों के इतने पद खाली है, ऐसी बातें हो सकती हैं लेकिन As a matter of fact, एक बृहद दृष्टिकोण से पूरा देखेंगे तो ये बातें सामने आएगीं । 

बाबा साहब के हवाले से ही मैनें कहा है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है । बाबा साहब अम्बेडकर ने 1956 के अपने आगरा के भाषण में सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि पढ़े लिखे लोगों ने मुझे धौका दिया है । बाबा साहब ने सारी जिम्मेदारी पढ़े-लिखे लोगों पर डाली थी । एक ही शब्द में उन्होंने साफ कर दिया है ।