बुधवार, 3 अगस्त 2016

मौजूदा कृषि संकट और स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशें - राजेश कापड़ो



किसान संगठन स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशें  लागू करवाने के लिए समय समय पर आवाज उठाते रहते हैं । भारतीय किसान युनियन जैसे धनी एवं सामंती तत्वों के प्रभाव वाले संगठन भी स्वामिनाथन की सिफारिशे लागू करने की बात करे तो कोई सहज ही अंदाजा लगा सकता है कि इन्होने आयोग की रिर्पोट को पढा तक नहीं है । क्योंकि इस आयोग ने जो समाधान पेश  किए हैं, किसान युनियन वैसे उपायों के कभी पक्ष में नहीं रही । वामपंथी पार्टियां व इनसे संबद्ध जनसंगठन भी -स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशे लागू करो - का नारा लगा रहे हैं । उपरोक्त दोनों ही किस्म के पक्ष स्वामिनाथन आयोग के कुछ ही पहलूओं को उठा रहे हैं । मुख्य रूप से इनकी मांग यह होती है कि कृषि  उत्पादों की कीमतें स्वामिनाथन की सिफारिशों  के अनुसार तय की जांए । ऐसा कहने से भी ज्यादा दिक्कत नहीं । लेकिन इनकी मांग यह होती है कि फसलों की कीमतें बढाओ । जिस पर कुछ अन्य संगठन ,जो मजदूर हितों की रक्षा का हवाला देते है, किसान संगठनों की उपरोक्त मांग को खारिज कर देते हैं । इनका कहना है कि  कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि मजदूर विरोधी कदम होगा जिसका कभी समर्थन नहीं किया जा सकता । ऐसा करके ये बिना पढे ही स्वामिनाथन आयोग की रिर्पोट को भी रद्द कर देते हैं । यहां किसान आयोग की  रिर्पोट पर एक सरसरी नजर डालने का प्रयास किया गया है ताकि यह समझा जा सके कि इसमें भारत की किसानी को दरपेश  मौजूदा कृषि  संकट का क्या समाधान प्रस्तावित किया है ? या इसमें क्या खामियां हैं । इस रिर्पोट का किस सीमा तक समर्थन किया जा सकता है या नहीं ?
डा0 एम एस स्वामिनाथन की अध्यक्षता में  राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 18 नवम्बर 2004 को किया गया । उस समय देष में यूपीए गठबंधन की सरकार सत्ता में नई नई आई थी । आयोग ने अपनी चार रिर्पोटें क्रमशः  दिसम्बर 2004, अगस्त 2005, दिसम्बर 2005 तथा अप्रेल 2005 में सरकार के सामने पेष की । पांचवी और अन्तिम रिर्पोट 4 अक्तुबर 2006 को पेश  की गई । इन रिर्पोटों में बहुत ही मुल्यवान अध्ययन सामग्री के अलावा ’तेज एवं ज्यादा समावेशी  विकास’ जैसा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में तय किया गया था, के बारे में ठोस सुझाव दिए गए हैं । आयोग को निम्नलिखित मुद्दों पर सुझाव देने थे -
  1.  खाद्य सुरक्षा के लिए ठोस सुझाव देना । सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य हासिल करने के उद्देश्य  से खाद्य एवं पौषण सुरक्षा के लिए एक मध्यम स्तरीय रणनीति बनाना ।
  2.  देष की प्रमुख कृषि  प्रणालियों की उत्पादकता, लाभदायकता व स्थाईत्व को बढाना ।
  3. सुखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए विषेश कार्यक्रम बनाना ।
  4. वैश्विक  प्रतिस्पृधा का मुकाबला करने के लिए भारतीय कृषि  उत्पादों की गुणवता व लागत प्रतिस्पृधा बढाना ।
  5. अंतराष्ट्रीय  कीमतों के तेजी से गिरनें के दौर में भारतीय किसानों का आयात से बचाव करना । 

कई दशक से अभूतपूर्व कृषि संकट के कारण देश  के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं । कृषि की समस्याओं के कारण जीवनलीला समाप्त करने वाले किसानों की संख्या लाखों का आंकडा पार कर चुकी है । राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक 1997 से 2005 के बीच लगभग 150,000 किसान ने आत्महत्या कर ली थी । आत्महत्या की यह दर 10,000 सलाना की दर से बढ़ रही है। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और युपीए गठबंधन के अन्य घटक दलों पर दबाव था कि वे कृषि संकट पर कुछ ठोस कदम उठाएं । स्वामिनाथन आयोग का गठन भी इसी कारण किया गया था ।

आयोग ने अपने अध्ययन में पाया कि कृषि  संकट के कारण ही किसान आत्महत्या का शिकार हो रहे है । स्वामिनाथन आयोग की जांच-पड़ताल के अनुसार इस कृषि  संकट के प्रमुख कारण इस प्रकार हैः-

1.    भूमि-सुधार कार्यक्रम सही ढंग से लागू ना करना ।
2.    सिंचाई के लिए पर्याप्त एवं गुणवता वाले पानी का अभाव ।
3.    कृषि  के लिए उचित तकनिक का अभाव ।
4.    संस्थागत ऋणों का किसानों की पहुंच से बाहर होना ।
 इनके अलावा विपरित जलवायु के कारकों ने भी इस समस्या को और जटिल  बना दिया ।

भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करो 

आयोग ने माना कि किसानों के लिए प्राथमिक संसाधनों जैसे भूमि, पानी, जैव-संसाधन, ऋण, बीमा, तकनिक, ज्ञान-प्रबंधन और बाजार आदि की उपलब्धता एवं नियन्त्रण सुनिश्चित  करना इस समस्या के समाधान के लिए बहुत जरूरी है । आयोग ने कहा है कि 60 प्रतिषत से अधिक ग्रामीण परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है । छोटे भू खण्ड की मिलकियत प्रदान करने से परिवार की आय और पौषहार सुरक्षा सुधारने में मदद मिलेगी । जहां संभव हो, भूमिहीन परिवारों को कम से कम एक एकड़ प्रति परिवार भूमि उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिससे उन्हे घरेलू उद्यान कायम करने व पशुपालन के लिए स्थान उपलब्ध होगा । आयोग ने सिफारिश की है कि कृषि  को संविधान की समवर्ती सूचि में रखा जाए ।
अपनी पांचवीं व अन्तिम रिर्पोट में आयोग ने किसान शब्द को परिभाषित किया है । किसान शब्द के अन्तर्गत भूमिहीन कृषि  श्रमिक, बटाईदार, काश्तकार, लघु,सीमांत और उप-सीमान्त खेतिहर, मछुवारे, कुक्कुट व पशूपालन में लगे अन्य किसान, बागान कामगार और साथ ही वे ग्रामीण तथा जनजाति किसान भी शामिल हैं  जो अनेक प्रकार के खेती से जुड़े व्यवसायों में लगे हैं । इस शब्द  के अन्तर्गत झूम खेती करने वाले जनजाति परिवार भी आते हैं । आयोग ने कृषि  क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं को भी किसान के रूप में चिन्हित किया है । 
आयोग ने इस पर जोर देकर कहा है कि कृषि के लिए जमीन और पशुधन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने के लिए भूमि सुधार आवश्यवक  है । जोतों की असमानता जमीन के स्वामित्व के स्वरूप में दिखाई देती है । आयोग के अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1991-92 में , नीचे के आधे से ज्यादा ग्रामिण परिवारों के पास कुल  भूमि कृषि का मात्र 3 प्रतिशत स्वामित्व था और जबकि ऊपर के 10 प्रतिषत ग्रामिण परिवारों के पास कुल जमीन की 54 प्रतिशत कृषि   भूमि हैं । पंजाब युनिवर्सिटी चण्डीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर श्री गोपाल अय्यर ने अपने अध्ययन में पाया कि दिसम्बर 1994 तक पंजाब में कुल 132600 एकड़ जमीन सरपल्स घोषित की गई जिसमें से 102500 एकड़ जमीन को 27600 लाभार्थियों में बांटा गया । यह जमीन कुल बिजाई क्षेत्र का केवल 3.17 प्रतिषत बनती है । इसी प्रकार हरियाणा में कुल 92300 एकड़ कृशि भूमि सरपल्स घोषित की गई जोकि कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 2.29 प्रतिशत  भाग बनती है । जिसको 25000 व्यक्तियों में वितरित किया गया । इस अध्ययन को सुच्चा सिहं गिल जैसे कई अन्य विद्वानों ने नकार दिया है । उनके अनुसार 11 अगस्त 2010 तक उपलब्ध सुचनाओं के अनुसार हरियाणा के सभी जिलों में केवल 17681 एकड़ जमीन 12687 अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को आबंटित की गई । यह कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 0.35 प्रतिशत बनती है । आज जबकि भूमि-सुधारोें का कार्यक्रम सभी राजनीतिक दलों के एजेंडा से गायब हो चुका है ,स्वामिनाथन आयोग मौजूदा कृशि संकट से निकलने के लिए गरीब व भूमिहीन किसानों को कृषि भूमि के वितरण की सलाह सरकार को देते हैं ।
  1.  भूमिहदबन्दी कानूनों को लागू किया जाए तथा सरपल्स जमीनों का बटवारा जरूरतमन्दों में किया जाए । बेकार पडी जमीनें भी वितरित की जाए ।
  2.  कृशि और वन भूमि को गैर-कृषि  उद्देश्यों  के लिए कार्पोरेट हाथों में जाने पर रोक लगाओ ।
  3. आदिवासी जनता के चरागाह एवं जंगल के मौसमी उपयोग के अधिकारों की रक्षा करो ।
  4.  राष्ट्रीय  भूमि उपयोग सेवा की स्थापना करो , जिसके पास भूमि के उपयोग को अन्य कारकों  के साथ लिंक करने की क्षमता हो ।
  5.  कृषि  भूमि की बिक्री के मामलों को रेगूलेट करने के लिए समुचित व्यवस्था का निर्माण करो ।

आयोग कृषि भूमि के घटते रकबे को लेकर चिन्तित है इसलिए वह कृषि भूमि के कारपोरेट हाथों में जाने के खिलाफ है । लेकिन भारत सरकार अभी तक एक औपनिवेशिक कानून के जरिये किसानों से जमीन अधिग्रहण करती थी तथा मामूली बदलावों के साथ फिर वैसा कानून किसानों की जमीन कारपोरेट घरानों को सौपने के लिए बनाया है । इस कानून में भी बहुत से विवादास्पद प्रावधान है जिसका विभिन्न राजनीतिक दल व किसान सगंठन विरोध कर रहे है । हरियाणा की गत कांग्रेस सरकार ने तो कारपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि हदबन्दी कानून भी बदल डाले । इन बदलावों के अनुसार अब कोई भी कारपोरेट घराना कितनी भी जमीन का मालिक बन सकता है । इससे पहले हरियाणा भूमि हदबन्दी कानून की धारा 4 एक निश्चित  सीमा से ज्यादा भूमि रखने पर रोक लगाती थी । इस प्रकार आयोग की सिफारिशे और सरकार की कारवाई दो विपरित दिशाओं में दिखाई देती है ।

सिंचाई की समस्या

देश  के कुल 192 मिलियन हेक्टेयर बिजाई क्षेत्र में से 60 प्रतिशत की सिंचाई वर्षा  पर निर्भर है । इसी प्रकार कुल कृषि  उत्पाद का 45 प्रतिशत भी वर्षा  पर निर्भर है । किसानों की पानी तक लगातार पहुंच बनाए रखने के लिए एक व्यापक सुधार कार्यक्रम की सिफारिश  की गई है । आयोग ने एक मिलियन वेल रिचार्ज कार्यक्रम का सुझाव दिया है । इसका उद्देश्य देहाती कुओं को वर्षा के पानी से रिचार्ज किया जाना है । इससे न केवल जल संवर्धन को बढावा मिलेगा बल्कि सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी की वकैल्पिक व्यवस्था का विकास भी होगा । आयोग ने इस कार्यक्रम से वर्शा के पानी के संरक्षण के जरिये जल आपूर्ति में वृद्धि की तकनिक को विकसित करने पर बल दिया है । जैसा कि 11वीं पंचवर्षीय  योजना में भी इसे एक लक्ष्य बनाया गया था , आयोग ने सिंचाई-क्षेत्र में सरकारी पूँजी  निवेश  की बढोतरी करने का सुझाव दिया है।     

कृषि  की उत्पादकता की समस्या

जोत के आकार के अलावा, कृषि की उत्पादकता भी किसानों की आमदनी तय करती है । हालांकि भारत में प्रति इकाई उत्पादकता अन्य फसल उत्पादक देशों  की तुलना में काफि कम है । आधुनिक तकनीक के अंधाधूंध इस्तेमाल से न केवल खेती की लागत का खर्च बेतहाशा बढ़ गया बल्कि रासायनिक खादों के इस्तेमाल से जमीन भी अपनी उपजाऊ क्षमता खोने लगी। जमीन में फसल की उत्पादकता में गिरावट इस तथ्य से समझी जा सकती है कि 1980 में जिस जमीन में 4 क्विंटल गेंहू प्रति बीघा पैदा होती थी, 1990 आते आते वह 3 क्विंटल प्रति बीघा तक आ गयी और अब वहां मात्र 2 क्विंटल से 2.5 क्विंटल प्रति बीघा की औसत से ही गेंहू की पैदावार हो पा रही है। कृषि  उत्पादकता में वृद्धि हासिल करने के लिए स्वामिनाथन आयोग निम्नलिखित सुझाव देता है-
  1.  कृषि  संबधी आधारभूत संरचना के विकास के लिए विषेशतौर पर सिंचाई-व्यवस्था, ड्रेनेज, भू-विकास, जल-संरक्षण,कृषि शौध  और सडक संपर्क आदि क्षेत्रों में, सरकारी निवेष को उल्लेखनीय रूप से बढाने की आवश्यकता  है ।
  2.  राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी विकसित मिट्टी-जांच प्रयोगशालाओं का जाल बिछाया जाए जोकि सुक्ष्म से सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी की जांच कर सके ।
  3.  कन्जर्वेशन फार्मिंग को बढावा दिया जाए जिससे किसानों को भूमि-स्वास्थ्य, पानी की गुणवता व मात्रा और जैव विविधता के संरक्षण तथा सुधार करने में मदद मिलेगी ।

आयोग खेती पर निवेश  बढाने की सिफारिश करता है । आयोग का मानना है कि सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत कृषि   पर खर्च करना चाहिए । आयोग ने अपनी रिर्पोटों की शुरूआत नेहरू एवं महात्मा गांधी के प्रसिद्ध कथनों-सब कुछ इन्तजार कर सकता है,पर कृषि  नही तथा रोटी भूखे के लिए भगवान है - से की है । स्वामीनाथन आयोग ने भूख को इतिहास बनाने का लक्ष्य सामने रखते हुए इस काम को हाथ में लिया था लेकिन सरकार को कृषि की कोई सुध नहीं है । कृशि क्षेत्र पर निवेष दिनों दिन कम किया जा रहा है , विश्व  व्यापार संगठन आदि संस्थाओं के दबाव में सबसीडी को समाप्त किया जा रहा है । आयोग की सिफारिशों  के विपरित भारतीय कृषि  को बड़े वैष्विक दानवों के सामने खोला जा रहा है ।

कृषि  के लिए ऋण एवं बीमा की व्यवस्था

किसानों के व्यापक रूप से ऋण ग्रस्त होने को किसान आयोग ने गंभीर चिंता का विशय माना है । ऋण किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के पिछे एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में सामने आया है । खेती के लिए ऋण की समयानूसार व उचित मात्रा में आपूर्ति छोटी जोत वाले किसान परिवारों की एक प्राथमिक  आवश्यकता है । आज जबकि किसानों का बहुत बडा हिस्सा जालिम सूदखोरों के चंगुल में फंसा हुआ है । आढती किसानों की कमाई का बडा हिस्सा डकार जाते है । सरकार द्वारा चलाई जाने वाली फसल के लिए ऋण योजनाओं का लाभ असल व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाता । बल्कि कई अध्ययनों में तो यह भी पाया गया है कि प्रभावशाली जमींदार व धनी किसान सरकारी बैंकों व संस्थाओं से सस्ती ब्याज दरों पर ऋण लेकर उसी धन को मध्यम व गरीब किसानों को उच्च ब्याज दरों पर ऋण के रूप में देते हैं ।
ऐसे में स्वामिनाथन आयोग सरकारी ऋण प्रणालियों के विस्तार की सिफारिश  करता है ताकि असल गरीब व जरूरतमन्द किसानों तक मदद पहुंच  सके । फसली ऋणों की ब्याज दरों को सरकार की मदद से 4 प्रतिशत साधारण तक घटाये जाने की जरूरत पर बल दिया गया है । संकट ग्रस्त किसानों से ऋणों की वसूली को कुछ समय के लिए रोक लगाने की सिफारिश  आयोग करता है । इसके अलावा भविष्य की प्राकृतिक आपदाओं से किसानों को राहत प्रदान करने के लिए कृशि जोखिम फन्ड की स्थापना का सुझाव दिया गया है । महिला किसानों के लिए आयोग ने कृषि  भूमि के स्वामित्व दिए जाने का समर्थन किया है , साथ ही महिला किसानों के नाम  कृषि ऋण पत्र जारी करने की सिफारिश  की है ।  कृषि में होने वाले संभावित नुकशान से निपटने के लिए थोडी राशी  के आसान प्रीमीयमों पर  फसल बीमा योजना को समुचे देश  के स्तर पर विस्तार करने का सुझाव दिया गया है । आयोग के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में फसल बीमा कार्यक्रमों के प्रोत्साहन के लिए ग्रामीण बीमा विकास फंड की स्थापना की जा सकती है ।

खाद्य-सुरक्षा की समस्या
आयोग ने देश  की खाद्य सुरक्षा को चिन्ताजनक बताया है । भारत में खाद्यान्नों की घटती प्रति व्यक्ति उपलब्धता और उनका असमान वितरण ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर संकट है । आयोग ने आंकडों की मदद से बताया कि 2004-2005 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की संख्या कुल परिवारों का 28 प्रतिशत यानि लगभग 300 मिलियन जनता बनती है । 2400 क्लोरी से नीचे प्रति दिन प्रति व्यक्ति उपभोग को गरीबी रेखा का पैमाना माना गया है । आयोग ने पाया कि देश  की जनता का एक विषाल भाग 2400 क्लोरी की खपत भी नही कर पा रहा है । 1999-2000 में 2400 क्लोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपभोग करने वाली जनता कुल ग्रामीण आबादी का 77 प्रतिषत बनती थी । बहुत से अन्य अध्ययनों से यह स्पष्ट  हो चुका है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का संकेन्द्रण और भोजन का अभाव पहले से ज्यादा बढ रहा है ।

किसान आत्महत्याओं की रोकथाम के उपाय

पिछले कई वर्षों में किसानों ने एक बडी संख्या में आत्महत्या की है । आंध्राप्रदेश  , कर्नाटक, महाराष्ट्र , केरल, राजस्थान, उडीशा , मध्यप्रदेश , आदि राज्यों से किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले सामने आए है । कृषि क्षेत्र में अग्रणी पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में भी किसानों द्वारा आत्महत्या के समाचार परेशान करने वाले हैं । स्वामिनाथन आयोग ने किसानों द्वारा आत्महत्या की समस्या को प्राथमिकता के आधार पर संबोधित करने की आवष्यकता को रेखांकित किया है ।  इस संदर्भ में निम्नलिखित सुझाव आयोग द्वारा दियेे गए है-
  1.  राष्ट्रीय  ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का विस्तार किसान आत्महत्या के इलाको तक प्राथमिकता के आधार पर किया जाए ।
  2.  किसानों की समस्याओं पर तेजी से जवाबदेही सुनिष्चित करने के लिए ऐसे राज्य स्तरीय किसान आयोग स्थापित किए जाएं जिसमें किसानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया हो ।
  3.  ग्राम स्तर पर सभी फसलों को फसल बीमा योजना के तहत लाया जाए।
  4. बुढापे के समय मदद और स्वास्थ्य बीमा के प्रावधानों सहित एक सामाजिक सूरक्षा कवच बनाया जाए ।
  5. जल संरक्षण और संवर्धन सहित भूमिगत जल स्तर के पुनर्भरण को बढावा दिया जाए ।
  6.  जल नियोजन को विकेंद्रित करके ग्राम स्तर पर जनता को जल प्रबंधन योजनाओं में षामिल किया जाए । ग्राम पंचायतों को पानी पंचायतों के रूप में सक्रीय किया जाए तथा जल स्वराज हासिल करना प्रत्येक गांव का लक्ष्य निर्धारित किया जाए ।
  7.  कमतर जोखिम-कमतर लागत वाली कृशि तकनीक को बढावा दिया जाए जोकि किसानों को अधिकतम आमदनी प्रदान करने में मदद कर सके । क्योंकि वर्तमान समय में किसान फसल पीटने का सदमा सहने की हालत में नहीे है । आयोग ने महंगी तकनीक पर आधारित खेती जैसे बी टी कॉटन आदि को गलत माना है ।
  8. अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से किसानों का बचाव करने के लिए सीमा षुल्कों पर त्वरित कारवाई की आवष्यकता है ।
  9.  कृशि संकट के गढों में ग्राम ज्ञान केन्द्र या ज्ञान चौपालों की स्थापना की जाए । ये मार्गदर्षन केंद्रों के रूप में काम करेगें तथा कृशि एवं गैर-कृशि आजिविकाओं के तमाम पहलूंओं पर जरूरत अनुसार एवं तेज गति से सुचनाएं प्रदान कर सकेगें ।
  10.  लोगों में आत्मघती व्यवहार को पहले से चिन्हित करने की चेतना विकसित करने के लिए जन-जागृति अभियान चलाए जांए ताकि समय पर ऐसे किसानों को मदद की जा सके.
  11.  आयोग न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने की व्यवस्था में सुधार करने की वकालत करता है ।
आयोग ने माना कि धान व गेहंू के अलावा अन्य फसलों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के तहत लाया जाए । बाजरा व अन्य पौशक खाद्यान्नों को स्थाई रूप से पी डी एस में षामिल किया जाए । आयोग ने सिफारिष की है कि फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल पर आयी औसत लागत से 50 प्रतिषत अधिक होना चाहिए ।
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कृशि ही बडे हिस्से को रोजगार प्रदान कराने वाला क्षेत्र बना हुआ है । आयोग के अनुसार भारत में रोजगार की रणनीति बनाने के मामले में दो चीजें हासिल करनी होगी । प्रथम, उत्पादक रोजगार के अवसर पैदा करना तथा अलग-अलग क्षेत्रों में रोजगार की गुणवता में सुधार करना जैसे असल दिहाडी में बढोतरी करनी है तो हमें उत्पादकता बढ़ानी पड़गी । आयोग जहां गैर-कृशि क्षेत्रों में रोजगार पैदा करने की सिफारिष करता है वहीं तुलनात्मक रूप से ज्यादा श्रम आधारित काम धन्धों को बढावा देने पर जोर देता है । ऐसा किए बिना कृशि का बोझ कम नहीं किया जा सकता । और ना ही बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी, छिपी हुई बेरोजगारी की समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है । 
अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से किसानों के बचाव का अर्थ है कि भूमंडलीकरण की अपनी नीतियों पर सरकार पुर्नविचार करे । भारतीय बाजारों में बाढ़ की तरह आने वाले बड़े साम्राज्यवादी देषों के अनाजों को रोका जाए । पहले विदेषी खाद्यान्नों के भारतीय बाजारों में घूसने पर रोक थी लेकिन आर्थिक उदारीकरण की आंधियां सभी पाबंदियों को बहाकर ले गई । प्रधानमंत्री वाजपेयी के षासन काल के दौरान 1429 उत्पादों से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिए गए । इसका अर्थ यह था कि अब विदेषी उत्पाद, जिसमें विदेषी कृशि उत्पाद भी षामिल थे, मनमर्जी की तादाद में भारतीय बाजारों में आ सकते थे । साम्राज्यवादी देषों में कृशि उत्पादों को  भारी सबसीडी देकर तैयार किया जाता है । भारत जैसे देषों में सरकारें कृशि पर जितनी सबसीडी पूरी पंचवर्शिय योजना में नहीं देती, अमेरिका व युरोप में सरकारें केवल एक महिनें में इसके बराबर सबसीडी वहां के किसानों को प्रदान कर देती है । भूमंडीकरण के युग में अल्पविकसित देषों के कृशि उत्पाद विकसित देषों के कृशि उत्पादों से प्रतिस्पृधा में टिक नहीं सकते ।
जब स्वामीनाथन आयोग भारतीय कृशि उत्पादों को अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से बचाने की बात करता हैं तो उसका अर्थ है कि भारत सरकार विष्व व्यापार संगठन की षर्तों का पालन करना बंद करे । जोकि लगभग असंभव है । क्योंकि भारत सरकार ने विष्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनकर इसकी सभी गैर बराबरी पूर्ण षर्तों को मान लिया है । अमेरिका जैसे बड़े साम्राज्यवादी देष इन्ही विष्व सगंठनों के माध्यम से गरीब देषों पर अपनी नीतियां धोपतें हैं। भारत सरकार पर विष्व व्यापार संगठन से बाहर आने के लिए दबाव बनाने के लिए एक जबरदस्त किसान-मजदूर आंदोलन की जरूरत है । खेती सहित सभी क्षेत्रों में बढ़ रहे साम्राज्यवादी दखल के खिलाफ मजदूर-किासनों के नेतृत्व संघर्श करना चाहिए । कृशि लागतों को कम करवाने यानि खाद बीज डीजल मषीनरी आदि को सस्ता करवाने के लिए सभी ग्रामीण जनता को एकजूट होना होगा ।
इसी प्रकार भूमि सुधार कानूनों को लागू करवाने के लिए व्यापक आंदोलन चलाने की जरूरत है । हालांकि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है । बेषक हमें स्वामीनाथन से आगे जाना होगा । इसके लिए हमें सहकारी या सामूहिक कृृशि को अपनाना होगा । जोकि कृशि में समाजवाद का आधार बनेगी । लेकिन भूमिहीन दलित समाजवाद तक इन्तजार नहीं कर सकते । आयोग ने सही ही कहा है कि भूमिहीनों को कम से कम एक-एक एकड़ कृृशि भूमि जरूर प्रदान की जाए । केवल ऐसा करने से ही भूमिहीन जनता जिसमें 99 प्रतिषत दलित आते हैं , के लिए आजीविका के साधन के रूप में कृशि भूमि का बन्दोबस्त किया जा सकेगा । तात्कालिक रूप से ग्रामीण बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकेगा । और सबसे महत्वपूर्ण, दलितों के सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न पर रोक लग सकेगी । दलित कुल ग्रामीण आबादी का 20 प्रतिषत बनाते हैं । जोकि आजीविका के लिए कृशि पर निर्भर करते है और इनके पास बिल्कूल भी कृशि भूमि नहीं है । एक ऐसा समुदाय जो आजीविका के लिए कृशि पर निर्भर हो और उसके पास कृशि भूमि ना हो या बिल्कूल कम कृशि भूमि हो , उसकी हालत का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है । इस प्रकार दलित समुदाय उच्च जातिय जमींदारों के मोहताज बन जाते हैं । इन परिस्थितियों में दलित सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक पहलकदमी खो देते हैं । श्रम बाजार में किसी प्रकार की मोलभाव करने की स्थिति में नहीं रहते ।
कृशि भूमि के साथ ही दलित एवं अन्य भूमिहीन समुदायों के लिए आवासीय भूखण्डों के लिए भी आंदोलन की जरूरत है । महात्मा गांधी ग्रामीण बस्ती योजना के हमारे अध्ययन में पाया गया है कि हरियाणा प्रदेष में इस योजना के तहत आबंटित किये गए 100-100 वर्ग गज के आवासीय भूखण्डों में बड़ी अनियमितता बरती गई है। गांव के सामंती तत्वों ने अलग-अलग तरीके से दलितों को इस योजना का लाभ नहीं उठाने दिया । इसी प्रकार पंचायती जमीनों में दलितों के लिए आरक्षित जमीन का सवाल भी उठाया जाना चाहिए । प्रोफेसर गोपाल अय्यर के अध्ययन से पता चलता है कि हरियाणा में ग्राम पंचायतें दलितों के कृशि भूमि संबंधी मामलों की सही देखरेख नहीं कर रही । उनके अनुसार 15 प्रतिषत षामलात भूमि प्रभावषाली जमींदारों के कब्जे में है जिन्हें सरपंच तथा अन्य अधिकारियों का सरक्षण प्राप्त है ।
स्वामीनाथन आयोग ने केवल किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं पेष किया बल्कि सारी ग्रामीण आबादी जिसमें दलित भी आते हैं, की समस्याओं का समाधान बताने की कोषिष की है । सस्ती ब्याज दरों पर सरकारी कर्ज सुनिष्चित करना केवल किसानों के लिए नहीं है । बड़ी संख्या में भूमिहीन दलित भी आयोग के इस उपाय के दायरे में आएंगे । सरकारी ऋणों की वसूली का स्थगन, ब्याज माफी आदि प्रावधान सभी ग्रामीण कर्जदारों के लिए हैं । यह सही है कि मौजूदा व्यवस्था में ग्रामीण आबादी की मुक्ति संभव नहीं है । फिर भी एक तात्कालिक राहत के रूप में स्वामीनाथन के उपायों की सराहना की जा सकती है । आयोग की सिफारिषों का व्यवहार में असर तभी संभव है जब सरकार इनके प्रति गंभीर रवैया अपनाए । वास्तव में ग्रामीण भारत की समस्याएं सरकार की प्राथमिकता कभी रही ही नही । वर्तमान में भारत की खेती के संकट का हल एकमात्र सहकारी एवं सामूहिक कृशि के माध्यम से हो सकता है ।  ऐसे उपाय केवल एक सच्ची जनतांत्रिक सरकार ही कर सकती है जो कि देष की कृशि को सहकारी एवं सामूहिक कृशि के रास्ते से समाजवादी कृशि में परिणित करने पर दृृढ़ हो ।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

पुलिस दमन मुर्दाबाद इंकलाब जिंदाबाद

पुलिस दमन मुर्दाबाद

इंकलाब जिंदाबाद

सात साल पहले जींद पुलिस ने नरवाना सदर थाना क्षेत्र से आठ नवयुवकों को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया था । ये युवक क्रांतिकारी मजदूर किसान संगठन से जुडे थे । यह संगठन भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग करता था । जमीन के मुद्दे को उठाता था । 2005 से इस संगठन पर सरकारी दमन षुरू हुआ । इसके नेताओं व कार्यकर्ताओं को फर्जी मुकदमों में फंसाया जाने लगा । मिडिया ने भी सरकार के सुर में ताल मिलाते हुए इस संगठन को देष द्रोही करार दे दिया । एक के बाद एक सनसनीखेज समाचार समाचार पत्रों में छपने लगे ।

आज जबकि पुलिस के सभी आरोप बेबुनियाद पाए गए हैं तो जिला पुलिस की उक्त कारवाई पर कोई सवाल नहीं उठाये जा रहे । आज जब हरियाणा पुलिस के आरोप सही नही पाए गए , सभी नवयुवकों को बेकसूर पाया गया तो एक छोटा सा कालम समाचार अखबारों ने छाप दिया । फैसला आने के बाद हमने जिला के प्रमुख पत्रों से संपर्क किया तो कईयों ने यह कहकर इस समाचार में दिलचस्पी नहीं दिखाई कि यह घटना उनके क्षेत्र में नहीं आती है ।

2009 में जब मैं जिला कारागार जीन्द में बन्द था तो रोज प्रदेष में बढते माओवाद पर सनसनीखेज समाचार पढने को मिलते थे । मुम्बई स्थित ताज होटल पर जब नवम्बर 2009 में आतंकवादी हमला हुआ तो जीन्द के एक अखबार ने मेरा व मेरी पत्नी गीता का सम्बन्ध उस घटना से जोड़ते हुए समाचार छापा था। आज जिला पुलिस पर कोई उंगली नही उठाई जा रही । ऐसा क्यों है । ऐसा मीडिया के जनविरोधी चरित्र के कारण है । क्योंकि मजदूर किसान संगठन भूमिहीनों के मामले उठाता था । और हमारे देष में भूमिहीन का अर्थ है दलित यानि निम्न जाति के लोग । जिनको इंसान का भी दर्जा नहीं प्राप्त है । ऐसे समुदाय की आवाज उठाने वाले संगठन का सकारात्मक समाचार भला ये उच्च जातिय मीडिया भला क्यों छापने लगा ।  


मंगलवार, 10 नवंबर 2015

अजय देवगन के नाम एक ख़त ।


प्रिय अजय देवगन,
                          मैं हरियाणा से हूँ और आपका वो फैन हूँ। जो एक रात में 4 फ़िल्म आपकी देखता था और फिर सुबह स्कुल में साथियो को पूरी फ़िल्म सुनाता था।
मुझे अच्छी तरह याद है की 1994-95 के दौर में हरियाणा के किसी भी गाँव में कलर TV नही होता था ब्लैक एंड व्हाइट TV भी गाँव में ढुंढने से मिलता था। उस समय रामायण देखने के लिए पूरा गाँव उस एक घर में इकठ्ठा हो जाता था जिसके घर में टीवी होता था। फ़िल्म टीवी पर आती ही नही थी। जो सायद बाद में शुरू हुई है शुक्र शनि और रविवार को।
   उस दौर में पुरे गांव में एक और प्रचलन था की जिस भी परिवार में ख़ुशी का मौका हो जैसे शादी होना, बच्चे का होना या और कोई ख़ुशी तो उस समय वो परिवार शहर से कलर टीवी और VCR किराये पर लेकर आता था और साथ में लेकर आता था 5 फ़िल्म जो पूरी रात उस ख़ुशी के मौके पर चलनी होती थी। कलर टीवी को गली में या खुले मैदान में रख दिया जाता था। फ़िल्म देखने के लिए लगभग पूरा गाँव मतलब हजारो लोग आते थे। गाँव में धर्मेन्द्र, अमिताब, विनोद खन्ना, मिथुन उस समय के सुपर स्टार हीरो थे। राजेश खन्ना, संजीव कुमार इनको कोई नही देखता था क्योकि गाँव के लोगो को तो मार धाड़ वाली फिल्म पसन्द थी।
मिथुन एक ऐसा हीरो था जिसकी फ़िल्म मजदूर बड़े चाव से देखते थे। उसको अपना हीरो मानते थे। क्योकि वो अपनी फिल्मो में मजदूर का दुख दिखाता था और उसकी लड़ाई लड़ता नजर आता था।
     अब आपको विस्वाश नही होगा की अगले दिन स्कूल लगता था तो स्कुल में छात्र नही कोई धर्मेन्द्र कोई मिथुन कोई राजकुमार जिसको जो पसन्द था वो बनकर आते वैसा ही दिखने की कोशिश करते वैसा ही बोलने की कोशिस करते। जो बच्चा किसी कारण रात के 5 फ़िल्म वाले सिनेमा को नही देख सका वो ऐसे उदास रहता जैसे उसको बहुत बड़ा नुकशान हो गया हो।
  लेकिन एक सच्चाई ये भी होती की सभी हीरो बनते थे गुंडा कोई नही बनता था। लेकिन सभी ने अध्यापको के नाम जरूर गुंडों के नाम पर निकाले हुए थे।
   उसके बाद के हीरो में दौर आता है  जो इस कल्चर का लास्ट दौर था उनमे शनि देओल, अजय देवगन, आमिर खान, अक्षय कुमार , सलमान खान
     जब हम 10-10 रुपया इकठ्ठा करके VCR लाते थे तो हम 5 फ़िल्म में से आपकी 3 या 4 फ़िल्म लाते थे।
    मेरा बड़ा भाई शारुख खान का फैन था मैं और मेरे चाचा का लड़का आपके फैन थे। हमारा दोनों भाइयो में इस बात पर हर रोज झगड़ा होता था की अजय सुपर हीरो है वो लड़ता है गुंडों के खिलाफ और शारुख खान नही लड़ता इसलिए वो कमजोर हीरो है।
समय के साथ साथ वो VCR वाली कल्चर खत्म हो गयी। लगभग घरो में कलर टीवी आ गए केबल आ गयी अब सप्ताह में 3 फ़िल्म नही अलग अलग चैनल पर पुरे पुरे दिन फिल्म चलने लग गयी। हम भी स्कुल से collage में आ गए और कालेज में वामपंथियो से जुड़ाव हो गया। मेरा भाई फैक्टरी में काम करने लग गया। लेकिन मेरा फ़िल्म देखने का शौक कम नही हुआ इतना जरूर हुआ की अब मार धाड़ वाली फ़िल्म कम और आर्ट फ़िल्म ज्यादा देखने लग गया। जिसमे नसरुदीन ओमपुरी स्मिता पाटिल शबाना अच्छे लगने लगे। लेकिन आप और आमिर खान अब भी अपनी जगह बनाये हुए थे। क्योकि आप दोनों ने कई फिल्म जातीय और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ बनाई थी। अब भी शारुख मेरा हीरो नही बन सका क्योकि वो ऐसी फिल्मो से दूर ही था।
     आपकी वो भगत सिंह पर बनी फ़िल्म दा लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह उस समय की भगत सिंह पर बनी सर्वश्रेठ फ़िल्म थी क्योकि वो पहली फ़िल्म थी जिसमे भगत सिंह के सच्चाई के पहलु दिखाए गए। उस फ़िल्म को देख क्ऱ लगा जैसे भगत सिंह सच में हमारे सामने है। आपने कितनी आसानी से भगत सिंह के विचारो को जनता के सामने पेश किया की मानव का मानव शोषण न करे, धर्म और जात के नाम पर साम्प्रदायिक झगड़े बन्द हो, मेहनतकश का राज आये, सामाजिक, राजनितिक और आर्थिक आजादी सबको मिले। हम फांसीवाद से लड़ने के लिए भगतसिंह के प्रोग्राम में आपकी ये फ़िल्म दिखाते थे।
इधर पुरे देश में भगत सिंह की विरोधी फांसीवादी विचार धारा जिसका भगत सिंह ने मरते समय तक विरोध किया भारत में नंगा नाच कर रही थी। धर्म और जात के नाम सामूहिक कत्लेआम, एक विशेष धर्म के मस्जिद, चर्च पर हमले, धर्म के नाम पर दंगे और दंगो में होता महिलाओ का बलात्कार
फासीवादी यहां तक नही रुके उन्होंने मारना शुरू कर दिया देश के बुद्धिजीवीयो को लेखको और प्रगतिशील लोगो को और इसका श्रेय जाता है भारत की फांसीवादी पार्टी बीजेपी को जो फासीवादी हिटलर को अपना आदर्श मानती है।
मेरे पाँव के निचे से जमीन खिसक गयी और मुझे बहुत ही ग्लानि महसूस हुई की मैंने ऐसे अभिनेता को अपना आदर्श माना जो उस फांसीवादी पार्टी के लिए वोट मांग रहा है। जिसके हाथ व् कपड़े लाखो निर्दोष लोगो के खून से रंगे है। जो भगत सिंह की विचारधारा के खिलाफ काम करती है।
गर्व होता है मुझे उस शारुख खान पर जो आपकी तरह सामाजिक फ़िल्म तो नही करता लेकिन असली जिंदगी में उसने फांसीवादी विचारधारा को और फांसीवादी पार्टी को करारा तमाचा मारा है व भगत सिंह के विचार के साथ खड़ा होकर उसको सच्ची श्रंधाजली दी है।
   मुझे सच में तुमसे नफरत हो गयी।
       
     Comred Udey CHE
     ±918529669491
     Hansi, Hiaar (Haryana)

शुक्रवार, 22 मई 2015

मिडिया का राजधर्म

मिडिया का राजधर्म 


आज अमर उजाला के स्थानीय संस्करण पर प्रकाशित समाचार के शीर्षक से एक बार फिर मिडिया की चालबाजी सामने आ गई । शीर्षक कहता है " जुर्म छोड़ा " यानि पहले नामित व्यक्ति किसी अपराध में शामिल पाए गए थे । लेकिन इन्होंने कोई जुर्म किया ही नहीं था इसलिए अदालत में चलाए गए मुकदमे के दौरान किसी जुर्म का होना पाया भी नहीं गया और माननीय अदालत ने नामित व्यक्तिओं को बरी कर दिया । मामला इस्माईलाबाद ग्रामीण क्षेत्र में कई साल पहले आवासीय प्लाटों की मांग को लेकर चले आंदोलन और जिला पुलिस द्वारा दलितों और यूनियन कार्यकर्ताओं पर दर्ज राजद्रोह के झूठे मुकदमों का है । यह फर्जी मुकदमा अदालत में एक कदम के लिए भी न टिक पाया था । इसके बावजूद इस आंदोलन में दलित जनता का पक्ष लेने वाले कार्यकर्ताओं को पुलिस रिकॉर्ड में आज भी " बदमाश" दर्शाया गया है ।  खबर के शीर्षक से लगता है जैसे ये लोग पहले कोई अपराध करते थे । पर ऐसा नहीं है । इनमे क्षेत्र के जानेमाने सामाजिक व राजनितिक कार्यकर्त्ता मास्टर सतीश जिन्होंने शिक्षा विभाग में अपने सेवाकाल के दौरान लगातार कर्मचारियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बाद में सेवानिवृति के बाद ग्रमीण मजदूरों के अधिकारों के आंदोलन में सक्रीय रहे और लगातार डटे हुए है । बाकि नामित व्यक्ति भी इलाके के जनवादी और दलित अधिकारो की लड़ाई के अहम चेहरे है । पत्र ने यह समाचार भले ही प्रमुखता से छापा है लेकिन अपनी तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने की सामन्ती तिकड़म से बाज नहीं आया है । ये लोग कभी भी अपराधी नहीं थे । न इन्होंने कभी कोई जुर्म किया । जिला पुलिस ने जरूर अपराध किया था क्योंकि फर्जी मुकदमा दर्ज करना एक दण्डनीय अपराध है । दूसरा अपराध  क्षेत्र के सम्माननीय व्यक्तिओं को पुलिस रिकार्ड में " बदमाश" दिखाकर किया है । क्योंकि ऐसा करने के लिए पुलिस के पास कोई क़ानूनी आधार और समर्थन नहीं है । इसलिए आयोग ने पुलिस अधीक्षक के जवाब पर गंभीर आपत्ति दिखाई है ।

जिन्होंने कभी कोई अपराध नहीं किया अमर उजाला का शीर्षक उन्हें पुराने अपराधी बताता है । समाचार पत्र और पुलिस की सोच में कोई तो अंतर होना चाहिए ।
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पूरा समाचार :

जुर्म छोड़ा पर नहीं हटता ‘बैड करेक्टर’ का ठप्पा

हर्ष कुमार सलारिया

चंडीगढ़। अपराध छोटा हो या बड़ा, एक बार भी कोई व्यक्ति पुलिस के हत्थे चढ़ा तो उसे हमेशा के लिए अपराधी मान लिया जाता है। पुलिस के रजिस्टर में उसका नाम और फोटो ‘बैड करेक्टर’ के तौर पर दर्ज हो जाता है, लेकिन अब ऐसा नहीं चलेगा। हरियाणा मानवाधिकार आयोग ने आठ पीड़ितों की याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस के जवाब पर न सिर्फ असंतोष जताया है बल्कि इस बारे में राज्य सरकार को दिशा-निर्देश देने केलिए मानवाधिकार आयोग के महानिदेशक को आठ हफ्ते में अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा है।

कुरुक्षेत्र जिले के आठ लोगों ने अपने नाम के साथ लगे पुलिस के इसी ‘ठप्पे’ से आहत होकर राज्य मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया है। उप तहसील इस्माइलाबाद के गांव चम्मू कलां, गांव इस्माइलाबाद और गांव खेड़ी शहीदां केनिवासी जयभगवान, जीत राम, नरेश कुमार, दर्शन सिंह, सतीश कुमार, धर्मपाल, नरेश कुमार और बिंदर ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष याचिका देकर कहा कि वे पुलिस के रिकार्ड में ‘बैड करेक्टर’ हैं, जोकि उनके नाम के साथ 2005-06 में दो मामले दर्ज करते हुए पुलिस ने लगाया था। याचिका के अनुसार, इन मामलों में से एक आईपीसी की धारा 124ए का था, जिसमें उन्हें जमानत मिल गई और बाद में अदालत में केस खारिज हो गया। इसके अलावा दूसरा मामला आईपीसी की धारा 323, 342 व 506 के तहत दर्ज किया गया, लेकिन वे सभी इस केस में बरी हो गए। याचिका में कहा गया है कि इसकेबावजूद पुलिस ने उनके नाम के साथ लगे ‘बैड करेक्टर’ केठप्पे को नहीं हटाया, जिससे वे आज तक अपने आसपास के लोगों में अपमानित हो रहे हैं।

यह कहा मानवाधिकार आयोग ने

मानवाधिकार आयोग ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कुरुक्षेत्र के एसपी को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। एसपी ने अपने जवाब में जो कहा, उससे पुलिसिया रवैये की झलक देखकर मानवाधिकार आयोग भी चिंतित हो गया। आयोग ने एसपी के जवाब पर असंतोष जताते हुए कहा कि इस बारे में पुलिस के सारे तर्क किसी भी व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। कई मामलों में तो पुलिस ने सरकार केखिलाफ भाषण देने वालों पर भी बैड करेक्टर का ठप्पा चस्पा कर दिया, जोकि पूरी तरह गलत है। इसके अलावा पुलिस या किसी सरकारी अधिकारी से मारपीट के मामले में भी पुलिस ने इसी ठप्पे का इस्तेमाल किया, जो तय दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है। एसपी कुरुक्षेत्र के जवाब पर गौर करने केबाद मानवाधिकार आयोग ने पाया कि इस मसले पर विस्तृत अध्ययन के बाद राज्य सरकार के लिए दिशा-निर्देश जारी करना आवश्यक है। इसी के मद्देनजर आयोग ने महानिदेशक को इस मामले का अध्ययन कर आठ हफ्ते में रिपोर्ट पेश करने केनिर्देश जारी किए। मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई को होगी।

आठ लोगों की याचिका पर महानिदेशक को अध्ययन का जिम्मा सौंपा

कुरुक्षेत्र के आठ लोग छूट जाने के बाद आज तक हैं ‘बैड करेक्टर’

रविवार, 21 सितंबर 2014

मिलै ना दिहाड़ी - राजेश कापड़ो

मिलै ना दिहाड़ी - राजेश कापड़ो

मिलै ना दिहाड़ी मैं साइकिल ठाकै रोज चौक तै ठाली घर जाऊं ।
काम मिलै ना आंख पाटले मैं बाट देखकै हार्या ।
घरका चुल्हा बालण खातर ल्याऊं चून उधारा ।।
याणें बालक कररे कारा मैं क्युकर काम चलाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

गंजी होगी टाट तांसला सिर नै चाटग्या ।
धेला मिलता नहीं सांझ नै चाला पाटग्या ।।
उधार देणतै सेठ नाटग्या मैं क्युकर रोटी खांऊं ।।
मिलै ना दिहाड़ी .....

भात अर जाप्पे बहण बुआ के साक्के न्यारे-न्यारे ।
बुढ़ा-बुढ़ी पड़े खाट मै दिखण के लाचारे ।।
ना पुगे दवाई ल्या-ल्या हारे मैं क्युकर फर्ज चुकाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

सोनू-मोनू फिरैं उघाड़े ठिर-ठिर कांपै पाले मै ।
मेरी प्रेमो बोहणी हांडै कोए कसर ना चालै मै ।
मै मरग्या कति दिवाले मै किसकै मौजे ल्याऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

करड़ाई रह सिरकै ऊपर हरकै बोहत देखली ।
अदलाबदली सरकारां करकै बोहत देखली ।
आप्पा मरकै मौत देख ली मै डांगर ढाल रड़ाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी .....

करो जापता कट्ठे होकै एकता आज बणाओ ।
जो म्हारी जान का दुश्मन उस जालिम तै भिड़ जाओ ।
झंडा लाल हाथ मै ठाओ मैं भी आगै पाऊं ।
मिलै ना दिहाड़ी मैं साइकिल ठाकै रोज चौक तै ठाली घर आऊं ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

हरियाणा में पुलिस दमन




राजेश कापड़ो

हरियाणा सरकार सन 2005 से ही, विभिन्न जनसंगठनों के सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर, झूठे मुकदमे थोप लगातार मानव अधिकारों का हनन कर रही है। लगभग 200 कार्यकर्ताओं को झूठे व राजनीति से प्रेरित मुकदमों में गिरफ्तार किया जा चुका है। इस तरह से फंसाए गए ज्यादातर लोग भूमिहीन व खासतौर से दलित के रूप में जाने जानेवाले निचली जातियों के गरीब किसान हैं। यमुनानगर जिले के एक देहाती मजदूर व किसान संगठन शिवालिक जनसंघर्ष मंच (एस.जे.एम) के नेता और कार्यकर्ता साढ़े तीन सालों से सलाखों के पीछे हैं। दूसरे संगठन जैसे कि छात्र संगठन जागरूक छात्र मोर्चा (जे.सी.एम) और क्रांतिकारी मजदूर किसान यूनियन (के.एम.के.यू) का भी यही हाल है। इन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता भी लगातार कई सालों से सलाखों के पीछे हैं। इन्हें उपनिवेशिक ढांचे की 121, 124ए आई.पी.सी जैसी काली धाराओं के साथ ही साथ 302, 307, 120बी आई.पी.सी आदि में फंसाया हुआ है।
ये सभी हनन केंद्र सरकार के बैनर तले हो रहे हैं, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा है- ‘आप्रेशन ग्रीन हंट’ उर्फ माओवाद विरोधी कार्रवाई। राज्य में तथाकथित माओवादी हरकतों को काबू में करने के नाम पर हरियाणा की कांग्रेसी सरकार गरीब व भूमिहीन तबकों और उनके देहाती इलाकों के जनसंगठनों के नेत्तृत्व को आतंकित करती रही है। इन संगठनों ने राज्य में, सरकार के खिलाफ ऐसा क्या किया था? सरकार ने इनके साथ ऐसा सलूक क्यों किया? अगर ये संगठन हकीकत में देश विरोधी हरकतों में शामिल थे तो इन संगठनों के कारनामे क्या थे? ये वो जरूरी सवाल हैं जिनके जवाब दिए जाने हैं।
के.एम.के.यू और एस.जे.एम देहाती इलाकों के दो किसान संगठन हैं, जो हरियाणा के जींद, यमुनानगर, कैथल, कुरुक्षेत्र आदि जिलों में सक्रिय थे। के.एम.के.यू की स्थापना देहाती मजदूरों व गरीब किसानों की मांगों, जैसे कि खेती की लागत के दाम बढ़ाना, किसानों द्वारा उपजाई खाद्य फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल करना, आदि पर हुई थी। सबसे खास बात थी कि के.एम.के.यू ने अपनी जून 2004 की स्थापना के तुरंत बाद ही भूमिहीन किसानों को भूमि सुधारों के लिए संगठित किया। भूमि के पुन: बंटवारे के मामले को खुद भारत सरकार ने नकार दिया था और राज्य स्तर पर विभिन्न राज्य सरकारों ने। यह मुद्दा सभी मुख्य राजनैतिक दलों के राजनैतिक एजेंडे से गायब हो रहा था। देश के भूमिहीन किसान दरिद्रता के जीवन में पिस रहे थे। देशभर में भूमि से जुड़े कई कानून होने के बावजूद, हरियाणा की आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा भूमिहीन है। सभी भूमि सुधार कानून नाम भर के हैं और सिर्फ सरकारी कागजातों में ही मौजूद हैं। ऐसे में सिर्फ के.एम.के.यू ने ही राज्य स्तर पर भूमि के पुन: बंटवारें का मसला उठाया था।
के.एम.के.यू ने न केवल खेती लायक फालतू जमीन का मसला उठाया बल्कि 1.रिहायशी प्लॉट के लिए जमीन, 2.जनवितरण प्रणाली (पी.डी.एस) से जुड़ी मांग, 3.सरकारी खेतिहर जमीन के पट्टे का मसला और भूमिहीन किसानों के व्यापक जनसमुदाय को संगठित करने का काम भी किया। जनविरोधी भ्रष्ट सरकारी अमले ने सरकारी खेतिहर भूमि का बड़ा पट्टा, जो कि दलित जातियों के लिए आरक्षित था, झूठी नीलामियों के जरिए सस्ते दामों पर बड़े जमींदारों के हाथों में सौंप दिया। के.एम.के.यू ने इस कदम के खिलाफ गरीब और भूमिहीन किसानों को संगठित किया और सरकारी जमीन की झूठी नीलामी के खिलाफ आंदोलन किया। यह आंदोलन राज्य के विभिन्न जिलों के कई गांवों में चलाया गया। इस संघर्ष ने गरीब जनता के साथ-साथ खुद सत्ताधारी वर्ग को भी जगा दिया। दमन का हालिया चक्र इसी संघर्ष के बाद शुरु हुआ।
पहले दौर में बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया। के.एम.के.यू के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक झूठे मुकदमों में फंसाए गए। वो लोग जो के.एम.के.यू को फंड, खाना, ठिकाना, और दूसरी मदद देते थे, उन्हें भी झूठे केसों में फंसाया गया, और गांव घसौ (जींद) के तकरीबन 50 लोगों को सलाखों के पीछे ठूंस दिया गया। जे.सी.एम छात्र संगठन के कुछ सदस्य जिन्होंने भूमिहीन गरीबों के आंदोलन में शिरकत की थी, उन्हें भी हरियाणा पुलिस ने योजनाबद्ध धरपकड़ों द्वारा गिरफ्तार कर झूठे मुकदमों में फंसा देशद्रोह (धारा 121, 124ए) के मुकदमे थोपे गए। जो कार्यकर्ता बच निकले, उन्हें पुलिस ने फरार घोषित कर, भूमिगत होने पर मजबूर कर दिया।
जे.सी.एम द्वारा प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल के खिलाफ मार्च, 2007 में नरवाना से चंडीगढ़ तक के साईकिल अभियान को राज्य सरकार द्वारा देशविरोधी गतिविधि घोषित कर दिया गया। अभियान को नेत्तृत्व देने वाले और उसमें शिरकत करने वाले छात्रों जिन में लड़कियां भी शामिल थीं, गिरफ्तार किया गया और उन पर केस दर्ज किए गए। उन्हें आठ-नौ महीने की विचाराधीन कैद के बाद जमानत पर छोड़ा गया। यहां तक कि जिला और सेशन कोर्ट ने छात्रों को जमानत देने से मना कर दिया। आखिर में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने उनको जमानत दी।
के.एम.के .यू ने कुरुक्षेत्र जिले के इस्माईलाबाद कस्बे में, शहरी गरीबों के लिए रिहायशी प्लॉटों की मांग को लेकर संघर्ष किया। संघर्ष करने वाले लोगों से देशद्रोही जैसा सलूक किया गया और बूढ़ों, औरतों और बच्चों समेत 15 कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह के आरोप में मुकदमे दर्ज किए गए।
साल 2008-09 में सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने की बाढ़-सी आ गई थी। के.एम.के.यू के दो लोगों राजेश कापड़ो और वेदपाल को जिला कैथल के गांव बालू से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें धारा 436, 307, 427 आई.पी.सी और 4 पी.डी.पी एक्ट 1984 के तहत फंसाया गया। ये गिरफ्तारियां अगस्त, 2008 में हुई थी।
मई, 2009 के संसदीय चुनावों के मद्देनजर, यमुनानगर जिले में एस.जे.एम ने झूठे संसदीय चुनावों को उजागर करने के लिए चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया। यमुनानगर पुलिस ने 17 अप्रैल, 2009 को बिना किसी शिकायत के खुद ही धारा 124ए, 153, आम्र्स एक्ट, एक्सप्लोसिव एक्ट के तहत छछरौली थाने में एफ.आई.आर नं. 54 दर्ज की और एस.जे.एम की एक कार्यकर्ता पूनम को गिरफ्तार कर लिया, जिसे जींद पुलिस ने भी मई, 2007 में देशद्रोह के झूठे मुकदमे में गिरफ्तार किया था पर बाद में सेशन कोर्ट ने उसे एक अन्य सह-आरोपी के साथ बरी कर दिया था। हिरासत में पूनम के झूठे कबूलनामे की बिनाह पर, करीब 8-10 देहाती नौजवानों को गिरफ्तार किया गया, और झूठे तरीके से इस मुकदमे में घसीटा गया। सभी नौजवान दलित व भूमिहीन परिवारों से थे। ज्यादातर यमुना नदी की रेत की खान में कामगार थे।
एस.जे.एम के एक मुख्य संगठनकत्र्ता सम्राट को दिनदहाड़े एक सरकारी बस से गिरफ्तार करके दो हफ्तों से भी ज्यादा गैरकानूनी हिरासत में रखा गया, और किसी भी कोर्ट में पेश नहीं किया गया। एक अन्य सत्या नामक महिला कार्यकर्ता को, पुरुष कार्यकर्ता संजय और मुकेश के साथ जिले की अलग-अलग जगहों से गिरफ्तार किया गया। ये सभी एक ही जिले और दलित व पिछड़ी जातियों से थे। पुलिस ने तकरीबन 35 कार्यकर्ताओं को हरियाणा भर से गिरफ्तार किया था। अन्य जिलों से जुड़े बहुत से कार्यकर्ताओं को भी इस केस के मद्देनजर गिरफ्तार किया गया था। यमुनानगर पुलिस ने न केवल छछरौली पुलिस थाने में दर्ज एफ.आई.आर नं. 54 की तफतीश की, बल्कि इसने अन्य जिलों के पुलिस स्टेशनों में पड़े अनसुलझे केसों की भी तफतीश की और अन्य बहुत से लोगों को गिरफ्तार कर उन्हें भी यमुनानगर के साथ-साथ उनके अपने जिलों के भी झूठे केसों में फंसाया। यमुनानगर जिला पुलिस द्वारा कैथल के कृष्ण कुमार व सहीराम और जींद के राजीव व गीता पर झूठे केस दर्ज किए गए।
इस संपूर्ण घटनाक्रम में पूरी राज्य मशीनरी शामिल रही। डॉक्टर प्रदीप के साथ सम्राट, संजय, मुकेश, सत्या, गीता और रिंकू इन सभी को गैरकानूनी तौर पर रखा गया और बुरी तरह से प्रताडि़त किया गया। लगभग सभी जिलों में, गुप्त प्रताडऩा कक्ष हैं जो उच्च अधिकारियों की नजदीकी निगरानी में सी.आई.ए पुलिस द्वारा संभाले जाते हैं। ये कक्ष, प्रताडऩा के सभी तरीकों के साजो-सामान से लैस होते हैं। सभी पीडि़तों को इन प्रताडऩा कक्षों में 15 दिनों तक रखा गया और 6 जून, 2009 को पी.यू.सी.आर (पब्लिक यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज) नामक मानव अधिकार संगठनों से जुड़े कुछ जनतांत्रिक संगठनों के कानूनी हस्तक्षेप के बाद यमुनानगर कोर्ट में पेश किया गया, क्योंकि पुलिस अत्याचार के खिलाफ पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में ये एक याचिका लेकर पहुंच गए थे। कोर्ट द्वारा कानूनी रिमांड की अनुमति मिलने पर इन्हें 15 दिन और पुलिस हिरासत में रखा गया।
समाचार है कि यमुनानगर अदालत ने सम्राट, रिंकू, पूनम, संजय और जगतार को देशद्रोह के आरोप से बरी कर दिया है पर बाकी आरोप अभी चलेंगे।
भूड़ गांव के चरण सिंह, मुकेश, मनवर और बिंटू, इन सभी को अप्रैल, 2009 के शुरुआती हफ्ते में कोर्ट में पेश करने से पहले, गिरफ्तार करके लगभग हफ्ते भर तक गैरकानूनी हिरासत में रखा गया था। इस्माईलपुर गांव के देवी दयाल, बरखा, प्रवीन, संजय, चंदन (70), प्रवीन, पोहला को हत्या के प्रयास के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया गया, हालांकि कुछ आरोपी कोर्ट द्वारा बरी कर दिए गए थे। दिनेश उर्फ बिल्ला, सुभाष और गांव मोमडीवाल के संजीव को एफ.आई.आर नं. 54 के तहत गिरफ्तार किया गया। दिनेश उर्फ बिल्ला के साथ गीता, राजेश कापड़ो, वेदपाल, सम्राट, संजीव को जींद जिले में एक अन्य हत्या के झूठे केस में फंसाया गया, जोकि नरवाना सदर थाने में 23 मई, 2008 को अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज था।
14 मई, 2009 को जींद पुलिस ने, 10/13 गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यू.ए.पी.ए) 1967, 25/54/59 आम्र्स एक्ट 120बी आई.पी.सी के तहत एक झूठी एफ.आई.आर दर्ज की और राजेश कापड़ो, वेदपाल, संजीव को एक गांव अभियान से गिरफ्तार किया। एक ग्रामीण टिल्कू को भी इनके साथ गिरफ्तार किया गया। जबकि मास्टर दिलशेर, एक उभरते हरियाणवी जनतांत्रिक गीत लेखक को वांटेड घोषित किया गया और गांव मंडी कलां (जींद) में उनके मकान पर पुलिस ने छापा मारकर गिरफ्तार किया। उन्हें सी.आई.ए पुलिस द्वारा शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया गया, और बाद में बिना किसी आरोप के बरी कर दिया। उन्हें किसी भी तरह की सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों में शिरकत करने पर, कड़े नतीजे भुगतने की धमकियां दी गई थी। और इसी गांव के देवेंद्र उर्फ काला को भी उसकी शादी के कुछ दिन पहले ही घर से गिरफ्तार कर लिया गया। वह एक देहाती मजदूर था और जे.सी.एम का भूतपूर्व कार्यकर्ता भी। उसे पहले भी 12 अन्य छात्रों के साथ देशद्रोह के झूठे आरोपों में फंसाया गया था, मगर बाद में सेशन कोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया था। लेकिन पुलिस ने उसे राजनैतिक मंशा से दोबारा गिरफ्तार किया। स्थानीय अखबारों ने उसकी बेगुनाही को उजागर करते हुए साफ तौर से बताया भी कि वह पुलिस द्वारा गैरकानूनी तरीके से उठाया गया था। उसकी 18 मई को शादी तय थी, मगर वह जींद सी.आई.ए में पुलिस रिमांड पर था। वह पांच महीने बाद घर लौटा मगर तब तक उसकी शादी टूट चुकी थी। उसने खुदकुशी करके अपनी जिंदगी का मायूसी भरा खात्मा कर लिया।
कैथल पुलिस ने जींद पुलिस के साथ तालमेल बनाकर गांव बालू में शमशेर सिंह जिसकी तीन साल पहले मौत हो चुकी थी, उसे गिरफ्तार करने के लिए छापा मारा। इसी गांव के कृष्ण कुमार को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस ने धड़ाधड़ कई छापे मारे। उसके बड़े भाई धीरज को बंदी बनाकर कृष्ण पर आत्मसमर्पण करने का दबाव बनाया गया। धीरज को भी बुरी तरह से प्रताडि़त किया गया, आखिरकार इस तरह पुलिस ने कृष्ण को गिरफ्तार कर लिया। के.एम.के.यू कार्यकर्ताओं के कुछ मोबाईल नंबर ढूंढने के लिए एक एस.टी.डी बूथ मालिक को भी पुलिस द्वारा घेरा गया। पुलिस ने उसे इतना आतंकित किया कि उसने इस घटना के बाद अपना बिजनेस ही बंद कर दिया।
लगभग तीन साल के अरसे के बाद भी पुलिस धारा 173 सी.आर.पी.सी व चार्ज शीट के तहत आखिरी तफतीश की रिर्पोट जमा नहीं करा पायी। तफतीश की यह नाकामयाबी इस सारे मुकदमे को एक अकेला झूठ साबित करती है। जबरदस्त दमन के इस मार्ग को प्रशस्त करने में मीडिया एक खास भूमिका अदा करता है। यह राजनैतिक आंदोलन से जुड़ी खबरों को सनसनीखेज बनाता है। साल 2000 से ही, बहुत सारी सनसनीखेज खबरें लगभग सभी दैनिक अखबारों में कई बार छापी गईं, कि राज्य में कुछ जनसंगठन माओवादी गतिविधियों में शामिल हैं या कुछ खास संगठन सरकार की नजर में हैं, इत्यादि। एक तरफ मीडिया पुलिस को सख्ती करने के लिए उकसाती रही, और दूसरी तरफ पुलिस ज्यादत्तियों पर गौर करने की बजाए, मुंह पर पट्टी बांधे रही। ये हालात पुलिस को जनतांत्रिक आंदोलनों का दमन करने के लिए अनुकूल माहौल देते रहे। इस घटनाक्रम पर सभी विपक्षी दल भी चुप्पी साधे रहे, और किसी भी तरह की राजनैतिक या अन्य कोई दखलंदाजी नहीं की।
कुछ पीडि़त कैद के लंबे दौर के बाद जमानत पर रिहा हो चुके हैं। पर वे राज्य और साथ ही साथ केंद्र की भी जांच एजेंसियों की लगातार निगरानी में हैं। हालिया बरी हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं पर दबाव बनाने के लिए ये जांच एजेंसियां उन्हें गैरकानूनी तरीके से गंभीर नतीजों के प्रति लगातार धमकाती रहती हैं। इसी गैरकानूनी चलन से हिसार की सी.आई.ए पुलिस ने राजेश कापड़ो को पूरे एक दिन के लिए बंधक बनाए रखा। हिसार पुलिस ने 2 फरवरी, 2012 की अल सुबह गांव कापड़ो में राजेश कापड़ो की रिहायश पर छापा मारा, उन्होंने मकान की तलाशी ली और उसे गिरफ्तार कर लिया। 2 फरवरी, 2012 की तारीख तरणजीत कौर जे.एम (आई) सी नरवाना की कोर्ट में सुनवाई के लिए तय थी, इसी दिन पुलिस ने उसे बंदी बनाया और बाद में छोड़ दिया। पुलिस जानबूझ कर उसे कोर्ट से गैरहाजिर करके कोर्ट की प्रक्रिया को बाधित करना चाहती थी, ताकि नतीजतन जमानत की शर्तों के उल्लंघन के जुर्म में कोर्ट उसके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दे।
राज्य में जगह-जगह हाई-टेक होल्डिंगों पर मोटे अक्षरों में हरियाणा सरकार की उपलब्धियों के इश्तिहार लगे हैं जो हरियाणा को खूबसूरत रंगों में ऊंची विकास दर, बढ़ती प्रति व्यक्ति आय, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विकास आदि के साथ पेश करते हैं। लेकिन इस तस्वीर का स्याह पहलू गैरहाजिर है जो राज्य के दलितों और 25 प्रतिशत भूमिहीनों के नारकीय जीवन की कथा छिपाए है।

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

ये दीवारें गिरेँगी -- राजेश कापड़ो


ये दीवारें गिरेँगी,ये पहरे हटेगेँ !
लोहे के पिँजरोँ से पंछी उड़ेँगे !!
मिटा दे चमन को या फूलों को मसले
वो गुलिस्ताँ की खुशबू मिटा ना सकेंगे !

ये जमना के धारे ये सतलुज की हलचल
वो गंगा पे पहरा लगा ना सकेंगे !

ये फाँसी के फंदे ये बिजली के हँटर
दिवानों का मस्तक झुका ना सकेंगे !

स्वर्गोँ की दुनिया मुबारक हो तुमको
ये महलों के झाँसे हिला सकेंगे !

कमेरोँ के आँगन में लाखों अँधेरा !
वो लहू के चरागे बुझा ना सकेंगे !

ये भाड़े की फौजेँ बड़े तोपखाने !
बस्तर को आँखें दिखा ना सकेंगे !

ये कुत्तों की भों-भों सियारोँ की चिं-पों !
पपीहे सी सरगम सुना ना सकेंगे !

ये दीवारें गिरेँगी ये पहरे हटेँगेँ !
लोहे के पिँजरोँ से पंछी उड़ेँगे !!

अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति

 


अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति
विशेष लेख
आतंक के खिलाफ युद्ध अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का मंत्र है. आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है…
राजेश कापड़ो
अमरीकी अर्थ व्यवस्था एक यु्द्ध–अर्थव्यवस्था है . अमरीका आज विश्व के कई हिस्सों में युद्ध में उलझा हुआ है . बराक ओबामा बेशक युद्ध विरोधी भावना जो कि अमेरिका के लगातार युद्धों में फंसे रहने के फलस्वरूप पूरे देश में उभार पर थी, पर सवार होकर सत्ता पर काबिज हुआ . अमेरीकी युद्ध विरोधी अभियान ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व भर के अमन पसंद लोगों को एक भ्रम था कि हाँ, यह कुछ कर सकता है . लेकिन अब यह भ्रम मिट चुका है ओबामा प्रशासन ने व्हाईट हाऊस पर काबिज होने के बाद न केवल अफगानिस्तान में सैनिक बलों की संख्या में बढ़ोतरी की, बल्कि किसी भी प्रकार से अफगानिस्तान में डटे रहने की शपथ भी ली.
विश्व व्यापी आर्थिक संकट से उभरने के लिये युद्ध डांवाडोल अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए प्राण वायु जैसा काम करता है . युद्ध अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिये सस्ते संसाधन तो मुहैया करवाता ही है बल्कि युद्धों के फलस्वरूप तत्काल रूप से भी फायदा पहुंचता है . इसलिए अमरीकी राज्य द्वारा जान बूझ कर हथियार उद्योग को बढ़ावा दिया जा रहा है . अपने अधीनस्थ राज्यों को दबाव में लेकर हथियार बेच रहा है . यह सब कुछ अधीनस्थ राज्यों में सत्ता पर काबिज सरकारें अपने अपने सैन्य बलों के हथियारों की अपडेटिंग और अपग्रेडिंग के नाम पर कर रही हैं .
तथाकथित आतंक के खिलाफ युद्ध भी अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का ही मंत्र है . यह दुनिया भर में सैन्य रूप से अमरीकी आधिपत्य को तो जायज ठहराता ही है, साथ ही अमरीकी हथियार निर्माताओं के लिए बाजार भी पैदा करके देता हैँ . आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है . पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों को इस श्रेणी से सहायता प्रदान की जाती रही है . युद्धक सामान बनाने वाली कम्पनियों ने अमरीकी राज्यतंत्र पर कब्जा कर लिया है, इसलिये दुनिया भर में युद्ध होते रहे हैं .
यह अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है . यह सब आतंकवाद से लडऩे के नाम पर किया जा रहा है . शांति कायम करने के नाम पर किया जा रहा है . विश्वभर में अमरीकियों को और ज्यादा सुरक्षित करने के नाम पर किया जा रहा है . अमेरिका ने 2010 में विश्व के समुचे हथियार बाजार पर अधिपत्य जमा लिया . अमेरिका की कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की परम्परागत हथियारों की रिपोर्ट पर गौर करें तो 2011 में अमेरिकी सरकार द्वारा 21.3 बिलियन के हथियार बेचने के ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए गए हैं . 2009 में ऑर्डर हस्ताक्षर करने में कुछ कमी आई थी, लेकिन 2011 में इसमें जबरदस्त बढ़ोतरी हुई . 2009 में देखा जाए तो कुल विश्व शस्त्र बाजार में अमेरिका का हिस्सा 35 प्रतिशत था जो कि 2010 में 53 प्रतिशत हो गया .
अमेरिकी कम्पनियों ने 2010 में 12 बिलियन डालर के हथियारों की वास्तविक आपूर्ति की और लगातार आठ वर्षों से अमेरिका इस मामले की अग्रणी है . हथियारों की होड़ लगी हुई है . विभिन्न हथियार निर्यातक देश इस होड़ को अपने बाजार के स्वार्थों के वशीभूत होकर बढ़ावा दे रहे हैं . मान लीजिये अमरीका ने भारत को एक उच्च किस्म का सैन्य सामान बेचा तो वह इसके साथ ही पाकिस्तान को भी आश्वस्त कर रहा है कि इसको टक्कर देने के लिये फलां किस्म का हथियार उसे भी बेचा जा सकता है . वास्तव में अमेरीकन अर्थव्यवस्था का उदय ही एक युद्ध अर्थतंत्र के रूप में हुआ था . दोनों बदनाम विश्व युद्धों के दौरान अमरीका हथियार उत्पादक राज्य के रूप में उदित हुआ, जिसकी समृद्धि युद्ध में हैं शांंति में नहीें . आज भी इसका वही चरित्र बना हुआ है .
रशियास् सैंटर फॉर एनालीसिस ऑफ वर्ल्ड आर्म ट्रेड की अगस्त 2012 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व का सैन्य साजोसामान का निर्यात 69.84 बिलियन डालर पर पहुंच चुका है, जोकि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के अपने उच्चत्तम स्तर पर है . पिछले एक वर्ष में ही इसमें 3.84 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है . 2011 में यह 67.26 बिलियन डालर था जो कि 2010 के 56.22 बिलियन डालर से 20 प्रतिशत ज्यादा है . पूरे विश्व को हथियारों से ढक देने का यह क्रूर अभियान ऐसे समय चल रहा है जबकि दुनिया भर में कुपोषित बच्चों की संख्या 10 करोड़ पहुँच गई है .
कांगो, सोमालिया और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा अकेले भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादी–शुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
कांगो, सोमालिया और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा अकेले भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादीशुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका के घटनाक्रमों को भी अमरीकी युद्ध अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखकर ही समझना चाहिये . इस क्षेत्र में दिसम्बर 2011 के बाद आए जन उभार अमरीकी सैन्य साजोसामान बनाने वाली कम्पनियों के लिये बाजार मुहैया करवा रहे हैं . बहरीन, टयूनिशिया, मिश्र, यमन आदि देशों की सरकारों को यह कम्पनियाँ भीड़ नियन्त्रण के साजोसमान जैसे प्लास्टिक की गोलियाँ, आँसू गैस के गोले आदि बेच रही हैं . मानवाधिकारों को पैरों तले रौंदने वाले तानाशाह शासनों की खुली मदद कर रही हैं . सऊदी अरब ने वर्ष 2010 में 60 अरब डालर में अमरीका निर्मित एयरकाफ्रट की खरीद को सिद्धाँत रूप से हरी झण्डी दिखा दी है . जो तानाशाह अमरीका या पश्चिम के हितों से मोल भाव करने में तालमेल नहीं बिठाते हैं, उन्हें लोक तन्त्र स्थापित करने के नाम हटाना अमरीकी राज्य का कोई नया हथकण्डा नहीं है.
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं लोकतंत्र’ की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .
इस कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि 2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल 3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष 2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है . उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं . अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए . 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31 प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार किए .
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं लोकतंत्र’ की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .
इस कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि 2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल 3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष 2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है . उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं . अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए . 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31 प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार किए .
इटली, फ्रांस, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोपीय शस्त्र निर्माताओं ने 2009–10 में विकासशील देशों के साथ ऐसे क्रमश: 24 प्रतिशत और 13 प्रतिशत आर्डर प्राप्त किए . हथियार खरीद के समझौतों के कुल मूल्य के मामले मे 2003–2006 के काल में रूस ने अमरीका को पीछे छोड़ दिया था लेकिन 2007–2010 की अवधि में अमरीका ने फिर ओवरटेक कर लिया है . पिछले आठ वर्ष से अमेरिका और रूस दोनों ही विकासशील देशों का हथियार निर्यात करने वाले प्रमुख देश रहे हैं .
पिछले आठ वर्षों में विभिन्न हथियार निर्यातक राज्यों द्वारा विकासशील देशों को बेचे गए कुल हथियारों के मूल्य पर गौर करें तो अमरीका पहली पंक्ति था. इन आठ वर्षों में अमरीका ने विकासशील देशों को कुल 60 अरब डालर के हथियार बेचे . रूस ने 38 अरब डालर तो, ब्रिटेन ने 19 अरब डालर के हथियारों की बिक्री की . फ्रांस ने 12.13 अरब डालर, चीन ने 11 अरब डालर, जर्मनी ने 6 अरब डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे . इजराईल ने 3.5 अबर डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे .
एशियाई बाजारों में भी अमरीकी दखल बढ़ा है . 2003–2006 के काल में अमरीका द्वारा ऐशियाई देशों के साथ कुल मूल्य के 17 प्रतिशत ऑर्डर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2007 से 2010 के काल में 26 प्रतिशत तक बढ़ गये . इसी चर्चित अवधि मे रूस का हिस्सा 2003 से 2006 के दौरान 36 फीसदी, और 2007 से 2010 के बीच में 30 फीसदी रहा . निकटवर्ती पूर्वी देशों के साथ अमेरिका ने 2003–2006 में कुल हस्ताक्षर किए गए मूल्य के 33 फीसदी आर्डर हस्ताक्षर किए और 2007–2010 के काल में यह आश्चर्यजनक रूप से 57 प्रतिशत तक बढ़ गया .
भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयात करने वाला देश बन गया है . भारत की हथियार आयात के विस्तार की योजनाओं पर नजर डाले तों यह अगले दस वर्ष में 100 अरब डालर पार करने वाला है . विभिन्न अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियां जेसै बोईंग आदि इस विशाल सैन्य बजट से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने के लिए मचल रही हैं . भारत की योजना अगले पांच वर्ष में सैन्य साजोसामान पर 55 अरब डालर खर्च करने की है .
भारत के साथ 1.4 अरब डालर की लागत वाले 22 हमलावर हेलीकॉप्टर के सौदा करने के मामले में अमरीका ने रूस को पछाड़ दिया है . अमरीकी कम्पनी बोइंग के साथ यह करार भारत सरकार ने कर लिया है . रूस ने भारत के सामने एम आई–26 बेचने का प्रस्ताव रखा है, तो अमरीका बदले में सी एच–47 शिनूक का प्रस्ताव रख रहा है . रूस भारत को भारी वजन लेकर उडने वाले 15 हेलीकॉप्टर बेचने के मामले में अमरीका से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है . स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2007–2010 के काल में 80 फीसदी हथियार, जोकि 207 अरब डालर के मूल्य के हैं, रूस से खरीदे हैं .
यूपीए गठबंधन सरकार ने वर्ष 2012–13 के अपने रक्षा बजट में 17.63 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है . इस वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 193407.29 करोड़ रूपये सैन्य बजट के लिये आबंटित किये हैं . वित्त वर्ष 2009–10 में भी रक्षा बजट में 34 प्रतिशत की बेतहाशा बढ़ोतरी भारत सरकार कर चुकी है . अमरीकी कम्पनी बोईंग अपने पहले दस सी–17 ग्लोब मास्टर–111 जून, 2013 में भारत को बेचेगी . इनकी खरीद का ऑर्डर 2011 में दिया जा चुका है .
भारत अमरीका से 4.1 अरब डालर यानि 22,960 करोड रूपये की लागत वाली यूएस एयर फोर्स वर्कशाप खरीदना चाहता है . इसका उपयोग अमरीकी सैन्य बलों द्वारा इराक एवं अफगानिस्तान में व्यापक रूप से किया गया था . अब तक का यह सबसे बड़ा रक्षा समझौता दोनों सरकारों के बीच होना है . 2011 में ही भारत सरकार ने अमरीका से हवा एवं पानी में एक साथ काम करने वाले ट्राँस्पोर्ट वैसल 50 मिलियन डालर मूल्य में खरीदा है . साथ ही इसके साथ काम करने वाले 6 यूएच–3 एच हेलीकॉप्टर भी खरीदे हैं, जिनकी कीमत 49 मिलियन डालर आँकी गई है .
इसके अलावा 200 मिलियन मूल्य की पनडूब्बी विरोधी हारपीन मिज़ाइलें और सी–130 लम्बी दूरी की एकाऊस्टिक डिवाईसिस व अन्य रक्षा साजोसामान, जिनका मूल्य 2.1 मिलियन डालर है, अमरीका से खरीदा गया है . अमरीकी शासक वर्गों की पैदाईश –आतंकवाद के खिलाफ युद्ध– ओर कुछ नहीं, बल्कि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों के लिए बाजार मुहैया करवाने का मन्त्र है . भारत के शासक वर्ग सहित सभी एशिया, अफ्रीका महाद्वीप के दलाल शासक भी अमरीका के सुर में सुर मिलाकर यही जाप कर रहे हैं .
भारत चीन सीमा पर संभावित खतरों के नाम पर भारत के शासक वर्ग सैन्य तैयारी बढ़ा रहे हैं . बढ़ते हुए सैन्य खर्चों को विदेशी आक्रमण का भय दिखा कर जनता के एक हिस्से खासकर मध्यम वर्गों को अपने पक्ष में करने का यह एक शासक वर्गीय हथकंडा है, जिस पर बाकायदा राष्ट्रवाद का रंग चढ़ा हुआ है जोकि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है .