मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

राष्ट्रवादी क्लॉज152 औपनिवेशिक धारा 124ए से ज्यादा खतरनाक है।

 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 में सब कुछ है जो औपनिवेसिक आईपीसी में था।

राजेश कापड़ो

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) 2023 में राजद्रोह को देशद्रोह के नाम से दोबारा परिभाषित किया गया है। बीएनएस की क्लॉज 152 कहीं ज्यादा खतरनाक है। इसके अलावा ‘राज्य के खिलाफ अपराध अध्याय में जो भी अपराध आईपीसी में वर्णित थे, वे सारे के सारे हूबहू बिना किसी बदलाव के बीएनएस में भी हैं। कार्यपालिका को मनमर्जी करने की छूट देने के मकसद से औपनिवेसिक कानूनों की भांति, बीएनएस में भी जानबूझ कर अस्पष्ट भाषा का उपयोग किया गया है ताकि जांच ऐजेंसियां मनमर्जी से उनकी व्याख्या कर सके।

बीएनएस की क्लॉज 152 पर चर्चा करने से पहले राजद्रोह के मामले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन याचिका SG Vombatkere  versus Union of India पर थोड़ी बात करना प्रासंगिक होगा। इसमें विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से आईपीसी की धारा 124ए यानि राजद्रोह को चुनौती देते हुये इसकी संवेधानिकता की पड़ताल करने की मांग माननीय सुप्रीम कोर्ट से की गई थी। इसकी सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने अपने हल्फनामे में सर्वोच्च अदालत को बताया कि वह भी धारा 124ए पर पुर्नविचार कर रही है तथा एक बार भारत सरकार इस पर पुर्नविचार करने के पश्चात अदालत इसकी संवेधानिकता की पड़ताल कर सकती है। इस प्रकार जब तक सरकार इस पर विचार करे सुप्रीम कोर्ट को राजद्रोह का इस्तेमाल करना अनुचित लगा और अदालत ने दिनांक 11 मई 2022 को अपने एक अंतरिम आदेश के माध्यम से आईपीसी की धारा 124ए के तहत एफआईआर दर्ज करने व कोई सख्त कारवाई अमल में लाने पर अंतरिम रोक लगा दी तथा धारा 124ए के तहत सभी लंबित कारवाईयों को भी रोकने के लिये आदेश कर दिया।

जैसाकि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हल्फनामा देकर कहा कि राजद्रोह को हटाने के पक्ष में है। संसद में गृहमंत्री ने पुराने कानूनों को औपनिवेसिक विरासत बताते हुये अतीत की सरकारों की आलोचना की कि आजादी के 75 साल बाद भी ये कानून क्यों नहीं हटाये गये। भाजपा सरकार की इस उपलब्धी को ऐतिहासिक कहते हुये उन्होंने कहा कि नरेन्द्र मोदी भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को 19वीं सदी से सीधा 21वीं सदी में छलांग लगवा रहे हैं। लेकिन आंकड़े तो बताते हैं कि राजद्रोह की धारा 124ए मोदी सरकार को बहुत प्रिय है। वर्ष 2010 से धारा 124ए के तहत कुल 13000 नागरिकों के खिलाफ कुल 800 अभियोग दर्ज किये गये। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिर्पोट क्राइम इन इंडिया 2020 में बताया गया है कि वर्ष 2018, 2019 व 2020 में धारा 124ए के तहत क्रमशः 70, 93 व 73 अभियोग दर्ज किये। 2021 में भी 76 मुकदमें दर्ज हुये जबकि 124ए की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी चुकी थी।

लेकिन इनमें सजा की दर बेहद कम है। वर्ष 2014 में राजद्रोह के 47 मुकदमों में से केवल एक मुकदमें में सजा हुई। 2015 में कुल 30 केसों में से किसी में भी सजा नहीं हो सकी। 2016 में 35 में से केवल एक मुकदमें में सजा हुई। 2017 में 51 में से केवल एक में सजा हुई। 2018 में 70 में से एक में सजा हुई।  2019 में दर्ज कुल 93 केसों में से केवल एक केस में सजा हुई। इसका अर्थ है कि सरकार राजद्रोह का गलत इस्तेमाल करती है व बिना किसी ठोस आधार के केवल नागरिक अधिकारों पर हमला करने के लिये एफआईआर दर्ज की जाती है।

सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम आदेश के बावजुद भी मोदी सरकार राजद्रोह का इस्तेमाल कर रही है। कैथल पुलिस ने सितंबर 2022 में एक दलित शिक्षक सुरेश द्राविड़ के खिलाफ धारा 124ए में एफआईआर दर्ज की। सुरेश द्राविड़ ने हरियाणा सरकार की गलत शिक्षा नीतियों की आलोचना करते हुये भाषण दिया था।

हालांकि मोदी सरकार दावे करती है कि राजद्रोह की औपनिवेसिक धारा को उसने कानून से हटा दिया है। लेकिन बीएनएस की धारा 152 में वे सारे प्रावधान है जो मतभेद की आवाज को दबाने के लिये सत्ताधारियों को चाहिये। क्लॉज 152 में इस्तेमाल की गई भाषा भी अस्पष्ट है जिसका जांच ऐजेंसियां कुछ भी अर्थ निकाल सकती है। संहिता में भारत की जिस संप्रभुता, एकता व अखंडता को खतरे में डालने को दंडनीय अपराध बनाया गया है। क्लॉज में प्रयुक्त इन शब्दों की कोई व्याख्या संहिता नहीं बताती। क्लॉज में इस्तेमाल ‘विघटनकारी गतिविधि व ‘अलगाव को बढ़ावा देने जैसे वाक्यांश भी अस्पष्ट हैं जिनका इच्छानुसार अर्थ निकाला जा सकता है। औानिवेसिक आईपीसी की धारा 124ए में ‘भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार लिखा गया था। जबकि बीएनएस में उसको हटाकर भारत कर दिया है। बाकि सब कुछ ज्यों का त्यों है। राजद्रोह में भारत सरकार के खिलाफ असंतुष्टि को दंडनीय बनाया गया थां हालांकि नयी संहिता की क्लॉज में सीधे सीधे सरकार शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। लेकिन इस क्लॉज की अनिश्चित व अस्पष्ट शब्दावली सरकार विरोधी भाव की अभिव्यक्ति  करने के लिये पर्याप्त है। सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाली किसी भी कारवाई को ‘विघटनकारी ठहराया जा सकता है। यह जांच ऐजेंसी के हाथ में रहेगा कि कोई अपराध क्लॉज 152 में आता है या नहीं। औपरिवेसिक धारा 124ए में इस अपराध के लिये कम से कम सजा तीन वर्ष का कारावास थी, उसको संहिता की क्लॉज 152 में बढ़ाकर सात वर्ष कर दिया है।

भारतीय न्याय संहिता में केवल राजद्रोह का नवीनीकरण ही नहीं किया बल्कि नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुतरने वाले अनेक औपनिवेसिक धारायें जैसे धर्म व धार्मिक भावना का अपमान करना व मानहानि आदि भी सुरक्षित रख ली है। नई संहिता में ये 296, 297 व 354 क्लॉज के रूप में हैं। बल्कि नई संहिता में 153बी आईपीसी के सारे प्रावधान अतिरिक्त उपबंधों सहित क्लॉज 197 में आ गये हैं। यह क्लॉज अभिव्यक्ति के उन सभी रूपों को दंडित करती है जो राष्ट्रीय एकता के लिये खतरा हो या साम्प्रदायिक सद्भाव को हानि पंहुचाने वाले हो। गुमराह करने वाली सूचना प्रसारित या प्रकाशित करना बीएनएस में दंडनीय अपराध है। लेकिन कोई सी सूचना अफवाह फैलाने वाली है, इसका निर्णय करना कार्यपालिका के हाथ में है। संप्रभुता, एकता, अखंडता और अक्षुण्ता आदि अपरिभाषित शब्दों की कब और क्या व्याख्या करनी है, यह सरकार के अधिकार क्षेत्र में रहने वाला है।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की भूमिका में कहा गया है कि आतंकवादी कृत्य को एक नये अपराध के रूप में शामिल किया गया है। नयी संहिता बीएनएस में आतंकवादी कृत्य (Terririst Act)  को परिभाषित किया गया है। इसमें भी वही शब्द एवं वाक्यांश प्रयुक्त किये गये है जिसका पहले जिक्र किया जा चुका है। बल्कि संहिता की क्लॉज 113 को कुख्यात युएपीए की धारा 15(1)(सी) से ज्यों का त्यों ले लिया गया है। क्लॉज 113 के अंत में एक व्याख्या जोड़ी गयी है- ‘एक पुलिस अधीक्षक स्तर का पुलिस अधिकारी यह निर्णय करने में सक्षम होगा कि इस क्लॉज के तहत एफआईआर दर्ज करनी है या युएपीए के तहत। बीएनएस की क्लॉज 113 में आतंकी कृत्य को इस प्रकार से परिभाषित करता है- whoever…..detains, kidnaps or abducts any person and threatening to kill or injure such person or does any other act in order to compel the Government of India, any State Government or the Government of a foreign country or an international or inter-governmental organization or any other person to do or abstain from doing any act….commits a terrorist act”.  इस परिभाषा में आंतकवादी गतिविधि का घेरा इतना व्यापक कर दिया है जिसमे ‘any other act’ भी शामिल है। इसके अनुसार कोई राज्य या केन्द्र सरकार या कोई विदेशी सरकार या संगठन या any other person भी इसका निशाना हो सकता है। ऐसे में तो राजसत्ता अपनी मर्जी से किसी को भी इसका शिकार बना सकती है। हाल ही संसद भवन में अनाधिकृत प्रवेश करके मंहगाई, बेरोजगारी आदि विषयों पर सरकार के प्रति रोष प्रकट करने वाले युवकों की कारवाई को आतंकवादी कृत्य बताकर उनके खिलाफ कुख्यात यूएपीए में मुकदमा दर्ज करना इसका ज्वलंत उदाहरण है कि सरकार इन काले कानूनों का उपयोग मतभेद की आवाज को दबाने व नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के लिये करने वाली है।

यूएपीए जैसे काले कानून की धाराओं को सामान्य कानून का हिस्सा बनाना कोई आम परिघटना नहीं है। इसको बहुत ही गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। क्योंकि यूएपीए जैसे कठोर कानून में अभियोग चलाने की अपनी एक अलग व्यवस्था है। इसमें पुलिस को आम कानून से ज्यादा अधिकार दिये गये हैं। इसके लिये विशेष अदालतों व अलग से निगरानी समितियों की व्यवस्था की गई है। केन्द्रीय गृह मंत्रलय की अनुमति के बैगर इसके तहत अभियोग नहीं चलाया जा सकता।   बीएनएस का हिस्सा बनाने से जमीनी स्तर पर इसका दुरूपयोग बढ़ेगा। क्योंकि बीएनएस में इस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा।

औपनिवेसिक धारा 124ए की तरह यूएपीए में भी सजा की दर बहुत कम है। मानवाधिकार संस्था पीयुसीएल के एक अध्ययन से यह पता चलता है कि इस यूएपीए में सजा होने की दर 2-8 प्रतिशत से भी कम है। यदि इन सजाओं के खिलाफ ऊपर की अदालतों में अपील के आंकड़े पता चले तो यह संख्या और भी कम रह जायेगी। एनसीआरबी के आंकडों के अनुसार वर्ष 2022 में यूएपीए के केसों में 41 व्यक्तियों को अदातल ने सजा की, 172 बरी किये गये व 15 लोगों को डिस्चार्ज किया गया। लेकिन इतनी कम दोषसिद्धि दर के बावजूद यूएपीए के तहत एफआईआर बड़ी संख्या में दर्ज हो रही हैं। एनसीआरबी के आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2022 में यूएपीए में कुल 1007 नये मुकदमें दर्ज किये गये। गृहमंत्री ने संसद में कहा है कि इन कानूनों से आतंकवादियों के अलावा किसी को डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन अब तक का सरकारों का व्यवहार तो कुछ अलग ही तस्वीर पेश करता है। इसके तहत पत्रकारों, सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया है। कुख्यात भीमा कोरेगांव षड़यंत्र केस इसका उदाहरण है जिसमें देश की नामी हस्तियां पांच वर्षो से जेल में बंद मुकदमा शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें कई को जमानत पर रिहा करते हुये अदालतों ने टिप्पणियां की है कि इनके आतंकवादी कृत्य में शामिल पाये जाने के पक्ष में कोई सबूत नहीं है।

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में आज भी फांसी जैसी प्रतिशोधात्मक सजाओं का प्रावधान है। इसमें एकांत कारावास जैसी सजाऐं हैं। इस किस्म की निकृष्ट सजाओं को दुनिया के बहुत से देशों ने बहुत पहले अपने सजा विधानों से बाहर कर दिया है।

 

मोदी सरकार के तीन कानून

 

आपराधिक न्याय प्रणाली का फासीवादीकरण   :राजेश कापड़ो

मोदी सरकार ने संसद के शीतकालीन स्तर में तीन नये कानून पारित किये हैं। इनके नाम हैं- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता व भारतीय साक्ष्य अधिनियम। ये तीनों कानून अब Indian Penal Code 1860, Criminal Procedure Code 1973 व  Indian Evidence Act, 1872 का स्थान लेंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने इन कानूनों का मसौदा सदन में पेश करते हुये बताया कि ये तीनों कानून भारत की 150 साल पुरानी आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूलचूल बदलाव लाने वाले हैं। पूराने कानून एक विदेशी शासक ने अपने शासन को जारी रखने के लिये बनाये थे। वे एक गुलाम प्रजा पर शासन करने के लिये बनाये हुये कानून थे। अंग्रेजों के जमाने की आईपीसी का उद्देश्य दंड देना था जबकि भारतीय न्याय संहिता का उद्देश्य न्याय प्रदान करना होगा। नये कानून भारत के संविधान में वर्णित - व्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार तथा सबके साथ समान व्यवहार- के सिद्धांतों के आधार पर बनाये गये हैं। अमित शाह ने सदन को बताया कि पुराने कानूनों में आजादी के 75 साल बाद भी युनाइटिड किंगडम की संसद द्वारा पारित, क्राउन के प्रतिनिधि का सम्मान, लंदन गज़ट, ज्यूरी, लाहौर कॉर्ट, युनाइटिड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, कॉमन वेल्थ, हरमेजेस्टि, हरमेजेस्टि सरकार, ब्रिटिश क्राउन, इंग्लेंड के न्यायलय व हरमेजेस्टि रोमिनियन व बेरिस्टर आदि औपनिवेसिक शब्द एवं वाक्यांश भरे पड़े हैं। नये कानून मूल भारतीय चिंतन पर आधारित है व भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली से औपनिवेसिक निशानियों का अंत करते हैं।

गृहमंत्री भले ही कुछ भी दावे करें, लेकिन संसद द्वारा पारित उपरोक्त तीनों कानूनों को देखने से पता चलता है कि इनमें बहुमत यानि 80 प्रतिशत से ज्यादा धारायें वही हैं जो पुराने ‘औपनिवेसिक कानूनों में भी थी, मोदी सरकार ने इनका केवल पदानुक्रम बदला है। उदाहरण के लिये आईपीसी में मानव हत्या करने के अपराध की सजा धारा 302 में बताई गई थी, जबकि भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में यह  क्लॉज 101 में प्रदत है। मोदी सरकार ने तीनों कानूनों का सारा का सारा पदानुक्रम बदल डाला है। सीआरपीसी की जगह लेनी वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की बात करें तो उसमें मुश्किल से पांच प्रतिशत ही नया है। असल में कथित भारतीय चिंतन पर आधारित इन कानूनों की अर्न्तवस्तु ज्यों की त्यों है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मोदी सरकार ने इनको औपनिवेसिक काल से भी ज्यादा खुंखार बना दिया है। इन कानूनों का नामकरण जरूर हिंदी में किया गया है, बाकि इनका मूलपाठ अभी भी अंग्रेजी में ही है। हम यहां केवल नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 व भारतीय न्याय संहिंता, 2023 में शामिल किये गये कुछ नये प्रावधानों व अवधारणाओं पर चर्चा करेंगे।

यह सही है कि भारत की जनता पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से ही ब्रिटिश काल में आईपीसी, पुलिस एक्ट सहित तमाम अपराधिक न्याय प्रणाली को सुदृढ़ व संचालित करने वाले कानून लाये गये। 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद भी उन कानूनों को लागू रहने दिया। भारत के संविधान में भी इन औपनिवेसिक कानूनों को संरक्षण दिया गया है, जहां तक ऐसे कानून संविधान द्वारा प्रदत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते। अंग्रेजों द्वारा अपने शासन को मजबूत करने के लिये बनाये गये कानून निश्चित एवं स्वाभाविक रूप से ज्यादा खुंखार होने चाहिये और वे ऐसे ही थे। जैसाकि आजादी आंदोलन के हमारे नेताओं ने उन कानूनों को काले कानून का नाम दिया था। मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर लाये गये उपरोक्त तीनों कानून क्या अंग्रेजों से भी ज्यादा कठोर हैं? क्या लोकतंत्र का पुलिस तंत्र एक औपनिवेसिक पुलिस तंत्र से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है? लेकिन मोदी सरकार द्वारा पास किये मौजुदा तीनों कानून औपनिवेसिक काल के कानूनों से ज्यादा कठोर हैं। जिनमें मानवाधिकारों के लिये बिल्कूल भी स्थान नहीं दिया गया है बल्कि एक पुलिस राज्य कायम करने के उद्देश्य से ये कानून लाये गये हैं।

औपनिवेसिक बनाम राष्ट्रवादीः

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) अब अपराध प्रक्रिया संहिता 1973 का स्थान लेगा। भारत की क्रिमिनल कोर्ट और पुलिस तंत्र अब बीएनएसएस से संचालित होंगे। यहां औपनिवेसिक सीआरपीसी व स्वदेशी बीएनएसएस के कुछेक प्रावधानों को देखना मजेदार होगा। अंत में, यह पाठक ही तय करें कि किस कानून में नागरिक अधिकारों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा महत्व दिया गया है। इस स्पष्टीकरण के साथ कि उपनिवेशवाद में मानवाधिकारों के लिये कोई स्थान नहीं होता और उपनिवेशवाद का समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता।

औपनिवेसिक कानून अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी, 1973) में किसी भी अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता था। सीआरपीसी की धारा 167 (2) का सार है कि मजिस्टेट अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा पुलिस रिमांड पर नहीं दे सकता। वह अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा के लिये केवल न्यायिक हिरासत में रखने के लिये सक्षम है। इस संदर्भ में, किसी भी प्रकार की अस्पष्टता से बचने के लिये सीआरपीसी में otherwise than in the custody of the police' वाक्यांश का इस्तेमाल किया गया है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएनएस) की धारा 187(2)(3) में अभियुक्त की पुलिस रिमांड की अवधि को 90 दिन तक बढ़ा दिया है। इस धारा से otherwise than in the custody of the police' वाक्यांश को सोच समझ कर हटा लिया गया है। जिसका अर्थ है कि अब अभियुक्त को ज्यादा से ज्यादा 90 दिन बाद तक पुलिस रिमांड पर दिया जा सकता है। दूसरा, सीआरपीसी में जब किसी अभियुक्त को एक बार न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया जाता था तो उसको उसी मुकदमें में पुलिस दोबारा रिमांड पर नहीं ले सकते थी। सीबीआई बनाम अनुपम जे कुलकर्णी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पहले के 15 दिन समाप्त हो जाने के बाद और ज्यादा समय के लिये रिमांड केवल न्यायिक हिरासत ही हो सकता है। चाहे बाद में जांच के दौरान उसी घटनाक्रम में कितने भी गंभीर अपराध कारित करने का पता चलता हो। सुप्रीम कोर्ट के मार्गदर्शन को नकारते हुये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता अभियुक्त को न्यायिक हिरासत से पुनः पुलिस रिमांड पर देने का प्रावधान करती है। इसके अलावा, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 172(2) में पुलिस को किसी व्यक्ति को निवारक हिरासत में रखने की शक्ति प्रदान करती है। यह भी मजेदार है कि निवारक हिरासत में रखे गये व्यक्ति को किसी मजिस्टेट के समक्ष प्रस्तुत करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। सीआरपीसी में अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने का कोई लिखित प्रावधान नहीं था। हालांकि उसके बावजुद भी पुलिस अभियुक्तों को न केवल हथकड़ी पहनाती थी, बल्कि उनको हथकड़ी पहनाकर सरेआम पब्लिक में घुमाती भी थी। पुलिस न्यायालय की पूर्व अनुमति से ही अभियुक्त को हथकड़ी पहना सकती थी। नयी संहिता बीएनएनएस की धारा 43(3) में अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने का लिखित प्रावधान कर दिया गया है। अब कोई हथकड़ी पहनाने का विरोध भी नहीं कर सकता।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता, कोलिन गोन्सॉल्विस ने बताया कि बीएनएसएस में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी डीके बसु केस की गाईडलाइनों को खत्म कर दिया है। डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि गिरफ्तारी की सुरत में, इंटेरोगेट करने वाले अधिकारी की पहचान रजिस्ट्रर में दर्ज होनी चाहिये। गिरफ्तारी मीमों पर गिरफ्रतारी की समय व स्थान अंकित होना चाहिये। पुलिस अभिरक्षा के दौरान किसी चोट आदि के संदर्भ में, गिरफ्तार व्यक्ति का मेडिकल निरीक्षण होना चाहिये। एक जमा तलाशी मीमो तैयार किया जाना जरूरी है जिस पर गिरफ्रतार व्यक्ति व पुलिस के हस्ताक्षर हो। ये बहुत ही महत्वपूर्ण आदेश था, जिसका नागरिक सुरक्षा संहिता में उपरोक्त गाईडलाईनों का नजरअंदाज किया गया है। यह नागरिक अधिकारों की घनघोर अवहेलना है।

मोदी सरकार ऐसा क्यों कर रही है? अभियुक्तों को गैर कानूनी पुलिस हिरासत में रखकर यातनायें देना भारत में आम बात है। छोटे से छोटे मुकदमें में भी अभियुक्त को गैर कानूनी पुलिस हिरासत में रखना पुलिस अपना अधिकार समझती है। पुलिस के इस निरंकुश चरित्र के उजागर होने के बाद ही सर्वोच्च अदालत ने उपरोक्त मार्गदर्शन जारी किये थे। भारत की पुलिस भी औपनिवेसिक कानून से संचालित होती है। देश में पुलिस सुधारों की मांगें बार-बार उठती रहती है। किसी भी दल की सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। पुलिस व्यवस्था में सुधार की बजाय, पुलिस रिमांड की अवधि 90 दिन तक बढ़ाकर मोदी सरकार ने पुलिस के गैर कानूनी कृत्यों कानूनी बना दिया है।                

पुलिस को असिमित शक्तियां देने के मकसद से ही उपरोक्त कथित राष्ट्रीय कानून लाये गये हैं। अब पुलिस को कानून का अतिक्रमण करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब सब कुछ कानून के दायरे में होगा। मोदी सरकार ने भारत के पहले से ही निरंकुश पुलिस तंत्र की मन की मुराद पूरी कर दी है। यह नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात है।

पुलिस हिरासत में अभियुक्त की मृत्यु कारित करने के मामले में भी भारत की दशा चिंता जनक है। पिछले पांच वर्षों में पुलिस हिरासत में मौत के सबसे ज्यादा 75 केस गुजरात में सामने आयें हैं, इसके बाद महाराष्ट्र में 76, यूपी में 46, तमिलनाडू में 40 व बिहार में 38 मौतें पुलिस हिरासत में हुई हैं। उपरोक्त आंकड़े भारत सरकार के मंत्री ने राज्य सभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब का देते हुये संसद में रखे थे। उन्होंने बताया कि भारत में साल 2017-18 में कुल 146 मौतें पुलिस हिरासत में हुई। यह आंकड़े साल 2018-19 में 136, साल 2020-21 में 175 पर रही। इनके लिये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पीड़ितों को दिया गया मुआवजा करोड़ों में है।

पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट में अधिवक्ता विपिन कुमार का मानना है कि पुलिस रिमांड की अवधि 90 दिन तक बढ़ा देने से अभियुक्त की जमानत की संभावना लगभग समाप्त हो जाऐंगी और अधुरी जांच का बहाना बनाकर पुलिस अभियुक्त की जमानत नहीं होने देगी। परिणामस्वरूप पहले से ही 130 प्रतिशत से भी ज्यादा ओवरलोडेड जेलें और ज्यादा भरने वाली हैं।

औपनिवेसिक कानून सीआरपीसी में किसी भी संज्ञेय अपराध घटित होने की सूचना प्राप्त होने पर पुलिस थाने में उस बाबत एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य था। इसके लिये किसी प्रारम्भिक जांच की जरूरत नहीं थी। उसके बावजूद भी आम आदमी के लिये थाने में एफआईआर दर्ज करवाना बहुत ही कठिन काम था। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी बनाम स्टेट ऑफ यूपी में एक संज्ञेय अपराध के बारे में बिना प्रारम्भिक जांच के ही एफआईआर दर्ज करने की बहुत ही स्पष्ट गाईडलाइन जारी की थी। लेकिन ललिता कुमारी केस की गाईडलाइनों के विपरित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 173(3) में पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारम्भिक जांच करने की शक्ति प्रदान की गई है। ऐसा करने से पुलिस थाने में किसी संज्ञेय अपराध की एफआईआर दर्ज करवाना बहुत कठिन हो जायेगा। प्रभावशाली आरोपियों को कानून के शिकंजे से बचाने के लिये पुलिस इस शक्ति का निश्चित तौर पर दुरूपयोग करेगी।

बीएनएसएस की धारा 193 पुलिस के जांच अधिकारी को पहली बार बिना अदालत के आदेश आगामी जांच करने की अनुमति प्रदान करती है। अब अभियोजन पक्ष अतिरिक्त चलान प्रस्तुत लाकर लंबित अभियोग के दौरान ही जांच की कमियों को दुरूस्त कर सकेगा।

सीआरपीसी के अनुसार किसी भी आपराधिक मुकदमें  का ट्रायल अभियुक्त की अनुपस्थिति में नहीं चलाया जा सकता था। अदालत में गवाहों के एक्जामिनेशन व क्रॉस एक्जामिनेशन के समय अभियुक्त का अदालत में मौजुद होना आवश्यक था। साथ ही गवाहों को भी भौतिक रूप से अदालत के समक्ष आकर अपनी गवाही देनी होती थी। लेकिन भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 530 में क्रिमीनल ट्रायल की सारी कारवाईयों को इलेक्ट्रोनिक पद्धति से सम्पन्न करने का प्रावधान है और धारा 530 में कोई व्याख्या नहीं दी गई है जो यह स्पष्ट करती हो कि किन परिस्थितियों में ऑनलाईन मोड को प्राथमिकता दी जायेगी या किन परिस्थितियों में इससे बचा जायेगा। बीएनएसएस की धारा 530 में लिखा गया है-‘सभी ट्रायल, जांचपड़ताल व कारवाईयां इलेक्ट्रोनिक पद्धति से चलाई जायेगी। एक ट्रायल कोर्ट का वकील अच्छी तरह से जानता है कि आमने-सामने खड़े होकर सवाल करे बिना एक गवाह से सच्चाई उगलवाना बहुत ही कठिन काम है। दूसरा यह जेल में बंद अभियुक्त और उसके परिजनों के लिये भी हताशा भरा होगा क्योंकि अदालत में वे अभियुक्त से मिल सकते थे और उसका मनोबल बढ़ा सकते थे। अभियोग के दौरान अभियुक्त का अदालत में होना इसलिये भी अनिवार्य है ताकि वह सारी प्रक्रिया को अपनी आंखों से देख सके व अपने वकील को निर्देश दे सके। नयी संहिता की इलेक्ट्रोनिक ट्रायल पद्धति की वजह से बचाव पक्ष समस्या में पड़ सकता है। यह ओपन कोर्ट की अवधारणा के उल्ट भी है। 

भारतीय नागरिक संहिता, 2023 में एक उद्घोषित अपराधी यानि पीओ का अभियोग उसकी अनुपस्थिति में चलाने की अवधारणा पेश करती है। इलेक्ट्रोनिक मोड के ट्रायल में कम से कम अभियुक्त के प्रतिनिधि के रूप में उसका वकील अदालत में मौजुद रहता है। बीएनएसएस की धारा 356 में एक प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर(पीओ) के खिलाफ उसकी अनुपस्थिति में जांचपड़ताल, अभियोग एवं जजमेंट करने का प्रावधान किया गया है। पीओ के खिलाफ इस तरह मुकदमा चलाया जायेगा जैसाकि वह स्वयं अदालत में हाजिर हो। बीएनएसएस में पीओ घोषित करने की पूरी स्कीम को ही बदल दिया है। सीआरपीसी की धारा 82(4) में केवल आईपीसी के चुनिंदा सूचीबद्ध अपराधों के अभियुक्तों को ही पीओ घोषित करने का प्रावधान था। ये गंभीर किस्म के अपराध थे जिनमें अभियुक्त को सात साल, दस साल या आजीवन कारावास की सजायें हो सकती थी। हालांकि आईपीसी के अनेक ऐसे अपराधों को इस सूची से बाहर रखा गया था जिनमें उपरोक्त के बराबर या इनसे भी ज्यादा सजाओं का प्रावधान था। लेकिन बीएनएसएस की धारा 84(4) में उपरोक्त सूची को हटाकर, सजा की अवधि को ही पीओ घोषित करने का पैमाना बना दिया है। हालांकि धारा 299 सीआरपीसी में भी, कुछ विशेष परिस्थितियों में, अभियुक्त की गैरहाजरी में गवाहियां दर्ज करने का प्रावधान था लेकिन उसके विरूध जजमेंट नहीं सुनाया जा सकता था। लेकिन अब बीएनएसएस की धारा 356 के अनुसार गवाही, सुनवाई व जजमेंट सब कुछ पीओ अभियुक्त के बिना अदालत में हाजिर हुये भी सुनाया जा सकेगा। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है।

औपनिवेसिक कानून में 161 सीआरपीसी के तहत पुलिस इनवेस्टिगेशन के दौरान गवाहों के बयानात पर हस्ताक्षर नहीं करवाये जाते थे। यह मानकर चला जाता था कि पुलिस के सामने गवाह दबाव में ब्यान दे सकता है या पुलिस ऐसे ब्यान की गलत व्याख्या कर सकती है। पुलिस के सामने दिया गया ब्यान अदालत में एडमिसिब्ल नहीं था। बीएनएसएस में पुलिस के सामने दिये गये ब्यानों की ऑडियो-विडियो रिर्काडिंग का प्रावधान किया गया है। जिसके बाद ब्यानों पर हस्ताक्षर करने या नहीं करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

संक्षिप्त में, अंर्तराष्ट्रीय व्यवहार के विपरित, नयी संहिता में पुलिस को किसी घर की तलाशी लेने या किसी वस्तु का जब्त करने जैसी कारवाईयां करने के लिये किसी न्यायिक आदेश की आवश्यकता नहीं है। कार्यकारी मजिस्ट्रेट को धारा 95 में किसी दस्तावेज, पार्सल व वस्तु को जब्त करने के उद्देश्य से तलाशी करने के आदेश देने के लिये सक्षम बनाया गया है तथा संहिता की धारा 149 के अनुसार अब कार्यकारी मजिस्ट्रेट   ‘सैन्य-बलों को किसी गैर कानूनी सभा में शामिल व्यक्तियों को गिरफ्रतार करने व उनको तितर-बितर करने के आदेश दे सकेंगे। वे किसी प्रकाशन के कार्य व किसी जमीन के विवाद में भी हस्तक्ष्ेप कर सकते है। महिलाओं के लिये गुजारा भत्ता का कानून बीएनएसएस में भी वैसा ही है जैसा कि औपनिवेसिक सीआरपीसी की धारा 125 में था। मोदी सरकार का नया कानून भी जारकर्म की आड़ में, अन्य पुरूष के साथ रहने वाली महिला को गुजारा भत्ता देने से स्पष्ट इंकार करता है।

अतं में यह कहना गलत नहीं होगा कि मौजुदा संहिता पहले से निरंकुश पुलिस तंत्र को और ज्यादा निरंकुश बनाती है। ये मोदी की तानाशाही को मजबुत करने के लिये लाये गये हैं जिनका उपनिवेशवाद विरोध से कोई लेना देना नहीं है।

सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

यूसीसी का सवाल

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः चुनावी वैतरणी पार करने का एकमात्र सहारा              : राजेश कापड़ो 


  • अपने अमरीका दौरे से वापस आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर बहस शुरू कर दी। मोदी ने कहा कि जहां पर परिवार के एक सदस्य के लिये एक कानून हो, परिवार के दूसरे सदस्य के लिये दूसरा कानून हो, क्या वह घर चल सकता है? ऐसी दोहरी व्यवस्था से एक देश कैसे चल सकता है? मोदी ने एक देश-एक विधान की बात करते हुये कहा कि भारत का संविधान भी समान नागरिक संहिता की बात करता है। उन्होंने भारत के उच्चतम न्यायालय का भी हवाला दिया कि वह भी भारत सरकार को बार-बार समान नागरिक संहिता लागू करने के लिये कहता रहता है। आम चुनाव से ठीक पहले भाजपा समान नागरिक संहिता का मुद्दा क्यों उठा रही है? क्या सच में मोदी समान नागरिक संहिता लागू करना चाहता है ? या इसके माध्यम से कहीं और निशाना साधा जा रहा है? 
  • समान नागरिक संहिता क्या है? हमारे देश में सभी नागरिकोें के नीजि मामलों जैसे- विवाह, तलाक, विरासत एवं उत्तराधिकार, बच्चा गोद लेना-देना, भरण-पोषण आदि से संबंधित कानूनों को नागरिकों की संस्कृति, पंरपराओं व प्रथाओं के आधार पर अलग-अलग बनाया गया है। ऐसे कानूनों को उस धर्म या सम्प्रदाय के पसर्नल कानून कहा जाता है। समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक, विरासत एवं उत्तराधिकार आदि से सम्बन्धित कानून धर्म, संस्कृति आदि के आधारों पर अलग नहीं होंगे बल्कि देश के सभी नागरिकों के लिये उपरोक्त विषयों के लिये कानून एक समान होगें। 
  • लेकिन भाजपा अभी यूसीसी की बहस क्यों छेड़ रही है ? भाजपा एक बार फिर आम चुनाव जीतने के लिये समाज को साम्प्रदायिक आधारों पर विभाजित करने के रास्ते पर बढ़ रही है। जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव समीप आ रहा है, मोदी सरकार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कार्यक्रम पर तेज गति से बढ़ रही है। इसके तहत लव जिहाद, जमीन जेहाद आदि मुद्दे उछाले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री के सुर से सुर मिलाते हुये उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने ऐलान कर दिया है कि उनकी सरकार अपने स्तर पर यूसीसी ला रही है। इसके लिये उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवा निवर्त जज की अध्यक्षता में एक समिति के गठन की घोषणा भी कर दी।
  • मोदी द्वारा यूसीसी का सवाल उठाना भी आगामी आम चुनाव की पृष्ठभूमि में देखना ही होगा। इस बहस के समय एवं निहित सामग्री से भी यही इंगित होता है। प्रधानमंत्री के यूसीसी वाले पूरे वक्तव्य में मुस्लिम समुदाय ही उनके निशाने पर हैं। उन्होंने मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों को निशाने पर लिया गया है। मोदी बता रहे हैं कि इन कुरीतियों को दुनियां के विभिन्न इस्लामिक देश भी समाप्त कर चुके हैं। उन्होनें इस्लाम धर्म में पसमांदा मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव का जिक्र भी किया। वे यूसीसी के अपने वक्तव्य में हिंदू धर्म की कुरीतियों का कहीं भी जिक्र नहीं कर रहे। इससे यह धारणा बन रही है कि यूसीसी के जरिये केवल मुस्लिम पर्सनल कानूनों को समाप्त किया जायेगा। आशंका प्रकट की जा रही है कि मोदी सरकार यूसीसी के नाम पर हिंदू संहिता थोंपने की तैयारी कर रही है। क्योंकि इस पूरी बहस में मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश किया गया है। इससे भाजपा-आरएसएस के फासीवादी मंसूबे स्पष्ट हो रहे हैं।
  • क्या भाजपा सच में यूसीसी लाना चाहती है या यूसीसी का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिये कर रही है? पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने मोदी सरकार की इस कार्यनीति को एक विचारहीन कवायद बताते हुये पूछा है कि समान नागरिक संहिता किस चिड़िया का नाम है? इसका प्रारूप कहां है? आप बिना विषय वस्तु के किस चीज पर चर्चा करना चाहते हो? 
  • 21वां विधि आयोग 2018 में अपनी एक विस्तृत रिर्पोट में कह चुका है कि समान नागरिक संहिता न तो संभव है और न ही फिलहाल इसकी जरूरत है। विधि आयोग की इस रिर्पोट पर मोदी सरकार ने संसद में कोई चर्चा नहीं करवाई। बल्कि उसको बिना चर्चा के ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। कम से कम इसको संसद में बहस के बाद खारिज कर दिया होता। लेकिन भाजपा सरकार ने ऐसा नहीं किया। भाजपा नवगठित 22वें विधि आयोग के जरिये अपने हिंदू-मुस्लिम के एजेंडा आगे बढ़ा रही है। 22वें लॉ कमीशन ने एक सार्वजनिक नोटिस के जरिये समान नागरिक संहिता पर जनसाधारण से सुझाव एवं विचार आमंत्रित किये हैं। गजाला जमील के अनुसार यह स्पष्ट नहीं है कि विधि आयोग किस बात के लिये लोगों से सुझाव आमंत्रित कर रहा है जबकि विधि आयोग या सरकार के किसी मंत्रलय द्वारा यूसीसी का कोई प्रारूप नहीं पेश किया है, न ही इसका कोई कारण बताया है कि यूसीसी के बारे में 21वें विधि आयोग की मंत्रणा क्यों खारीज की गई है। जबकि 21वें विधि आयोग ने सरकार को यह राय दी है कि बिना यूसीसी के ही विभिन्न समुदायों के पसर्नल कानूनों में लैंगिक भेदभावों को उचित संशोधन करके समाप्त किया जा सकता है।
  • सत्ताधारी भाजपा-आरएसएस ने यूसीसी के बहाने मुस्लिमों को बदनाम करके हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने के उद्देश्य से वर्तमान बहस शुरू की है। लेकिन भाजपा-आरएसएस के अंदर से ही इसका विरोध हो रहा है। इससे यह साफ हो जाता है कि देश के अंदर सिर्फ हिंदू-मुस्लिम विभाजन को और तेज करना मोदी सरकार का मकसद है।
  • आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम ने आदिवासियों को समान नागरिक संहिता के अधीन लाने का विरोध किया है। आरएसएस के आदिवासी संगठन का कहना है कि यदि आदिवासी समुदायों को समान नागरिक संहिता के अर्न्तगत लाया गया तो आदिवासी एकदम सरकार के विरोध में आ जायेगे और विद्रोह कर देंगे और उनकी सारी मेहनत बेकार हो जोयेगी। गौरतलब है कि आरएसएस लंबे समय से आदिवासियों को अपने समीप लाने के लिये काम कर रहा है। इसी प्रकार भाजपा नेता सुशील मोदी ने भी आदिवासियों को समान नागरिक संहिता से बाहर रखने की पुरजोर वकालत की है।
  • इसी प्रकार भाजपा समर्थित नागालैंड की सरकार ने भी समान नागरिक संहिता का विरोध किया है। नागालैंड सरकार का मानना है कि मोदी सरकार का यह कदम नागाओं की परंपराओं व उनकी सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं के लिये एक खतरा होगा। हम इसको स्वीकार नहीं कर सकते। नागालैंड सरकार के एक मंत्री ने भारत सरकार को अनुच्छेद 371ए की याद दिलाते हुये, भारत सरकार को अपना संवैधानिक वायदा निभाने की बात कही। अनुच्छेद 371ए नागालैंड को एक विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करता है। भारत की संसद द्वारा पारित किये जाने वाले नागाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नागाओं की परंपरागत कानून व प्रक्रिया, सिविल एवं क्रिमीनल न्याय प्रशासन के मसले-जिनका निपटारा नागाओं के परंपरागत कानून के अनुसार होना है, कृषि भूमि व उसके स्वामित्व आदि से संबंधित कोई भी कानून राज्य विधानसभा में पास हुये बगैर नागालैंड में लागू नहीं हो सकता।
  • पंजाब में भी यूसीसी का व्यापक विरोध हो रहा है। कांग्रेस, आप, अकाली दल सब यूसीसी से नाराज है। एसजीपीसी ने भी इसकी कड़ी आलोचना की है। जिस सैंवेधानिक संरक्षण की बात नागालैंड के बारे की है, ऐसे ही संरक्षण देश के बहुत से राज्यों व विशेष क्षेत्रें को प्रदान किये गये है। इन संरक्षित क्षेत्रें के ऊपर केन्द्र सरकार मनमर्जी से यूसीसी को नहीं थोंप सकती। इसमें केवल नागालैंड ही नहीं है। इसमें सिक्किम सहित सारा उत्तर-पूर्व, महाराष्ट्र- गुजरात के कई हिस्से, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गोवा और हिमाचल प्रदेश आते हैं। मोदी सरकार को यूसीसी लागू करने पहले इन क्षेत्रें को संविधान द्वारा दिया गया विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करना होगा। जैसाकि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटा कर जम्मू एवं कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया है। ये बहुत ही जोखिम भरा कदम होगा, जो भारत को विभाजित करके गृह युद्ध की आग में झोंक देगा। मोदी सरकार पूरे देश को कश्मीर नहीं बना सकती। 
  • किसान लगातार परेशान है। युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है। 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा दिये जाने वाले अनाज पर निर्भर हैं। इस चहुंमूखी संकट के बीच, भाजपा-आरएसएस मुस्लिम समुदाय को बलि का बकरा बनाकर चुनाव की गंगा पार करने की फिराक में है। यूसीसी पर जो भाषण मोदी ने आगरा में दिया उससे भी यह साफ है कि केवल मुस्लिम पुरूष ही उसके निशाने पर हैं। क्योंकि मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति के लिये ही मोदी ने अवतार धारण किया है। 
  • महिला मुक्ति के सवाल को केवल मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति तक कैसे सीमित किया जा सकता है? क्या गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ लैंगिक आधारों पर भेदभाव नहीं होता? तीन तलाक की कुप्रथा पर मुस्लिमों को कोसने से पहले यह अवश्य समझना कि पति द्वारा परित्यक्त की गई महिलाओं की संख्या अन्य धर्मों में भी कोई कम नहीं है। हिंदू धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। देश की अदालतों में ऐसी महिलाओं द्वारा दायर किये गये मुकदमों की संख्या से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ये महिलायें वर्षों से अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। इनके पति अदालतों के आदेशों के बावजूद इन महिलाओं को नहीं अपना रहे और ना ही कानूनी प्रावधानों के बावजूद उनके भरण-पोषण का खर्च उठा रहे और इन गैर मुस्लिम मर्दों ने अपनी पत्नियों को तीन तलाक कहकर या किसी अन्य व्यवस्था से तलाक भी नहीं दिया है। 
  • मोदी सरकार ने तीन तलाक पर कानून बनाकर मुस्लिम मर्द द्वारा पत्नि को बेसहारा छोड़ना एक दंडनीय अपराध बना दिया। लेकिन वहीं एक हिंदू पुरूष द्वारा पत्नी को बेसहारा छोड़ना अभी भी सिविल मामला है। जिसमें कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता, ऐसे अपराध के लिये कोई सजा भी नहीं होती। जिस समान नागरिक संहिता को महिला सशक्तिकरण की चासनी में लपेट कर परोसा जा रहा है, दरअसल वह हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने का औजार है। दूसरा, इसकी सारी जिम्मेदारी विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल के कट्टरपंथियों को सौंप दी है। 
  • भाजपा के अनेक नेता महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा में शामिल रहे हैं। मोदी सरकार ने इनका बचाव बेशर्मी से किया है। यह वर्तमान निजाम ही है जिसमें महिला पहलवानों के साथ यौन दुर्व्यवहार की एफआईआर भी माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के दर्ज होती है। यह जगजाहिर है कि बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा झंडा लेकर भाजपा ब्रांड राष्ट्रवादी सड़कों पर उतरने में भी नहीं शर्माये और भाजपा में सजायाफ्ता बलात्कारियों का स्वागत फूलों का हार पहना कर करने की पंरपरा है। इनके वरिष्ठ नेता अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के खिलाफ सार्वजनिक रूप से आपत्तिजनक टिप्पणियां करते देखे गये हैं। मुस्लिम महिलाओं पर इनको इतना तरस क्यों आ रहा है? ये समझने की जरूरत है।
  • भाजपा-आरएसएस मुस्लिम पसर्नल कानूनों में एक से ज्यादा शादियों की अनुमति देने से नाराज हैं। इनके अनुसार चार-चार शादियां करने के कारण मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है। आरएसएस की-हिंदू धर्म खतरे है-वाली अवधारणा का जन्म भी यहीं से होता है। इसलिये यूसीसी इसके इलाज के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन एक से ज्यादा शादियां करने की प्रथा केवल मुस्लिमों में ही प्रचलित नहीं है। 1961 की जनगणना के आंकडों के अनुसार भारत में मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह (5.7 प्रतिशत) उच्च जातिय हिन्दूओं (5.8 प्रतिशत) की तुलना में कम पाया गया था। यह इसका उदाहरण है कि मुस्लिम पसर्नल कानून भले ही एक से ज्यादा पत्नियां रखने की अनुमति प्रदान करते हैं लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसी घटनायें बहुत कम है। 
  • 2020-21 में किये गये नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (NFHS)-5 के अनुसार हालांकि मुस्लिम समुदाय में 1.9 प्रतिशत पुरूषों की एक से ज्यादा पत्नियां पायी गई थी। वहीं, इसी सर्वे में, 1.3 प्रतिशत हिंदू पुरूषों की भी एक से ज्यादा पत्नियां थी। 1961 की जनगणना के अनुसार 15 प्रतिशत विवाहित आदिवासियों की एक से ज्यादा पत्नियां थी। इसमें लगातार गिरावट आ रही है। NFHS-3 में यह दर 3.1 प्रतिशत थी, जबकि NFHS-5 में यह घटकर 2.4 प्रतिशत पर आ गयी। इसी प्रकार मुस्लिमों सहित अन्य समुदायों में भी एक से ज्यादा पत्नियां होने का चलन कम होता जा रहा है। अनुसूचित जाति महिलाओं में भी यह कम हुआ है। तीसरे सर्वे में यह 2.2 प्रतिशत था। पांचवें सर्वे में 1.5 प्रतिशत हो गया। 
  • ज्यादा शादियां करने से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं, यह एक कुतर्क है। कम या ज्यादा बच्चे पैदा करने का कारण कोई धर्म विशेष नहीं बल्कि इसके दूसरे कारण होते हैं। NFHS-5 की रिर्पोट से पता चलता है कि मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू एवं कश्मीर में प्रजनन दर 1.4 प्रति महिला है, जोकि राष्ट्रीय प्रजनन दर 2.0 से बहुत ज्यादा कम है। जबकि डबल इंजन की सरकार वाले हिंदू बहूल यूपी में प्रजनन दर 2.35 प्रति औरत है। जम्मू कश्मीर की प्रजनन दर बिहार, राजस्थान व हरियाणा आदि राज्यों से भी कम है। 
  •  इस सर्वे में यह तथ्य सामने आता है कि लोगों की शिक्षा व रहन सहन में विकास होने से प्रजनन दर कम हो रही है। 1992-93 से 2019-21 तक सभी समुदायों में औरतों की प्रजनन दर में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इस अवधी में प्रजनन दर ग्रामीण क्षेत्रें में 3.7 से घटकर 2.1 तथा शहरी क्षेत्रें में 2.7 से घटकर 1.6 पर आ गई है। सर्वे से पता चलता है कि एक अनपढ़ औरत औसतन 2.8 बच्चे पैदा करती है जबकि 12वीं कक्षा तक पढ़ी लिखी औरत औसतन 1.8 बच्चे पैदा करती है। 
  • प्रधानमंत्री मोदी ने यूसीसी के संदर्भ में भारत के संविधान का हवाला दिया है। भारत का संविधान अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की बात करता है। लेकिन संविधान किसी समुदाय के ऊपर जबरदस्ती समान नागरिक संहिता थोंपने की बात नहीं करता। संविधान कहता है कि राज्य अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। संविधान की भाषा स्पष्ट है। इसमें कहीं भी थोंपने वाली भावना नहीं है।
  • नागरिक संहिता के बारे में संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की राय भी यही थी। वह भले ही समान नागरिक संहिता के समर्थक थे लेकिन उन्होंने अल्पसंख्यक समुदायों पर समान नागरिक संहिता को जबरदस्ती थोपने का विरोध किया था। उस समय सेन्ट्रल पो्रविन्स में मुस्लिमों के नीजि मामलों पर हिन्दू पर्सनल कानून लागू होते थे। 1937 में ब्रिटिश हकूमत ने शरीयत कानून पास किया। लेकिन शरीयत कानून में एक प्रावधान करके यह मुस्लिमों की इच्छा पर छोड़ दिया कि वे अपने ऊपर शरीयत कानून को लागू करवायेंगे या हिन्दू कानून को। 
  • डॉ अम्बेडकर ने सरकार को जबरदस्ती समान नागरिक संहिता थोंपने के विरूद्ध चेताया था। अम्बेडकर ने कहा था, ‘किसी भी सरकार को अपनी शक्तियों को इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को विद्रोह के लिये उकसाने के लिये नहीं करना चाहिये। यदि कोई ऐसा करता है तो वह एक पागलपन होगा।’ संविधान निर्माताओं की भावना भी ऐसी ही थी। इसलिये संविधान में शब्दों का चयन सोच समझ कर किया गया है। वे संविधान में - प्रयास करेगा- की बजाय -लागू करेगा- शब्दों का इस्तेमाल भी कर सकते थे। 
  • राज्य को अपने नागरिकों के निहायत नीजि मसलों में ज्यादा दखल नहीं देना चाहिये। जैसा व्यवहार मोदी सरकार कर रही है, वैसा तो अंग्रेजों ने भी नहीं किया। 1916 में अंग्रेजों ने THE HINDU DISPOSITION OF PROPERTY ACT, 1916 पास किया था। इस कानून में खोजा समुदाय के लिये एक विशेष प्रावधान किया गया था कि वे इस कानून को अपने ऊपर लागू करवायें या नहीं, ये खोजा समुदाय को तय करना था, सरकार को नहीं। नीजि मामलों में नागरिकों को स्वतंत्रता देना कोई नई बात नहीं है। लेकिन खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले भारत में सत्ता पर काबिज भाजपा आरएसएस को यह कौन समझाये? 
  • यहां पर समान नागरिक संहिता की बहस में गोवा के यूसीसी की चर्चा करना भी जरूरी है। गोवा का नागरिक कानून भारत सरकार ने नहीं बनाया था। यह कानून पुर्तगाल की सरकार ने पास किया। 1961 में गोवा की आजादी के समय भारत सरकार को यह कानून विरासत में मिला था। हालांकि इसका नाम भी युनिफार्म सिविल कोड है। इसमें मुस्लिमों सहित सभी पर दो या दो से अधिक शादियां करने पर रोक है। लेकिन गोवा का यूसीसी, कुछ विशेष परिस्थितियों में, हिन्दूओं को दूसरी शादी करने की छूट देता है। गोवा की नागरिक संहिता में धर्म के आधार पर और भी कई असमानतायें हैं। जैसे गैर कैथोलिक लोगों की शादियों का सरकारी पंजीकरण अनिवार्य है। जबकि कैथोलिक इसाईयोें के लिये चर्च में शादी होना ही पर्याप्त है। उनको अपनी शादियों का पंजीकरण करवाने की जरूरत नहीं है। 
  • वर्तमान हिंदू विवाह कानून भी इसका अपवाद नहीं है। यह सब हिंदूओं- जिसमें बौद्ध, जैन व सिख भी शामिल किये गये हैं, पर एक समान रूप से लागू नहीं होता। इसमें कई किस्म के विशेष प्रावधान है, जिनके तहत अलग-अलग परंपराओं को मानने वाले हिंदूओं के लिये अलग-अलग व्यवस्थाऐं की गई हैं। मसलन, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 (vi) में निषेध संबंधों में शादी करने के मामले में संबंधित पक्षों के रीति-रिवाज एवं सामाजिक व्यवहारोें के अनुरूप कानून को लचीला बनाया गया है। इसी प्रकार धारा 5(v) में सपिण्ड पक्ष के साथ शादी संबंध वर्जित है लेकिन यहां पर यह व्यवस्था भी की गई है कि यदि शादी करने वाले पक्षों के रीति रिवाज व प्रथायें इसकी अनुमति प्रदान करते हैं तो वे सपिण्ड संबंध में भी शादी कर सकते हैं। 
  • संविधान का अनुच्छेद 39 अपने नागरिकों के सम्मानजनक जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त साधन मुहैया करवाना राज्य का उत्तरदायित्व घोषित करता है। जिसमें अपने नागरिकाें को इन जीवन निर्वाह के संसाधनों का स्वामित्व एवं नियंत्रण सुनिश्चित करने की बात की गई है। इसके बावजूद नब्बे फीसद दलित भूमिहीन हैं। वे आज भी जमींदारों के मोहताज हैं। यही स्थिति अल्पसंख्यक मुस्लिमों की है। सच्चर कमेटी की रिर्पोट में जिसका खुलासा किया जा चुका है। मोदी सरकार अनुच्छेद 39 को लागू करने की बात क्यों नहीं करती? यूसीसी से पहले, अनुच्छेद 39 को लागू करने का एक और महत्व है। पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले लोगों को जीवन निर्वाह का साधन उपलब्ध करवाना आवश्यक है। ऐसा करने से न केवल लोगों की आजीविका की समस्या हल होगी, बल्कि लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर भी उंचा उठेगा और देश के नागरिक समान नागरिक संहिता को स्वीकार करने के लिये मानसिक रूप से तैयार भी हो सकेंगे। 
  • कोई व्यक्ति सप्तपदी करके शादी करता है या निकाह पढ़ कर या किसी और रीति रिवाज से, इससे राज्य या किसी दूसरे समुदाय को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। किसी समुदाय की शादी-विवाह की प्रथाऐं जब तक देश के कानून या संविधान के विरोध में नहीं हैं, तब तक उस समुदाय के रीति रिवाज पर आपत्ति करने का अधिकार किसी दूसरे समुदाय को नहीं होना चाहिये। राज्य को इसमें बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जैसाकि 21वें विधि आयोग ने कहा है कि राज्य को अलग-अलग समुदायों के पसर्नल कानूनों को ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक एवं लैंगिक भेदभाव रहित बनाने का प्रयास करना चाहिये। उन पसर्नल कानूनों में जो कुछ भी संविधान विरोधी हो, उसको उन कानूनों में आवश्यक संशोधन करके सही किया जा सकता है।
  • जिनको समुदाय आधारित पसर्नल कानूनों से परहेज हैं, वे अन्य कानूनों के जरिये अपने नीजि मसले शासित करवा सकते हैं। यह सम्बन्धित पक्षों के चुनाव का विषय है। भारत में हिंदू या मुस्लिम पसर्नल कानूनों के अलावा धर्मनिरपेक्ष कानून भी है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 इसका एक उदाहरण है। इस कानून के अनुुसार किसी भी धर्म या जाति से संबंधित महिला-पुरूष शादी कर सकते हैं। जबकि पसर्नल कानूनों में दोनों पक्षों का उस धर्म विशेष से संबंधित होना आवश्यक है। पसर्नल कानूनों में धर्म विशेष से बाहर शादी अवैध मानी जाती है। जिनको पसर्नल कानूनों से समस्या है, वे धर्मनिरपेक्ष कानूनों के अनुसार अपने शादी तलाक आदि मसलों को शासित करवा सकते हैं। उदाहरण के लिये मुस्लिम व इसाई पसर्नल कानूनों में बच्चा गोद लेने व देने का प्रावधान नहीं है। कोई मुस्लिम या इसाई बच्चा गोद लेना व देना चाहे तो वह किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के अनुसार बच्चा गोद ले दे सकता है। इस कानून में बिना किसी धार्मिक, जातिगत या लैंगिक भेदभाव के बच्चा गोद लेने व देने की व्यवस्था व प्रक्रिया बतायी गई है।
  • कुरीतियां सभी धर्मों में हैं। इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज उस धर्म विशेष के अंदर से ही उठनी चाहिये। ये बिल्कुल भी उचित नहीं है कि कुरीतियों को मिटाने की आड़ में एक अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक धर्म की उन्मादि भीड़ के हवाले कर दिया जाये। यूसीसी पर मोदी सरकार के मंसूबे कुछ ऐसे ही लग रहे है। चलती रेलगाड़ी में बिना किसी उकसावे के मुस्लिम यात्रियों को गोलियों से भूनने वाले आरपीएफ के चेतन सिहं जैसे जोंबी एक दिन में तैयार नहीं होते। यूसीसी के बहाने भाजपा आएसएस ने जो आक्रामक मुहिम मुस्लिमों के खिलाफ शुरू कर दी है, ये उसी का परिणाम है। मोदी सरकार यूसीसी के बहाने अल्पसंख्यकों पर हमले करने से बाज आये। देश की जनता नफरत नहीं प्यार चाहती है। दंगा नहीं रोजगार चाहती है।