मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

मोदी सरकार के तीन कानून

 

आपराधिक न्याय प्रणाली का फासीवादीकरण   :राजेश कापड़ो

मोदी सरकार ने संसद के शीतकालीन स्तर में तीन नये कानून पारित किये हैं। इनके नाम हैं- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता व भारतीय साक्ष्य अधिनियम। ये तीनों कानून अब Indian Penal Code 1860, Criminal Procedure Code 1973 व  Indian Evidence Act, 1872 का स्थान लेंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने इन कानूनों का मसौदा सदन में पेश करते हुये बताया कि ये तीनों कानून भारत की 150 साल पुरानी आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूलचूल बदलाव लाने वाले हैं। पूराने कानून एक विदेशी शासक ने अपने शासन को जारी रखने के लिये बनाये थे। वे एक गुलाम प्रजा पर शासन करने के लिये बनाये हुये कानून थे। अंग्रेजों के जमाने की आईपीसी का उद्देश्य दंड देना था जबकि भारतीय न्याय संहिता का उद्देश्य न्याय प्रदान करना होगा। नये कानून भारत के संविधान में वर्णित - व्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार तथा सबके साथ समान व्यवहार- के सिद्धांतों के आधार पर बनाये गये हैं। अमित शाह ने सदन को बताया कि पुराने कानूनों में आजादी के 75 साल बाद भी युनाइटिड किंगडम की संसद द्वारा पारित, क्राउन के प्रतिनिधि का सम्मान, लंदन गज़ट, ज्यूरी, लाहौर कॉर्ट, युनाइटिड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, कॉमन वेल्थ, हरमेजेस्टि, हरमेजेस्टि सरकार, ब्रिटिश क्राउन, इंग्लेंड के न्यायलय व हरमेजेस्टि रोमिनियन व बेरिस्टर आदि औपनिवेसिक शब्द एवं वाक्यांश भरे पड़े हैं। नये कानून मूल भारतीय चिंतन पर आधारित है व भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली से औपनिवेसिक निशानियों का अंत करते हैं।

गृहमंत्री भले ही कुछ भी दावे करें, लेकिन संसद द्वारा पारित उपरोक्त तीनों कानूनों को देखने से पता चलता है कि इनमें बहुमत यानि 80 प्रतिशत से ज्यादा धारायें वही हैं जो पुराने ‘औपनिवेसिक कानूनों में भी थी, मोदी सरकार ने इनका केवल पदानुक्रम बदला है। उदाहरण के लिये आईपीसी में मानव हत्या करने के अपराध की सजा धारा 302 में बताई गई थी, जबकि भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में यह  क्लॉज 101 में प्रदत है। मोदी सरकार ने तीनों कानूनों का सारा का सारा पदानुक्रम बदल डाला है। सीआरपीसी की जगह लेनी वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की बात करें तो उसमें मुश्किल से पांच प्रतिशत ही नया है। असल में कथित भारतीय चिंतन पर आधारित इन कानूनों की अर्न्तवस्तु ज्यों की त्यों है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मोदी सरकार ने इनको औपनिवेसिक काल से भी ज्यादा खुंखार बना दिया है। इन कानूनों का नामकरण जरूर हिंदी में किया गया है, बाकि इनका मूलपाठ अभी भी अंग्रेजी में ही है। हम यहां केवल नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 व भारतीय न्याय संहिंता, 2023 में शामिल किये गये कुछ नये प्रावधानों व अवधारणाओं पर चर्चा करेंगे।

यह सही है कि भारत की जनता पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से ही ब्रिटिश काल में आईपीसी, पुलिस एक्ट सहित तमाम अपराधिक न्याय प्रणाली को सुदृढ़ व संचालित करने वाले कानून लाये गये। 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद भी उन कानूनों को लागू रहने दिया। भारत के संविधान में भी इन औपनिवेसिक कानूनों को संरक्षण दिया गया है, जहां तक ऐसे कानून संविधान द्वारा प्रदत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते। अंग्रेजों द्वारा अपने शासन को मजबूत करने के लिये बनाये गये कानून निश्चित एवं स्वाभाविक रूप से ज्यादा खुंखार होने चाहिये और वे ऐसे ही थे। जैसाकि आजादी आंदोलन के हमारे नेताओं ने उन कानूनों को काले कानून का नाम दिया था। मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर लाये गये उपरोक्त तीनों कानून क्या अंग्रेजों से भी ज्यादा कठोर हैं? क्या लोकतंत्र का पुलिस तंत्र एक औपनिवेसिक पुलिस तंत्र से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है? लेकिन मोदी सरकार द्वारा पास किये मौजुदा तीनों कानून औपनिवेसिक काल के कानूनों से ज्यादा कठोर हैं। जिनमें मानवाधिकारों के लिये बिल्कूल भी स्थान नहीं दिया गया है बल्कि एक पुलिस राज्य कायम करने के उद्देश्य से ये कानून लाये गये हैं।

औपनिवेसिक बनाम राष्ट्रवादीः

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) अब अपराध प्रक्रिया संहिता 1973 का स्थान लेगा। भारत की क्रिमिनल कोर्ट और पुलिस तंत्र अब बीएनएसएस से संचालित होंगे। यहां औपनिवेसिक सीआरपीसी व स्वदेशी बीएनएसएस के कुछेक प्रावधानों को देखना मजेदार होगा। अंत में, यह पाठक ही तय करें कि किस कानून में नागरिक अधिकारों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा महत्व दिया गया है। इस स्पष्टीकरण के साथ कि उपनिवेशवाद में मानवाधिकारों के लिये कोई स्थान नहीं होता और उपनिवेशवाद का समर्थन बिल्कुल नहीं किया जा सकता।

औपनिवेसिक कानून अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी, 1973) में किसी भी अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता था। सीआरपीसी की धारा 167 (2) का सार है कि मजिस्टेट अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा पुलिस रिमांड पर नहीं दे सकता। वह अभियुक्त को 15 दिन से ज्यादा के लिये केवल न्यायिक हिरासत में रखने के लिये सक्षम है। इस संदर्भ में, किसी भी प्रकार की अस्पष्टता से बचने के लिये सीआरपीसी में otherwise than in the custody of the police' वाक्यांश का इस्तेमाल किया गया है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएनएस) की धारा 187(2)(3) में अभियुक्त की पुलिस रिमांड की अवधि को 90 दिन तक बढ़ा दिया है। इस धारा से otherwise than in the custody of the police' वाक्यांश को सोच समझ कर हटा लिया गया है। जिसका अर्थ है कि अब अभियुक्त को ज्यादा से ज्यादा 90 दिन बाद तक पुलिस रिमांड पर दिया जा सकता है। दूसरा, सीआरपीसी में जब किसी अभियुक्त को एक बार न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया जाता था तो उसको उसी मुकदमें में पुलिस दोबारा रिमांड पर नहीं ले सकते थी। सीबीआई बनाम अनुपम जे कुलकर्णी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पहले के 15 दिन समाप्त हो जाने के बाद और ज्यादा समय के लिये रिमांड केवल न्यायिक हिरासत ही हो सकता है। चाहे बाद में जांच के दौरान उसी घटनाक्रम में कितने भी गंभीर अपराध कारित करने का पता चलता हो। सुप्रीम कोर्ट के मार्गदर्शन को नकारते हुये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता अभियुक्त को न्यायिक हिरासत से पुनः पुलिस रिमांड पर देने का प्रावधान करती है। इसके अलावा, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 172(2) में पुलिस को किसी व्यक्ति को निवारक हिरासत में रखने की शक्ति प्रदान करती है। यह भी मजेदार है कि निवारक हिरासत में रखे गये व्यक्ति को किसी मजिस्टेट के समक्ष प्रस्तुत करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। सीआरपीसी में अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने का कोई लिखित प्रावधान नहीं था। हालांकि उसके बावजुद भी पुलिस अभियुक्तों को न केवल हथकड़ी पहनाती थी, बल्कि उनको हथकड़ी पहनाकर सरेआम पब्लिक में घुमाती भी थी। पुलिस न्यायालय की पूर्व अनुमति से ही अभियुक्त को हथकड़ी पहना सकती थी। नयी संहिता बीएनएनएस की धारा 43(3) में अभियुक्त को हथकड़ी पहनाने का लिखित प्रावधान कर दिया गया है। अब कोई हथकड़ी पहनाने का विरोध भी नहीं कर सकता।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता, कोलिन गोन्सॉल्विस ने बताया कि बीएनएसएस में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी डीके बसु केस की गाईडलाइनों को खत्म कर दिया है। डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि गिरफ्तारी की सुरत में, इंटेरोगेट करने वाले अधिकारी की पहचान रजिस्ट्रर में दर्ज होनी चाहिये। गिरफ्तारी मीमों पर गिरफ्रतारी की समय व स्थान अंकित होना चाहिये। पुलिस अभिरक्षा के दौरान किसी चोट आदि के संदर्भ में, गिरफ्तार व्यक्ति का मेडिकल निरीक्षण होना चाहिये। एक जमा तलाशी मीमो तैयार किया जाना जरूरी है जिस पर गिरफ्रतार व्यक्ति व पुलिस के हस्ताक्षर हो। ये बहुत ही महत्वपूर्ण आदेश था, जिसका नागरिक सुरक्षा संहिता में उपरोक्त गाईडलाईनों का नजरअंदाज किया गया है। यह नागरिक अधिकारों की घनघोर अवहेलना है।

मोदी सरकार ऐसा क्यों कर रही है? अभियुक्तों को गैर कानूनी पुलिस हिरासत में रखकर यातनायें देना भारत में आम बात है। छोटे से छोटे मुकदमें में भी अभियुक्त को गैर कानूनी पुलिस हिरासत में रखना पुलिस अपना अधिकार समझती है। पुलिस के इस निरंकुश चरित्र के उजागर होने के बाद ही सर्वोच्च अदालत ने उपरोक्त मार्गदर्शन जारी किये थे। भारत की पुलिस भी औपनिवेसिक कानून से संचालित होती है। देश में पुलिस सुधारों की मांगें बार-बार उठती रहती है। किसी भी दल की सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। पुलिस व्यवस्था में सुधार की बजाय, पुलिस रिमांड की अवधि 90 दिन तक बढ़ाकर मोदी सरकार ने पुलिस के गैर कानूनी कृत्यों कानूनी बना दिया है।                

पुलिस को असिमित शक्तियां देने के मकसद से ही उपरोक्त कथित राष्ट्रीय कानून लाये गये हैं। अब पुलिस को कानून का अतिक्रमण करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब सब कुछ कानून के दायरे में होगा। मोदी सरकार ने भारत के पहले से ही निरंकुश पुलिस तंत्र की मन की मुराद पूरी कर दी है। यह नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात है।

पुलिस हिरासत में अभियुक्त की मृत्यु कारित करने के मामले में भी भारत की दशा चिंता जनक है। पिछले पांच वर्षों में पुलिस हिरासत में मौत के सबसे ज्यादा 75 केस गुजरात में सामने आयें हैं, इसके बाद महाराष्ट्र में 76, यूपी में 46, तमिलनाडू में 40 व बिहार में 38 मौतें पुलिस हिरासत में हुई हैं। उपरोक्त आंकड़े भारत सरकार के मंत्री ने राज्य सभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब का देते हुये संसद में रखे थे। उन्होंने बताया कि भारत में साल 2017-18 में कुल 146 मौतें पुलिस हिरासत में हुई। यह आंकड़े साल 2018-19 में 136, साल 2020-21 में 175 पर रही। इनके लिये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पीड़ितों को दिया गया मुआवजा करोड़ों में है।

पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट में अधिवक्ता विपिन कुमार का मानना है कि पुलिस रिमांड की अवधि 90 दिन तक बढ़ा देने से अभियुक्त की जमानत की संभावना लगभग समाप्त हो जाऐंगी और अधुरी जांच का बहाना बनाकर पुलिस अभियुक्त की जमानत नहीं होने देगी। परिणामस्वरूप पहले से ही 130 प्रतिशत से भी ज्यादा ओवरलोडेड जेलें और ज्यादा भरने वाली हैं।

औपनिवेसिक कानून सीआरपीसी में किसी भी संज्ञेय अपराध घटित होने की सूचना प्राप्त होने पर पुलिस थाने में उस बाबत एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य था। इसके लिये किसी प्रारम्भिक जांच की जरूरत नहीं थी। उसके बावजूद भी आम आदमी के लिये थाने में एफआईआर दर्ज करवाना बहुत ही कठिन काम था। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी बनाम स्टेट ऑफ यूपी में एक संज्ञेय अपराध के बारे में बिना प्रारम्भिक जांच के ही एफआईआर दर्ज करने की बहुत ही स्पष्ट गाईडलाइन जारी की थी। लेकिन ललिता कुमारी केस की गाईडलाइनों के विपरित भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 173(3) में पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारम्भिक जांच करने की शक्ति प्रदान की गई है। ऐसा करने से पुलिस थाने में किसी संज्ञेय अपराध की एफआईआर दर्ज करवाना बहुत कठिन हो जायेगा। प्रभावशाली आरोपियों को कानून के शिकंजे से बचाने के लिये पुलिस इस शक्ति का निश्चित तौर पर दुरूपयोग करेगी।

बीएनएसएस की धारा 193 पुलिस के जांच अधिकारी को पहली बार बिना अदालत के आदेश आगामी जांच करने की अनुमति प्रदान करती है। अब अभियोजन पक्ष अतिरिक्त चलान प्रस्तुत लाकर लंबित अभियोग के दौरान ही जांच की कमियों को दुरूस्त कर सकेगा।

सीआरपीसी के अनुसार किसी भी आपराधिक मुकदमें  का ट्रायल अभियुक्त की अनुपस्थिति में नहीं चलाया जा सकता था। अदालत में गवाहों के एक्जामिनेशन व क्रॉस एक्जामिनेशन के समय अभियुक्त का अदालत में मौजुद होना आवश्यक था। साथ ही गवाहों को भी भौतिक रूप से अदालत के समक्ष आकर अपनी गवाही देनी होती थी। लेकिन भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 530 में क्रिमीनल ट्रायल की सारी कारवाईयों को इलेक्ट्रोनिक पद्धति से सम्पन्न करने का प्रावधान है और धारा 530 में कोई व्याख्या नहीं दी गई है जो यह स्पष्ट करती हो कि किन परिस्थितियों में ऑनलाईन मोड को प्राथमिकता दी जायेगी या किन परिस्थितियों में इससे बचा जायेगा। बीएनएसएस की धारा 530 में लिखा गया है-‘सभी ट्रायल, जांचपड़ताल व कारवाईयां इलेक्ट्रोनिक पद्धति से चलाई जायेगी। एक ट्रायल कोर्ट का वकील अच्छी तरह से जानता है कि आमने-सामने खड़े होकर सवाल करे बिना एक गवाह से सच्चाई उगलवाना बहुत ही कठिन काम है। दूसरा यह जेल में बंद अभियुक्त और उसके परिजनों के लिये भी हताशा भरा होगा क्योंकि अदालत में वे अभियुक्त से मिल सकते थे और उसका मनोबल बढ़ा सकते थे। अभियोग के दौरान अभियुक्त का अदालत में होना इसलिये भी अनिवार्य है ताकि वह सारी प्रक्रिया को अपनी आंखों से देख सके व अपने वकील को निर्देश दे सके। नयी संहिता की इलेक्ट्रोनिक ट्रायल पद्धति की वजह से बचाव पक्ष समस्या में पड़ सकता है। यह ओपन कोर्ट की अवधारणा के उल्ट भी है। 

भारतीय नागरिक संहिता, 2023 में एक उद्घोषित अपराधी यानि पीओ का अभियोग उसकी अनुपस्थिति में चलाने की अवधारणा पेश करती है। इलेक्ट्रोनिक मोड के ट्रायल में कम से कम अभियुक्त के प्रतिनिधि के रूप में उसका वकील अदालत में मौजुद रहता है। बीएनएसएस की धारा 356 में एक प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर(पीओ) के खिलाफ उसकी अनुपस्थिति में जांचपड़ताल, अभियोग एवं जजमेंट करने का प्रावधान किया गया है। पीओ के खिलाफ इस तरह मुकदमा चलाया जायेगा जैसाकि वह स्वयं अदालत में हाजिर हो। बीएनएसएस में पीओ घोषित करने की पूरी स्कीम को ही बदल दिया है। सीआरपीसी की धारा 82(4) में केवल आईपीसी के चुनिंदा सूचीबद्ध अपराधों के अभियुक्तों को ही पीओ घोषित करने का प्रावधान था। ये गंभीर किस्म के अपराध थे जिनमें अभियुक्त को सात साल, दस साल या आजीवन कारावास की सजायें हो सकती थी। हालांकि आईपीसी के अनेक ऐसे अपराधों को इस सूची से बाहर रखा गया था जिनमें उपरोक्त के बराबर या इनसे भी ज्यादा सजाओं का प्रावधान था। लेकिन बीएनएसएस की धारा 84(4) में उपरोक्त सूची को हटाकर, सजा की अवधि को ही पीओ घोषित करने का पैमाना बना दिया है। हालांकि धारा 299 सीआरपीसी में भी, कुछ विशेष परिस्थितियों में, अभियुक्त की गैरहाजरी में गवाहियां दर्ज करने का प्रावधान था लेकिन उसके विरूध जजमेंट नहीं सुनाया जा सकता था। लेकिन अब बीएनएसएस की धारा 356 के अनुसार गवाही, सुनवाई व जजमेंट सब कुछ पीओ अभियुक्त के बिना अदालत में हाजिर हुये भी सुनाया जा सकेगा। यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है।

औपनिवेसिक कानून में 161 सीआरपीसी के तहत पुलिस इनवेस्टिगेशन के दौरान गवाहों के बयानात पर हस्ताक्षर नहीं करवाये जाते थे। यह मानकर चला जाता था कि पुलिस के सामने गवाह दबाव में ब्यान दे सकता है या पुलिस ऐसे ब्यान की गलत व्याख्या कर सकती है। पुलिस के सामने दिया गया ब्यान अदालत में एडमिसिब्ल नहीं था। बीएनएसएस में पुलिस के सामने दिये गये ब्यानों की ऑडियो-विडियो रिर्काडिंग का प्रावधान किया गया है। जिसके बाद ब्यानों पर हस्ताक्षर करने या नहीं करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

संक्षिप्त में, अंर्तराष्ट्रीय व्यवहार के विपरित, नयी संहिता में पुलिस को किसी घर की तलाशी लेने या किसी वस्तु का जब्त करने जैसी कारवाईयां करने के लिये किसी न्यायिक आदेश की आवश्यकता नहीं है। कार्यकारी मजिस्ट्रेट को धारा 95 में किसी दस्तावेज, पार्सल व वस्तु को जब्त करने के उद्देश्य से तलाशी करने के आदेश देने के लिये सक्षम बनाया गया है तथा संहिता की धारा 149 के अनुसार अब कार्यकारी मजिस्ट्रेट   ‘सैन्य-बलों को किसी गैर कानूनी सभा में शामिल व्यक्तियों को गिरफ्रतार करने व उनको तितर-बितर करने के आदेश दे सकेंगे। वे किसी प्रकाशन के कार्य व किसी जमीन के विवाद में भी हस्तक्ष्ेप कर सकते है। महिलाओं के लिये गुजारा भत्ता का कानून बीएनएसएस में भी वैसा ही है जैसा कि औपनिवेसिक सीआरपीसी की धारा 125 में था। मोदी सरकार का नया कानून भी जारकर्म की आड़ में, अन्य पुरूष के साथ रहने वाली महिला को गुजारा भत्ता देने से स्पष्ट इंकार करता है।

अतं में यह कहना गलत नहीं होगा कि मौजुदा संहिता पहले से निरंकुश पुलिस तंत्र को और ज्यादा निरंकुश बनाती है। ये मोदी की तानाशाही को मजबुत करने के लिये लाये गये हैं जिनका उपनिवेशवाद विरोध से कोई लेना देना नहीं है।

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