मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

राष्ट्रवादी क्लॉज152 औपनिवेशिक धारा 124ए से ज्यादा खतरनाक है।

 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 में सब कुछ है जो औपनिवेसिक आईपीसी में था।

राजेश कापड़ो

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) 2023 में राजद्रोह को देशद्रोह के नाम से दोबारा परिभाषित किया गया है। बीएनएस की क्लॉज 152 कहीं ज्यादा खतरनाक है। इसके अलावा ‘राज्य के खिलाफ अपराध अध्याय में जो भी अपराध आईपीसी में वर्णित थे, वे सारे के सारे हूबहू बिना किसी बदलाव के बीएनएस में भी हैं। कार्यपालिका को मनमर्जी करने की छूट देने के मकसद से औपनिवेसिक कानूनों की भांति, बीएनएस में भी जानबूझ कर अस्पष्ट भाषा का उपयोग किया गया है ताकि जांच ऐजेंसियां मनमर्जी से उनकी व्याख्या कर सके।

बीएनएस की क्लॉज 152 पर चर्चा करने से पहले राजद्रोह के मामले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन याचिका SG Vombatkere  versus Union of India पर थोड़ी बात करना प्रासंगिक होगा। इसमें विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से आईपीसी की धारा 124ए यानि राजद्रोह को चुनौती देते हुये इसकी संवेधानिकता की पड़ताल करने की मांग माननीय सुप्रीम कोर्ट से की गई थी। इसकी सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने अपने हल्फनामे में सर्वोच्च अदालत को बताया कि वह भी धारा 124ए पर पुर्नविचार कर रही है तथा एक बार भारत सरकार इस पर पुर्नविचार करने के पश्चात अदालत इसकी संवेधानिकता की पड़ताल कर सकती है। इस प्रकार जब तक सरकार इस पर विचार करे सुप्रीम कोर्ट को राजद्रोह का इस्तेमाल करना अनुचित लगा और अदालत ने दिनांक 11 मई 2022 को अपने एक अंतरिम आदेश के माध्यम से आईपीसी की धारा 124ए के तहत एफआईआर दर्ज करने व कोई सख्त कारवाई अमल में लाने पर अंतरिम रोक लगा दी तथा धारा 124ए के तहत सभी लंबित कारवाईयों को भी रोकने के लिये आदेश कर दिया।

जैसाकि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हल्फनामा देकर कहा कि राजद्रोह को हटाने के पक्ष में है। संसद में गृहमंत्री ने पुराने कानूनों को औपनिवेसिक विरासत बताते हुये अतीत की सरकारों की आलोचना की कि आजादी के 75 साल बाद भी ये कानून क्यों नहीं हटाये गये। भाजपा सरकार की इस उपलब्धी को ऐतिहासिक कहते हुये उन्होंने कहा कि नरेन्द्र मोदी भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को 19वीं सदी से सीधा 21वीं सदी में छलांग लगवा रहे हैं। लेकिन आंकड़े तो बताते हैं कि राजद्रोह की धारा 124ए मोदी सरकार को बहुत प्रिय है। वर्ष 2010 से धारा 124ए के तहत कुल 13000 नागरिकों के खिलाफ कुल 800 अभियोग दर्ज किये गये। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिर्पोट क्राइम इन इंडिया 2020 में बताया गया है कि वर्ष 2018, 2019 व 2020 में धारा 124ए के तहत क्रमशः 70, 93 व 73 अभियोग दर्ज किये। 2021 में भी 76 मुकदमें दर्ज हुये जबकि 124ए की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी चुकी थी।

लेकिन इनमें सजा की दर बेहद कम है। वर्ष 2014 में राजद्रोह के 47 मुकदमों में से केवल एक मुकदमें में सजा हुई। 2015 में कुल 30 केसों में से किसी में भी सजा नहीं हो सकी। 2016 में 35 में से केवल एक मुकदमें में सजा हुई। 2017 में 51 में से केवल एक में सजा हुई। 2018 में 70 में से एक में सजा हुई।  2019 में दर्ज कुल 93 केसों में से केवल एक केस में सजा हुई। इसका अर्थ है कि सरकार राजद्रोह का गलत इस्तेमाल करती है व बिना किसी ठोस आधार के केवल नागरिक अधिकारों पर हमला करने के लिये एफआईआर दर्ज की जाती है।

सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम आदेश के बावजुद भी मोदी सरकार राजद्रोह का इस्तेमाल कर रही है। कैथल पुलिस ने सितंबर 2022 में एक दलित शिक्षक सुरेश द्राविड़ के खिलाफ धारा 124ए में एफआईआर दर्ज की। सुरेश द्राविड़ ने हरियाणा सरकार की गलत शिक्षा नीतियों की आलोचना करते हुये भाषण दिया था।

हालांकि मोदी सरकार दावे करती है कि राजद्रोह की औपनिवेसिक धारा को उसने कानून से हटा दिया है। लेकिन बीएनएस की धारा 152 में वे सारे प्रावधान है जो मतभेद की आवाज को दबाने के लिये सत्ताधारियों को चाहिये। क्लॉज 152 में इस्तेमाल की गई भाषा भी अस्पष्ट है जिसका जांच ऐजेंसियां कुछ भी अर्थ निकाल सकती है। संहिता में भारत की जिस संप्रभुता, एकता व अखंडता को खतरे में डालने को दंडनीय अपराध बनाया गया है। क्लॉज में प्रयुक्त इन शब्दों की कोई व्याख्या संहिता नहीं बताती। क्लॉज में इस्तेमाल ‘विघटनकारी गतिविधि व ‘अलगाव को बढ़ावा देने जैसे वाक्यांश भी अस्पष्ट हैं जिनका इच्छानुसार अर्थ निकाला जा सकता है। औानिवेसिक आईपीसी की धारा 124ए में ‘भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार लिखा गया था। जबकि बीएनएस में उसको हटाकर भारत कर दिया है। बाकि सब कुछ ज्यों का त्यों है। राजद्रोह में भारत सरकार के खिलाफ असंतुष्टि को दंडनीय बनाया गया थां हालांकि नयी संहिता की क्लॉज में सीधे सीधे सरकार शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। लेकिन इस क्लॉज की अनिश्चित व अस्पष्ट शब्दावली सरकार विरोधी भाव की अभिव्यक्ति  करने के लिये पर्याप्त है। सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाली किसी भी कारवाई को ‘विघटनकारी ठहराया जा सकता है। यह जांच ऐजेंसी के हाथ में रहेगा कि कोई अपराध क्लॉज 152 में आता है या नहीं। औपरिवेसिक धारा 124ए में इस अपराध के लिये कम से कम सजा तीन वर्ष का कारावास थी, उसको संहिता की क्लॉज 152 में बढ़ाकर सात वर्ष कर दिया है।

भारतीय न्याय संहिता में केवल राजद्रोह का नवीनीकरण ही नहीं किया बल्कि नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुतरने वाले अनेक औपनिवेसिक धारायें जैसे धर्म व धार्मिक भावना का अपमान करना व मानहानि आदि भी सुरक्षित रख ली है। नई संहिता में ये 296, 297 व 354 क्लॉज के रूप में हैं। बल्कि नई संहिता में 153बी आईपीसी के सारे प्रावधान अतिरिक्त उपबंधों सहित क्लॉज 197 में आ गये हैं। यह क्लॉज अभिव्यक्ति के उन सभी रूपों को दंडित करती है जो राष्ट्रीय एकता के लिये खतरा हो या साम्प्रदायिक सद्भाव को हानि पंहुचाने वाले हो। गुमराह करने वाली सूचना प्रसारित या प्रकाशित करना बीएनएस में दंडनीय अपराध है। लेकिन कोई सी सूचना अफवाह फैलाने वाली है, इसका निर्णय करना कार्यपालिका के हाथ में है। संप्रभुता, एकता, अखंडता और अक्षुण्ता आदि अपरिभाषित शब्दों की कब और क्या व्याख्या करनी है, यह सरकार के अधिकार क्षेत्र में रहने वाला है।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की भूमिका में कहा गया है कि आतंकवादी कृत्य को एक नये अपराध के रूप में शामिल किया गया है। नयी संहिता बीएनएस में आतंकवादी कृत्य (Terririst Act)  को परिभाषित किया गया है। इसमें भी वही शब्द एवं वाक्यांश प्रयुक्त किये गये है जिसका पहले जिक्र किया जा चुका है। बल्कि संहिता की क्लॉज 113 को कुख्यात युएपीए की धारा 15(1)(सी) से ज्यों का त्यों ले लिया गया है। क्लॉज 113 के अंत में एक व्याख्या जोड़ी गयी है- ‘एक पुलिस अधीक्षक स्तर का पुलिस अधिकारी यह निर्णय करने में सक्षम होगा कि इस क्लॉज के तहत एफआईआर दर्ज करनी है या युएपीए के तहत। बीएनएस की क्लॉज 113 में आतंकी कृत्य को इस प्रकार से परिभाषित करता है- whoever…..detains, kidnaps or abducts any person and threatening to kill or injure such person or does any other act in order to compel the Government of India, any State Government or the Government of a foreign country or an international or inter-governmental organization or any other person to do or abstain from doing any act….commits a terrorist act”.  इस परिभाषा में आंतकवादी गतिविधि का घेरा इतना व्यापक कर दिया है जिसमे ‘any other act’ भी शामिल है। इसके अनुसार कोई राज्य या केन्द्र सरकार या कोई विदेशी सरकार या संगठन या any other person भी इसका निशाना हो सकता है। ऐसे में तो राजसत्ता अपनी मर्जी से किसी को भी इसका शिकार बना सकती है। हाल ही संसद भवन में अनाधिकृत प्रवेश करके मंहगाई, बेरोजगारी आदि विषयों पर सरकार के प्रति रोष प्रकट करने वाले युवकों की कारवाई को आतंकवादी कृत्य बताकर उनके खिलाफ कुख्यात यूएपीए में मुकदमा दर्ज करना इसका ज्वलंत उदाहरण है कि सरकार इन काले कानूनों का उपयोग मतभेद की आवाज को दबाने व नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के लिये करने वाली है।

यूएपीए जैसे काले कानून की धाराओं को सामान्य कानून का हिस्सा बनाना कोई आम परिघटना नहीं है। इसको बहुत ही गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। क्योंकि यूएपीए जैसे कठोर कानून में अभियोग चलाने की अपनी एक अलग व्यवस्था है। इसमें पुलिस को आम कानून से ज्यादा अधिकार दिये गये हैं। इसके लिये विशेष अदालतों व अलग से निगरानी समितियों की व्यवस्था की गई है। केन्द्रीय गृह मंत्रलय की अनुमति के बैगर इसके तहत अभियोग नहीं चलाया जा सकता।   बीएनएस का हिस्सा बनाने से जमीनी स्तर पर इसका दुरूपयोग बढ़ेगा। क्योंकि बीएनएस में इस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा।

औपनिवेसिक धारा 124ए की तरह यूएपीए में भी सजा की दर बहुत कम है। मानवाधिकार संस्था पीयुसीएल के एक अध्ययन से यह पता चलता है कि इस यूएपीए में सजा होने की दर 2-8 प्रतिशत से भी कम है। यदि इन सजाओं के खिलाफ ऊपर की अदालतों में अपील के आंकड़े पता चले तो यह संख्या और भी कम रह जायेगी। एनसीआरबी के आंकडों के अनुसार वर्ष 2022 में यूएपीए के केसों में 41 व्यक्तियों को अदातल ने सजा की, 172 बरी किये गये व 15 लोगों को डिस्चार्ज किया गया। लेकिन इतनी कम दोषसिद्धि दर के बावजूद यूएपीए के तहत एफआईआर बड़ी संख्या में दर्ज हो रही हैं। एनसीआरबी के आंकड़ो के अनुसार वर्ष 2022 में यूएपीए में कुल 1007 नये मुकदमें दर्ज किये गये। गृहमंत्री ने संसद में कहा है कि इन कानूनों से आतंकवादियों के अलावा किसी को डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन अब तक का सरकारों का व्यवहार तो कुछ अलग ही तस्वीर पेश करता है। इसके तहत पत्रकारों, सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया है। कुख्यात भीमा कोरेगांव षड़यंत्र केस इसका उदाहरण है जिसमें देश की नामी हस्तियां पांच वर्षो से जेल में बंद मुकदमा शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें कई को जमानत पर रिहा करते हुये अदालतों ने टिप्पणियां की है कि इनके आतंकवादी कृत्य में शामिल पाये जाने के पक्ष में कोई सबूत नहीं है।

भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में आज भी फांसी जैसी प्रतिशोधात्मक सजाओं का प्रावधान है। इसमें एकांत कारावास जैसी सजाऐं हैं। इस किस्म की निकृष्ट सजाओं को दुनिया के बहुत से देशों ने बहुत पहले अपने सजा विधानों से बाहर कर दिया है।

 

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