साम्प्रदायिक ध्रुवीकरणः चुनावी वैतरणी पार करने का एकमात्र सहारा : राजेश कापड़ो
- अपने अमरीका दौरे से वापस आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर बहस शुरू कर दी। मोदी ने कहा कि जहां पर परिवार के एक सदस्य के लिये एक कानून हो, परिवार के दूसरे सदस्य के लिये दूसरा कानून हो, क्या वह घर चल सकता है? ऐसी दोहरी व्यवस्था से एक देश कैसे चल सकता है? मोदी ने एक देश-एक विधान की बात करते हुये कहा कि भारत का संविधान भी समान नागरिक संहिता की बात करता है। उन्होंने भारत के उच्चतम न्यायालय का भी हवाला दिया कि वह भी भारत सरकार को बार-बार समान नागरिक संहिता लागू करने के लिये कहता रहता है। आम चुनाव से ठीक पहले भाजपा समान नागरिक संहिता का मुद्दा क्यों उठा रही है? क्या सच में मोदी समान नागरिक संहिता लागू करना चाहता है ? या इसके माध्यम से कहीं और निशाना साधा जा रहा है?
- समान नागरिक संहिता क्या है? हमारे देश में सभी नागरिकोें के नीजि मामलों जैसे- विवाह, तलाक, विरासत एवं उत्तराधिकार, बच्चा गोद लेना-देना, भरण-पोषण आदि से संबंधित कानूनों को नागरिकों की संस्कृति, पंरपराओं व प्रथाओं के आधार पर अलग-अलग बनाया गया है। ऐसे कानूनों को उस धर्म या सम्प्रदाय के पसर्नल कानून कहा जाता है। समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक, विरासत एवं उत्तराधिकार आदि से सम्बन्धित कानून धर्म, संस्कृति आदि के आधारों पर अलग नहीं होंगे बल्कि देश के सभी नागरिकों के लिये उपरोक्त विषयों के लिये कानून एक समान होगें।
- लेकिन भाजपा अभी यूसीसी की बहस क्यों छेड़ रही है ? भाजपा एक बार फिर आम चुनाव जीतने के लिये समाज को साम्प्रदायिक आधारों पर विभाजित करने के रास्ते पर बढ़ रही है। जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव समीप आ रहा है, मोदी सरकार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कार्यक्रम पर तेज गति से बढ़ रही है। इसके तहत लव जिहाद, जमीन जेहाद आदि मुद्दे उछाले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री के सुर से सुर मिलाते हुये उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने ऐलान कर दिया है कि उनकी सरकार अपने स्तर पर यूसीसी ला रही है। इसके लिये उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवा निवर्त जज की अध्यक्षता में एक समिति के गठन की घोषणा भी कर दी।
- मोदी द्वारा यूसीसी का सवाल उठाना भी आगामी आम चुनाव की पृष्ठभूमि में देखना ही होगा। इस बहस के समय एवं निहित सामग्री से भी यही इंगित होता है। प्रधानमंत्री के यूसीसी वाले पूरे वक्तव्य में मुस्लिम समुदाय ही उनके निशाने पर हैं। उन्होंने मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों को निशाने पर लिया गया है। मोदी बता रहे हैं कि इन कुरीतियों को दुनियां के विभिन्न इस्लामिक देश भी समाप्त कर चुके हैं। उन्होनें इस्लाम धर्म में पसमांदा मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव का जिक्र भी किया। वे यूसीसी के अपने वक्तव्य में हिंदू धर्म की कुरीतियों का कहीं भी जिक्र नहीं कर रहे। इससे यह धारणा बन रही है कि यूसीसी के जरिये केवल मुस्लिम पर्सनल कानूनों को समाप्त किया जायेगा। आशंका प्रकट की जा रही है कि मोदी सरकार यूसीसी के नाम पर हिंदू संहिता थोंपने की तैयारी कर रही है। क्योंकि इस पूरी बहस में मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश किया गया है। इससे भाजपा-आरएसएस के फासीवादी मंसूबे स्पष्ट हो रहे हैं।
- क्या भाजपा सच में यूसीसी लाना चाहती है या यूसीसी का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिये कर रही है? पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने मोदी सरकार की इस कार्यनीति को एक विचारहीन कवायद बताते हुये पूछा है कि समान नागरिक संहिता किस चिड़िया का नाम है? इसका प्रारूप कहां है? आप बिना विषय वस्तु के किस चीज पर चर्चा करना चाहते हो?
- 21वां विधि आयोग 2018 में अपनी एक विस्तृत रिर्पोट में कह चुका है कि समान नागरिक संहिता न तो संभव है और न ही फिलहाल इसकी जरूरत है। विधि आयोग की इस रिर्पोट पर मोदी सरकार ने संसद में कोई चर्चा नहीं करवाई। बल्कि उसको बिना चर्चा के ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। कम से कम इसको संसद में बहस के बाद खारिज कर दिया होता। लेकिन भाजपा सरकार ने ऐसा नहीं किया। भाजपा नवगठित 22वें विधि आयोग के जरिये अपने हिंदू-मुस्लिम के एजेंडा आगे बढ़ा रही है। 22वें लॉ कमीशन ने एक सार्वजनिक नोटिस के जरिये समान नागरिक संहिता पर जनसाधारण से सुझाव एवं विचार आमंत्रित किये हैं। गजाला जमील के अनुसार यह स्पष्ट नहीं है कि विधि आयोग किस बात के लिये लोगों से सुझाव आमंत्रित कर रहा है जबकि विधि आयोग या सरकार के किसी मंत्रलय द्वारा यूसीसी का कोई प्रारूप नहीं पेश किया है, न ही इसका कोई कारण बताया है कि यूसीसी के बारे में 21वें विधि आयोग की मंत्रणा क्यों खारीज की गई है। जबकि 21वें विधि आयोग ने सरकार को यह राय दी है कि बिना यूसीसी के ही विभिन्न समुदायों के पसर्नल कानूनों में लैंगिक भेदभावों को उचित संशोधन करके समाप्त किया जा सकता है।
- सत्ताधारी भाजपा-आरएसएस ने यूसीसी के बहाने मुस्लिमों को बदनाम करके हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने के उद्देश्य से वर्तमान बहस शुरू की है। लेकिन भाजपा-आरएसएस के अंदर से ही इसका विरोध हो रहा है। इससे यह साफ हो जाता है कि देश के अंदर सिर्फ हिंदू-मुस्लिम विभाजन को और तेज करना मोदी सरकार का मकसद है।
- आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण आश्रम ने आदिवासियों को समान नागरिक संहिता के अधीन लाने का विरोध किया है। आरएसएस के आदिवासी संगठन का कहना है कि यदि आदिवासी समुदायों को समान नागरिक संहिता के अर्न्तगत लाया गया तो आदिवासी एकदम सरकार के विरोध में आ जायेगे और विद्रोह कर देंगे और उनकी सारी मेहनत बेकार हो जोयेगी। गौरतलब है कि आरएसएस लंबे समय से आदिवासियों को अपने समीप लाने के लिये काम कर रहा है। इसी प्रकार भाजपा नेता सुशील मोदी ने भी आदिवासियों को समान नागरिक संहिता से बाहर रखने की पुरजोर वकालत की है।
- इसी प्रकार भाजपा समर्थित नागालैंड की सरकार ने भी समान नागरिक संहिता का विरोध किया है। नागालैंड सरकार का मानना है कि मोदी सरकार का यह कदम नागाओं की परंपराओं व उनकी सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं के लिये एक खतरा होगा। हम इसको स्वीकार नहीं कर सकते। नागालैंड सरकार के एक मंत्री ने भारत सरकार को अनुच्छेद 371ए की याद दिलाते हुये, भारत सरकार को अपना संवैधानिक वायदा निभाने की बात कही। अनुच्छेद 371ए नागालैंड को एक विशेष राज्य का दर्जा प्रदान करता है। भारत की संसद द्वारा पारित किये जाने वाले नागाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नागाओं की परंपरागत कानून व प्रक्रिया, सिविल एवं क्रिमीनल न्याय प्रशासन के मसले-जिनका निपटारा नागाओं के परंपरागत कानून के अनुसार होना है, कृषि भूमि व उसके स्वामित्व आदि से संबंधित कोई भी कानून राज्य विधानसभा में पास हुये बगैर नागालैंड में लागू नहीं हो सकता।
- पंजाब में भी यूसीसी का व्यापक विरोध हो रहा है। कांग्रेस, आप, अकाली दल सब यूसीसी से नाराज है। एसजीपीसी ने भी इसकी कड़ी आलोचना की है। जिस सैंवेधानिक संरक्षण की बात नागालैंड के बारे की है, ऐसे ही संरक्षण देश के बहुत से राज्यों व विशेष क्षेत्रें को प्रदान किये गये है। इन संरक्षित क्षेत्रें के ऊपर केन्द्र सरकार मनमर्जी से यूसीसी को नहीं थोंप सकती। इसमें केवल नागालैंड ही नहीं है। इसमें सिक्किम सहित सारा उत्तर-पूर्व, महाराष्ट्र- गुजरात के कई हिस्से, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गोवा और हिमाचल प्रदेश आते हैं। मोदी सरकार को यूसीसी लागू करने पहले इन क्षेत्रें को संविधान द्वारा दिया गया विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करना होगा। जैसाकि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटा कर जम्मू एवं कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया है। ये बहुत ही जोखिम भरा कदम होगा, जो भारत को विभाजित करके गृह युद्ध की आग में झोंक देगा। मोदी सरकार पूरे देश को कश्मीर नहीं बना सकती।
- किसान लगातार परेशान है। युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है। 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा दिये जाने वाले अनाज पर निर्भर हैं। इस चहुंमूखी संकट के बीच, भाजपा-आरएसएस मुस्लिम समुदाय को बलि का बकरा बनाकर चुनाव की गंगा पार करने की फिराक में है। यूसीसी पर जो भाषण मोदी ने आगरा में दिया उससे भी यह साफ है कि केवल मुस्लिम पुरूष ही उसके निशाने पर हैं। क्योंकि मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति के लिये ही मोदी ने अवतार धारण किया है।
- महिला मुक्ति के सवाल को केवल मुस्लिम महिलाओं की मुक्ति तक कैसे सीमित किया जा सकता है? क्या गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ लैंगिक आधारों पर भेदभाव नहीं होता? तीन तलाक की कुप्रथा पर मुस्लिमों को कोसने से पहले यह अवश्य समझना कि पति द्वारा परित्यक्त की गई महिलाओं की संख्या अन्य धर्मों में भी कोई कम नहीं है। हिंदू धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। देश की अदालतों में ऐसी महिलाओं द्वारा दायर किये गये मुकदमों की संख्या से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ये महिलायें वर्षों से अदालतों के चक्कर लगा रही हैं। इनके पति अदालतों के आदेशों के बावजूद इन महिलाओं को नहीं अपना रहे और ना ही कानूनी प्रावधानों के बावजूद उनके भरण-पोषण का खर्च उठा रहे और इन गैर मुस्लिम मर्दों ने अपनी पत्नियों को तीन तलाक कहकर या किसी अन्य व्यवस्था से तलाक भी नहीं दिया है।
- मोदी सरकार ने तीन तलाक पर कानून बनाकर मुस्लिम मर्द द्वारा पत्नि को बेसहारा छोड़ना एक दंडनीय अपराध बना दिया। लेकिन वहीं एक हिंदू पुरूष द्वारा पत्नी को बेसहारा छोड़ना अभी भी सिविल मामला है। जिसमें कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता, ऐसे अपराध के लिये कोई सजा भी नहीं होती। जिस समान नागरिक संहिता को महिला सशक्तिकरण की चासनी में लपेट कर परोसा जा रहा है, दरअसल वह हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने का औजार है। दूसरा, इसकी सारी जिम्मेदारी विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल के कट्टरपंथियों को सौंप दी है।
- भाजपा के अनेक नेता महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा में शामिल रहे हैं। मोदी सरकार ने इनका बचाव बेशर्मी से किया है। यह वर्तमान निजाम ही है जिसमें महिला पहलवानों के साथ यौन दुर्व्यवहार की एफआईआर भी माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के दर्ज होती है। यह जगजाहिर है कि बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा झंडा लेकर भाजपा ब्रांड राष्ट्रवादी सड़कों पर उतरने में भी नहीं शर्माये और भाजपा में सजायाफ्ता बलात्कारियों का स्वागत फूलों का हार पहना कर करने की पंरपरा है। इनके वरिष्ठ नेता अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के खिलाफ सार्वजनिक रूप से आपत्तिजनक टिप्पणियां करते देखे गये हैं। मुस्लिम महिलाओं पर इनको इतना तरस क्यों आ रहा है? ये समझने की जरूरत है।
- भाजपा-आरएसएस मुस्लिम पसर्नल कानूनों में एक से ज्यादा शादियों की अनुमति देने से नाराज हैं। इनके अनुसार चार-चार शादियां करने के कारण मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है। आरएसएस की-हिंदू धर्म खतरे है-वाली अवधारणा का जन्म भी यहीं से होता है। इसलिये यूसीसी इसके इलाज के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन एक से ज्यादा शादियां करने की प्रथा केवल मुस्लिमों में ही प्रचलित नहीं है। 1961 की जनगणना के आंकडों के अनुसार भारत में मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह (5.7 प्रतिशत) उच्च जातिय हिन्दूओं (5.8 प्रतिशत) की तुलना में कम पाया गया था। यह इसका उदाहरण है कि मुस्लिम पसर्नल कानून भले ही एक से ज्यादा पत्नियां रखने की अनुमति प्रदान करते हैं लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसी घटनायें बहुत कम है।
- 2020-21 में किये गये नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (NFHS)-5 के अनुसार हालांकि मुस्लिम समुदाय में 1.9 प्रतिशत पुरूषों की एक से ज्यादा पत्नियां पायी गई थी। वहीं, इसी सर्वे में, 1.3 प्रतिशत हिंदू पुरूषों की भी एक से ज्यादा पत्नियां थी। 1961 की जनगणना के अनुसार 15 प्रतिशत विवाहित आदिवासियों की एक से ज्यादा पत्नियां थी। इसमें लगातार गिरावट आ रही है। NFHS-3 में यह दर 3.1 प्रतिशत थी, जबकि NFHS-5 में यह घटकर 2.4 प्रतिशत पर आ गयी। इसी प्रकार मुस्लिमों सहित अन्य समुदायों में भी एक से ज्यादा पत्नियां होने का चलन कम होता जा रहा है। अनुसूचित जाति महिलाओं में भी यह कम हुआ है। तीसरे सर्वे में यह 2.2 प्रतिशत था। पांचवें सर्वे में 1.5 प्रतिशत हो गया।
- ज्यादा शादियां करने से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं, यह एक कुतर्क है। कम या ज्यादा बच्चे पैदा करने का कारण कोई धर्म विशेष नहीं बल्कि इसके दूसरे कारण होते हैं। NFHS-5 की रिर्पोट से पता चलता है कि मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू एवं कश्मीर में प्रजनन दर 1.4 प्रति महिला है, जोकि राष्ट्रीय प्रजनन दर 2.0 से बहुत ज्यादा कम है। जबकि डबल इंजन की सरकार वाले हिंदू बहूल यूपी में प्रजनन दर 2.35 प्रति औरत है। जम्मू कश्मीर की प्रजनन दर बिहार, राजस्थान व हरियाणा आदि राज्यों से भी कम है।
- इस सर्वे में यह तथ्य सामने आता है कि लोगों की शिक्षा व रहन सहन में विकास होने से प्रजनन दर कम हो रही है। 1992-93 से 2019-21 तक सभी समुदायों में औरतों की प्रजनन दर में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इस अवधी में प्रजनन दर ग्रामीण क्षेत्रें में 3.7 से घटकर 2.1 तथा शहरी क्षेत्रें में 2.7 से घटकर 1.6 पर आ गई है। सर्वे से पता चलता है कि एक अनपढ़ औरत औसतन 2.8 बच्चे पैदा करती है जबकि 12वीं कक्षा तक पढ़ी लिखी औरत औसतन 1.8 बच्चे पैदा करती है।
- प्रधानमंत्री मोदी ने यूसीसी के संदर्भ में भारत के संविधान का हवाला दिया है। भारत का संविधान अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की बात करता है। लेकिन संविधान किसी समुदाय के ऊपर जबरदस्ती समान नागरिक संहिता थोंपने की बात नहीं करता। संविधान कहता है कि राज्य अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। संविधान की भाषा स्पष्ट है। इसमें कहीं भी थोंपने वाली भावना नहीं है।
- नागरिक संहिता के बारे में संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की राय भी यही थी। वह भले ही समान नागरिक संहिता के समर्थक थे लेकिन उन्होंने अल्पसंख्यक समुदायों पर समान नागरिक संहिता को जबरदस्ती थोपने का विरोध किया था। उस समय सेन्ट्रल पो्रविन्स में मुस्लिमों के नीजि मामलों पर हिन्दू पर्सनल कानून लागू होते थे। 1937 में ब्रिटिश हकूमत ने शरीयत कानून पास किया। लेकिन शरीयत कानून में एक प्रावधान करके यह मुस्लिमों की इच्छा पर छोड़ दिया कि वे अपने ऊपर शरीयत कानून को लागू करवायेंगे या हिन्दू कानून को।
- डॉ अम्बेडकर ने सरकार को जबरदस्ती समान नागरिक संहिता थोंपने के विरूद्ध चेताया था। अम्बेडकर ने कहा था, ‘किसी भी सरकार को अपनी शक्तियों को इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को विद्रोह के लिये उकसाने के लिये नहीं करना चाहिये। यदि कोई ऐसा करता है तो वह एक पागलपन होगा।’ संविधान निर्माताओं की भावना भी ऐसी ही थी। इसलिये संविधान में शब्दों का चयन सोच समझ कर किया गया है। वे संविधान में - प्रयास करेगा- की बजाय -लागू करेगा- शब्दों का इस्तेमाल भी कर सकते थे।
- राज्य को अपने नागरिकों के निहायत नीजि मसलों में ज्यादा दखल नहीं देना चाहिये। जैसा व्यवहार मोदी सरकार कर रही है, वैसा तो अंग्रेजों ने भी नहीं किया। 1916 में अंग्रेजों ने THE HINDU DISPOSITION OF PROPERTY ACT, 1916 पास किया था। इस कानून में खोजा समुदाय के लिये एक विशेष प्रावधान किया गया था कि वे इस कानून को अपने ऊपर लागू करवायें या नहीं, ये खोजा समुदाय को तय करना था, सरकार को नहीं। नीजि मामलों में नागरिकों को स्वतंत्रता देना कोई नई बात नहीं है। लेकिन खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले भारत में सत्ता पर काबिज भाजपा आरएसएस को यह कौन समझाये?
- यहां पर समान नागरिक संहिता की बहस में गोवा के यूसीसी की चर्चा करना भी जरूरी है। गोवा का नागरिक कानून भारत सरकार ने नहीं बनाया था। यह कानून पुर्तगाल की सरकार ने पास किया। 1961 में गोवा की आजादी के समय भारत सरकार को यह कानून विरासत में मिला था। हालांकि इसका नाम भी युनिफार्म सिविल कोड है। इसमें मुस्लिमों सहित सभी पर दो या दो से अधिक शादियां करने पर रोक है। लेकिन गोवा का यूसीसी, कुछ विशेष परिस्थितियों में, हिन्दूओं को दूसरी शादी करने की छूट देता है। गोवा की नागरिक संहिता में धर्म के आधार पर और भी कई असमानतायें हैं। जैसे गैर कैथोलिक लोगों की शादियों का सरकारी पंजीकरण अनिवार्य है। जबकि कैथोलिक इसाईयोें के लिये चर्च में शादी होना ही पर्याप्त है। उनको अपनी शादियों का पंजीकरण करवाने की जरूरत नहीं है।
- वर्तमान हिंदू विवाह कानून भी इसका अपवाद नहीं है। यह सब हिंदूओं- जिसमें बौद्ध, जैन व सिख भी शामिल किये गये हैं, पर एक समान रूप से लागू नहीं होता। इसमें कई किस्म के विशेष प्रावधान है, जिनके तहत अलग-अलग परंपराओं को मानने वाले हिंदूओं के लिये अलग-अलग व्यवस्थाऐं की गई हैं। मसलन, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 (vi) में निषेध संबंधों में शादी करने के मामले में संबंधित पक्षों के रीति-रिवाज एवं सामाजिक व्यवहारोें के अनुरूप कानून को लचीला बनाया गया है। इसी प्रकार धारा 5(v) में सपिण्ड पक्ष के साथ शादी संबंध वर्जित है लेकिन यहां पर यह व्यवस्था भी की गई है कि यदि शादी करने वाले पक्षों के रीति रिवाज व प्रथायें इसकी अनुमति प्रदान करते हैं तो वे सपिण्ड संबंध में भी शादी कर सकते हैं।
- संविधान का अनुच्छेद 39 अपने नागरिकों के सम्मानजनक जीवन निर्वाह के लिये पर्याप्त साधन मुहैया करवाना राज्य का उत्तरदायित्व घोषित करता है। जिसमें अपने नागरिकाें को इन जीवन निर्वाह के संसाधनों का स्वामित्व एवं नियंत्रण सुनिश्चित करने की बात की गई है। इसके बावजूद नब्बे फीसद दलित भूमिहीन हैं। वे आज भी जमींदारों के मोहताज हैं। यही स्थिति अल्पसंख्यक मुस्लिमों की है। सच्चर कमेटी की रिर्पोट में जिसका खुलासा किया जा चुका है। मोदी सरकार अनुच्छेद 39 को लागू करने की बात क्यों नहीं करती? यूसीसी से पहले, अनुच्छेद 39 को लागू करने का एक और महत्व है। पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले लोगों को जीवन निर्वाह का साधन उपलब्ध करवाना आवश्यक है। ऐसा करने से न केवल लोगों की आजीविका की समस्या हल होगी, बल्कि लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर भी उंचा उठेगा और देश के नागरिक समान नागरिक संहिता को स्वीकार करने के लिये मानसिक रूप से तैयार भी हो सकेंगे।
- कोई व्यक्ति सप्तपदी करके शादी करता है या निकाह पढ़ कर या किसी और रीति रिवाज से, इससे राज्य या किसी दूसरे समुदाय को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। किसी समुदाय की शादी-विवाह की प्रथाऐं जब तक देश के कानून या संविधान के विरोध में नहीं हैं, तब तक उस समुदाय के रीति रिवाज पर आपत्ति करने का अधिकार किसी दूसरे समुदाय को नहीं होना चाहिये। राज्य को इसमें बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जैसाकि 21वें विधि आयोग ने कहा है कि राज्य को अलग-अलग समुदायों के पसर्नल कानूनों को ज्यादा से ज्यादा लोकतांत्रिक एवं लैंगिक भेदभाव रहित बनाने का प्रयास करना चाहिये। उन पसर्नल कानूनों में जो कुछ भी संविधान विरोधी हो, उसको उन कानूनों में आवश्यक संशोधन करके सही किया जा सकता है।
- जिनको समुदाय आधारित पसर्नल कानूनों से परहेज हैं, वे अन्य कानूनों के जरिये अपने नीजि मसले शासित करवा सकते हैं। यह सम्बन्धित पक्षों के चुनाव का विषय है। भारत में हिंदू या मुस्लिम पसर्नल कानूनों के अलावा धर्मनिरपेक्ष कानून भी है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 इसका एक उदाहरण है। इस कानून के अनुुसार किसी भी धर्म या जाति से संबंधित महिला-पुरूष शादी कर सकते हैं। जबकि पसर्नल कानूनों में दोनों पक्षों का उस धर्म विशेष से संबंधित होना आवश्यक है। पसर्नल कानूनों में धर्म विशेष से बाहर शादी अवैध मानी जाती है। जिनको पसर्नल कानूनों से समस्या है, वे धर्मनिरपेक्ष कानूनों के अनुसार अपने शादी तलाक आदि मसलों को शासित करवा सकते हैं। उदाहरण के लिये मुस्लिम व इसाई पसर्नल कानूनों में बच्चा गोद लेने व देने का प्रावधान नहीं है। कोई मुस्लिम या इसाई बच्चा गोद लेना व देना चाहे तो वह किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के अनुसार बच्चा गोद ले दे सकता है। इस कानून में बिना किसी धार्मिक, जातिगत या लैंगिक भेदभाव के बच्चा गोद लेने व देने की व्यवस्था व प्रक्रिया बतायी गई है।
- कुरीतियां सभी धर्मों में हैं। इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज उस धर्म विशेष के अंदर से ही उठनी चाहिये। ये बिल्कुल भी उचित नहीं है कि कुरीतियों को मिटाने की आड़ में एक अल्पसंख्यक समुदाय को बहुसंख्यक धर्म की उन्मादि भीड़ के हवाले कर दिया जाये। यूसीसी पर मोदी सरकार के मंसूबे कुछ ऐसे ही लग रहे है। चलती रेलगाड़ी में बिना किसी उकसावे के मुस्लिम यात्रियों को गोलियों से भूनने वाले आरपीएफ के चेतन सिहं जैसे जोंबी एक दिन में तैयार नहीं होते। यूसीसी के बहाने भाजपा आएसएस ने जो आक्रामक मुहिम मुस्लिमों के खिलाफ शुरू कर दी है, ये उसी का परिणाम है। मोदी सरकार यूसीसी के बहाने अल्पसंख्यकों पर हमले करने से बाज आये। देश की जनता नफरत नहीं प्यार चाहती है। दंगा नहीं रोजगार चाहती है।
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