अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था के कारण एशिया-अफ्रीका में अशांति
विशेष लेख
आतंक
के खिलाफ युद्ध अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था का मंत्र है. आतंकवाद से युद्ध
के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट विभिन्न देशों की सहायतार्थ
स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार निर्माता कंपनियों के हथियार
खरीदने के ही काम आता है…
राजेश कापड़ो
अमरीकी अर्थ व्यवस्था एक
यु्द्ध–अर्थव्यवस्था है . अमरीका आज विश्व के कई हिस्सों में युद्ध में
उलझा हुआ है . बराक ओबामा बेशक युद्ध विरोधी भावना जो कि अमेरिका के लगातार
युद्धों में फंसे रहने के फलस्वरूप पूरे देश में उभार पर थी, पर सवार होकर
सत्ता पर काबिज हुआ . अमेरीकी युद्ध विरोधी अभियान ही नहीं, बल्कि पूरे
विश्व भर के अमन पसंद लोगों को एक भ्रम था कि हाँ, यह कुछ कर सकता है .
लेकिन अब यह भ्रम मिट चुका है ओबामा प्रशासन ने व्हाईट हाऊस पर काबिज होने
के बाद न केवल अफगानिस्तान में सैनिक बलों की संख्या में बढ़ोतरी की, बल्कि
किसी भी प्रकार से अफगानिस्तान में डटे रहने की शपथ भी ली.
विश्व
व्यापी आर्थिक संकट से उभरने के लिये युद्ध डांवाडोल अमरीकी अर्थव्यवस्था
के लिए प्राण वायु जैसा काम करता है . युद्ध अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिये
सस्ते संसाधन तो मुहैया करवाता ही है बल्कि युद्धों के फलस्वरूप तत्काल रूप
से भी फायदा पहुंचता है . इसलिए अमरीकी राज्य द्वारा जान बूझ कर हथियार
उद्योग को बढ़ावा दिया जा रहा है . अपने अधीनस्थ राज्यों को दबाव में लेकर
हथियार बेच रहा है . यह सब कुछ अधीनस्थ राज्यों में सत्ता पर काबिज सरकारें
अपने अपने सैन्य बलों के हथियारों की अपडेटिंग और अपग्रेडिंग के नाम पर कर
रही हैं .
तथाकथित आतंक के खिलाफ युद्ध भी अमरीकी युद्ध अर्थव्यवस्था
का ही मंत्र है . यह दुनिया भर में सैन्य रूप से अमरीकी आधिपत्य को तो जायज
ठहराता ही है, साथ ही अमरीकी हथियार निर्माताओं के लिए बाजार भी पैदा करके
देता हैँ . आतंकवाद से युद्ध के नाम पर अमरीकी कांग्रेस एक विशाल बजट
विभिन्न देशों की सहायतार्थ स्वीकृत करती है, जो कि अन्तत: अमरीकी हथियार
निर्माता कंपनियों के हथियार खरीदने के ही काम आता है . पाकिस्तान सहित
विभिन्न देशों को इस श्रेणी से सहायता प्रदान की जाती रही है . युद्धक
सामान बनाने वाली कम्पनियों ने अमरीकी राज्यतंत्र पर कब्जा कर लिया है,
इसलिये दुनिया भर में युद्ध होते रहे हैं .
यह अमरीकी युद्ध
अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है . यह सब आतंकवाद से लडऩे के नाम पर किया जा
रहा है . शांति कायम करने के नाम पर किया जा रहा है . विश्वभर में
अमरीकियों को और ज्यादा सुरक्षित करने के नाम पर किया जा रहा है . अमेरिका
ने 2010 में विश्व के समुचे हथियार बाजार पर अधिपत्य जमा लिया . अमेरिका की
कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की परम्परागत हथियारों की रिपोर्ट पर
गौर करें तो 2011 में अमेरिकी सरकार द्वारा 21.3 बिलियन के हथियार बेचने के
ऑर्डर पर हस्ताक्षर किए गए हैं . 2009 में ऑर्डर हस्ताक्षर करने में कुछ
कमी आई थी, लेकिन 2011 में इसमें जबरदस्त बढ़ोतरी हुई . 2009 में देखा जाए
तो कुल विश्व शस्त्र बाजार में अमेरिका का हिस्सा 35 प्रतिशत था जो कि 2010
में 53 प्रतिशत हो गया .
अमेरिकी कम्पनियों ने 2010 में 12 बिलियन डालर
के हथियारों की वास्तविक आपूर्ति की और लगातार आठ वर्षों से अमेरिका इस
मामले की अग्रणी है . हथियारों की होड़ लगी हुई है . विभिन्न हथियार
निर्यातक देश इस होड़ को अपने बाजार के स्वार्थों के वशीभूत होकर बढ़ावा दे
रहे हैं . मान लीजिये अमरीका ने भारत को एक उच्च किस्म का सैन्य सामान
बेचा तो वह इसके साथ ही पाकिस्तान को भी आश्वस्त कर रहा है कि इसको टक्कर
देने के लिये फलां किस्म का हथियार उसे भी बेचा जा सकता है . वास्तव में
अमेरीकन अर्थव्यवस्था का उदय ही एक युद्ध अर्थतंत्र के रूप में हुआ था .
दोनों बदनाम विश्व युद्धों के दौरान अमरीका हथियार उत्पादक राज्य के रूप
में उदित हुआ, जिसकी समृद्धि युद्ध में हैं शांंति में नहीें . आज भी इसका
वही चरित्र बना हुआ है .
रशियास् सैंटर फॉर एनालीसिस ऑफ वर्ल्ड आर्म
ट्रेड की अगस्त 2012 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व का सैन्य साजोसामान का
निर्यात 69.84 बिलियन डालर पर पहुंच चुका है, जोकि शीत युद्ध की समाप्ति के
बाद के अपने उच्चत्तम स्तर पर है . पिछले एक वर्ष में ही इसमें 3.84
प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है . 2011 में यह 67.26 बिलियन डालर था जो
कि 2010 के 56.22 बिलियन डालर से 20 प्रतिशत ज्यादा है . पूरे विश्व को
हथियारों से ढक देने का यह क्रूर अभियान ऐसे समय चल रहा है जबकि दुनिया भर
में कुपोषित बच्चों की संख्या 10 करोड़ पहुँच गई है .
कांगो, सोमालिया
और सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो
गए हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा
अकेले भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन
एफ एस एच) के अनुसार भारत के शादी–शुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित
महिलाओं का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का
शिकार है . 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ
इण्डिया 15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन
औसत से कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का
शिकार हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण
विकास के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
कांगो, सोमालिया और
सब सहारा क्षेत्र के विभिन्न देश वस्तुत: भूखों के देशों में तबदील हो गए
हैँ और विश्व के कुल भुखमरी ग्रस्त 820 मिलियन लोगों का चौथा हिस्सा अकेले
भारत में रहता है . 2004 – 05 के नैशनल फैमली एण्ड हैल्थ सर्वे (एन एफ एस
एच) के अनुसार भारत के शादीशुदा व्यस्कों का 23 प्रतिशत, विवाहित महिलाओं
का 52 प्रतिशत , शिशुओं का 72 प्रतिशत अनीमिया यानि खून की कमी का शिकार है
. 230 मिलियन भारतीय रोज भूखे पेट सोने को मजबूर हैं – टाइम्ज ऑफ इण्डिया
15 जनवरी, 2012 . पाँंच वर्ष आयु वर्ग के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से
कम पाया गया है . इसी आयु वर्ग के 60 प्रतिशत बच्चे अल्प विकास का शिकार
हैं . इसके बावजूद भी भारत सरकार ने वर्ष 2012–13 के बजट में ग्रामीण विकास
के लिए केवल 9900 करोड़ का आबंटन किया है .
पश्चिमी एशिया और उत्तरी
अफ्रीका के घटनाक्रमों को भी अमरीकी युद्ध अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखकर
ही समझना चाहिये . इस क्षेत्र में दिसम्बर 2011 के बाद आए जन उभार अमरीकी
सैन्य साजोसामान बनाने वाली कम्पनियों के लिये बाजार मुहैया करवा रहे हैं .
बहरीन, टयूनिशिया, मिश्र, यमन आदि देशों की सरकारों को यह कम्पनियाँ भीड़
नियन्त्रण के साजोसमान जैसे प्लास्टिक की गोलियाँ, आँसू गैस के गोले आदि
बेच रही हैं . मानवाधिकारों को पैरों तले रौंदने वाले तानाशाह शासनों की
खुली मदद कर रही हैं . सऊदी अरब ने वर्ष 2010 में 60 अरब डालर में अमरीका
निर्मित एयरकाफ्रट की खरीद को सिद्धाँत रूप से हरी झण्डी दिखा दी है . जो
तानाशाह अमरीका या पश्चिम के हितों से मोल भाव करने में तालमेल नहीं बिठाते
हैं, उन्हें लोक तन्त्र स्थापित करने के नाम हटाना अमरीकी राज्य का कोई
नया हथकण्डा नहीं है.
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल
गद्दाफी, और अब सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं
लोकतंत्र’ की मुहिम जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे
रौंदने वाले सऊदी अरब के तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद
प्राप्त है . 2008 के आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने
का काम किया . खुद हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम
किया था, या फिर मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय
संकट के फलस्वरूप सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना
पड़ा . अगले दस वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल
नही बढ़ाने या बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा
ठेकेदारों की नजर विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी
है .
इस कार्य में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा
है . हथियार आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान
के विकल्पों को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र
साऊदी अरब, यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न
बाजारों पर गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का
सपना देखना भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा,
अमरीकी कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि
2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य
साजोसामान के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए
गए खरीद सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद
सम्पन्न हुई वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील
देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल
3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का
नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष
2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात
करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है .
उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र
ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में
इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए
किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में
भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर
के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब
ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं
. अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा
सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका
मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील
देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे
ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य
साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए
. 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31
प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार
किए .
पहले इराक के सद्दाम हुसैन, फिर लिबिया के जनरल गद्दाफी, और अब
सीरिया में बसर अल असद को हटाने की अमरीकी ‘शांति एवं लोकतंत्र’ की मुहिम
जारी है . उधर बगल में ही जनता को टैंकों के नीचे रौंदने वाले सऊदी अरब के
तानाशाह, और बहरीन के शासकों को अमरीकी आशीर्वाद प्राप्त है . 2008 के
आर्थिक संकट ने बड़े स्तर पर सैन्य बजटों पर रोक लाने का काम किया . खुद
हथियार निर्माता देशों ने अपने–अपने सैन्य बजट को कम किया था, या फिर
मामूली वृद्धि की थी . लगभग सभी यूरोपीय देशों को वितीय संकट के फलस्वरूप
सैन्य बजट को न चाहते हुए भी कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा . अगले दस
वर्ष तक अमरीकी रक्षा विभाग–पैंटागन–सैन्य बजट को बिल्कुल नही बढ़ाने या
बहुत कम बढ़ाने की योजना बना चुका है . इसलिये सभी रक्षा ठेकेदारों की नजर
विदेशों खासकर विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर टिकी है .
इस कार्य
में अमरीकी शासन अपनी पूरी ताकत के साथ इनकी मदद कर रहा है . हथियार
आपूर्तिकर्ता खरीददारों को नए–नए प्रलोभन दे रहे हैं . भुगतान के विकल्पों
को आसान और अति आसान बना रहे हैं . इन युद्ध सौदागरों की नज़र साऊदी अरब,
यू–ए–ई–, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिणपूर्वी एशिया के सम्पन्न बाजारों पर
गड़ी है . इसलिये भविष्य में इस विस्तृत क्षेत्र में शांति का सपना देखना
भी पाप है क्योंकि यह पूरा क्षेत्र जितना युद्ध ग्रस्त होगा, अमरीकी
कम्पनियों और खुद अमेरिका के आर्थिक हित उतने ही सुरक्षित होंगे .
यदि
2010 के ही अध्ययनों पर नज़र डालें तो विकासशील देश अमरीकी सैन्य साजोसामान
के बड़े खरीददारों के रूप में उभर कर सामने आए हैं . सभी नए किए गए खरीद
सौदों का 70 प्रतिशत विकासशील देशों का है और समझौतों के बाद सम्पन्न हुई
वास्तविक आपूर्ति भी 63 प्रतिशत विकासशील देशों में हुई है .
विकासशील
देशों में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार है . भारत ने अमरीका से कुल
3.6 बिलियन डालर के सैन्य साजो सामान की खरीदे हैं . इसके बाद सऊदी अरब का
नम्बर है, जिसने इसी वर्ष में 2.2 बिलियन की खरीददारी की है . यदि वर्ष
2003–2010 तक विकासशील देशों द्वारा की गई सैन्य साजोसामान की खरीद की बात
करें तो 29 बिलियन डालर की खरीद के साथ साऊदी अरब प्रथम स्थान पर रहा है .
उसके बाद भारत ने 17 बिलियन डालर के सैन्य सामान खरीदे हैं . चीन और मिश्र
ने क्रमश: 13.1 और 12.1 बिलियन डालर के हथियार खरीदे हैं . इन सात वर्ष में
इज़राईल ने 10.3 बिलियन डालर के
हथियारों की खरीद की है .
यदि नए
किए गए हथियारों के खरीद करारों की बात करें तो विकासशील देशों की दौड़ में
भारत फिर पहले नंबर पर है . 2010 में भारत ने अमरीका से कुल 6 बिलियन डालर
के नए सौदे किए हैं . इसके बाद ताईवान ने 2.7 बिलियन डालर तथा साऊदी अरब
ने 2.6 अरब डालर के नए समझौते अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों से किए हैं
. अमरीका के साथ 2010 में विकासशील देशों ने कुल 30.7 अरब डालर के रक्षा
सौदों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2003 के बाद सबसे कम है . 2009 में इनका
मूल्य 50 अरब डालर था . अमेरिकी कंपनियों द्वारा वर्ष 2010 में विकासशील
देशों को 22 बिलियन डालर के हथियार आपूर्ति की गई जो कि 2006 के बाद सबसे
ज्यादा मूल्य के हैं . वर्ष 2010 में अमेरिका द्वारा कुल किए गए नए सैन्य
साजो सामान खरीद करारों में से विकासशील देशाों के साथ 49 प्रतिशत करार किए
. 2009 में विकासशील देशों के साथ होने वाले इन नए करारों का हिस्सा 31
प्रतिशत था, जबकि रूस ने वर्ष 2010 में विकासशील देशों से नए 25 फीसदी करार
किए .
इटली, फ्रांस, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोपीय शस्त्र निर्माताओं ने
2009–10 में विकासशील देशों के साथ ऐसे क्रमश: 24 प्रतिशत और 13 प्रतिशत
आर्डर प्राप्त किए . हथियार खरीद के समझौतों के कुल मूल्य के मामले मे
2003–2006 के काल में रूस ने अमरीका को पीछे छोड़ दिया था लेकिन 2007–2010
की अवधि में अमरीका ने फिर ओवरटेक कर लिया है . पिछले आठ वर्ष से अमेरिका
और रूस दोनों ही विकासशील देशों का हथियार निर्यात करने वाले प्रमुख देश
रहे हैं .
पिछले आठ वर्षों में विभिन्न हथियार निर्यातक राज्यों द्वारा
विकासशील देशों को बेचे गए कुल हथियारों के मूल्य पर गौर करें तो अमरीका
पहली पंक्ति था. इन आठ वर्षों में अमरीका ने विकासशील देशों को कुल 60 अरब
डालर के हथियार बेचे . रूस ने 38 अरब डालर तो, ब्रिटेन ने 19 अरब डालर के
हथियारों की बिक्री की . फ्रांस ने 12.13 अरब डालर, चीन ने 11 अरब डालर,
जर्मनी ने 6 अरब डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे . इजराईल ने 3.5
अबर डालर के हथियार विकासशील देशों को बेचे .
एशियाई बाजारों में भी
अमरीकी दखल बढ़ा है . 2003–2006 के काल में अमरीका द्वारा ऐशियाई देशों के
साथ कुल मूल्य के 17 प्रतिशत ऑर्डर हस्ताक्षर किए थे, जो कि 2007 से 2010
के काल में 26 प्रतिशत तक बढ़ गये . इसी चर्चित अवधि मे रूस का हिस्सा 2003
से 2006 के दौरान 36 फीसदी, और 2007 से 2010 के बीच में 30 फीसदी रहा .
निकटवर्ती पूर्वी देशों के साथ अमेरिका ने 2003–2006 में कुल हस्ताक्षर किए
गए मूल्य के 33 फीसदी आर्डर हस्ताक्षर किए और 2007–2010 के काल में यह
आश्चर्यजनक रूप से 57 प्रतिशत तक बढ़ गया .
भारत विश्व का सबसे बड़ा
हथियार आयात करने वाला देश बन गया है . भारत की हथियार आयात के विस्तार की
योजनाओं पर नजर डाले तों यह अगले दस वर्ष में 100 अरब डालर पार करने वाला
है . विभिन्न अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियां जेसै बोईंग आदि इस विशाल
सैन्य बजट से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने के लिए मचल रही हैं . भारत की
योजना अगले पांच वर्ष में सैन्य साजोसामान पर 55 अरब डालर खर्च करने की है
.
भारत के साथ 1.4 अरब डालर की लागत वाले 22 हमलावर हेलीकॉप्टर के सौदा
करने के मामले में अमरीका ने रूस को पछाड़ दिया है . अमरीकी कम्पनी बोइंग
के साथ यह करार भारत सरकार ने कर लिया है . रूस ने भारत के सामने एम आई–26
बेचने का प्रस्ताव रखा है, तो अमरीका बदले में सी एच–47 शिनूक का प्रस्ताव
रख रहा है . रूस भारत को भारी वजन लेकर उडने वाले 15 हेलीकॉप्टर बेचने के
मामले में अमरीका से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है . स्टाकहोम
इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीच्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2007–2010
के काल में 80 फीसदी हथियार, जोकि 207 अरब डालर के मूल्य के हैं, रूस से
खरीदे हैं .
यूपीए गठबंधन सरकार ने वर्ष 2012–13 के अपने रक्षा बजट में
17.63 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है . इस वित्त वर्ष में भारत सरकार ने
193407.29 करोड़ रूपये सैन्य बजट के लिये आबंटित किये हैं . वित्त वर्ष
2009–10 में भी रक्षा बजट में 34 प्रतिशत की बेतहाशा बढ़ोतरी भारत सरकार कर
चुकी है . अमरीकी कम्पनी बोईंग अपने पहले दस सी–17 ग्लोब मास्टर–111 जून,
2013 में भारत को बेचेगी . इनकी खरीद का ऑर्डर 2011 में दिया जा चुका है .
भारत
अमरीका से 4.1 अरब डालर यानि 22,960 करोड रूपये की लागत वाली यूएस एयर
फोर्स वर्कशाप खरीदना चाहता है . इसका उपयोग अमरीकी सैन्य बलों द्वारा इराक
एवं अफगानिस्तान में व्यापक रूप से किया गया था . अब तक का यह सबसे बड़ा
रक्षा समझौता दोनों सरकारों के बीच होना है . 2011 में ही भारत सरकार ने
अमरीका से हवा एवं पानी में एक साथ काम करने वाले ट्राँस्पोर्ट वैसल 50
मिलियन डालर मूल्य में खरीदा है . साथ ही इसके साथ काम करने वाले 6 यूएच–3
एच हेलीकॉप्टर भी खरीदे हैं, जिनकी कीमत 49 मिलियन डालर आँकी गई है .
इसके
अलावा 200 मिलियन मूल्य की पनडूब्बी विरोधी हारपीन मिज़ाइलें और सी–130
लम्बी दूरी की एकाऊस्टिक डिवाईसिस व अन्य रक्षा साजोसामान, जिनका मूल्य 2.1
मिलियन डालर है, अमरीका से खरीदा गया है . अमरीकी शासक वर्गों की पैदाईश
–आतंकवाद के खिलाफ युद्ध– ओर कुछ नहीं, बल्कि अमरीकी हथियार निर्माता
कम्पनियों के लिए बाजार मुहैया करवाने का मन्त्र है . भारत के शासक वर्ग
सहित सभी एशिया, अफ्रीका महाद्वीप के दलाल शासक भी अमरीका के सुर में सुर
मिलाकर यही जाप कर रहे हैं .
भारत चीन सीमा पर संभावित खतरों के नाम पर
भारत के शासक वर्ग सैन्य तैयारी बढ़ा रहे हैं . बढ़ते हुए सैन्य खर्चों को
विदेशी आक्रमण का भय दिखा कर जनता के एक हिस्से खासकर मध्यम वर्गों को अपने
पक्ष में करने का यह एक शासक वर्गीय हथकंडा है, जिस पर बाकायदा राष्ट्रवाद
का रंग चढ़ा हुआ है जोकि अमरीकी हथियार निर्माता कम्पनियों द्वारा
प्रायोजित किया जा रहा है .