रहिमन खेती राखिये बिन खेती सब सून
उदारीकरण के दौर में भारतीय कृषि और
कृषक समाज
राजेश कापड़ो
वर्तमान में हमारे देश के किसान एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता कि मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ की नव-निर्वाचित कांग्रेस सरकारों ने तीनों राज्यों में किसानों के लिये कर्जा माफी की घोषणा की है। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेताओं ने ऐलान किया था कि उनकी सरकार बनने के दस दिन के भीतर किसानों का कर्जा माफ कर दिया जाएगा। लेकिन चुनाव नतीजों से उत्साहित राहुल गांधी ने मीडिया के सामने कहा कि कर्जा माफी की घोषणा सरकार बनने के मात्र 6 घंटे के अंदर हो गयी है। एक अनुमान के अनुसार इस कर्जमाफी के लिये 80,000 करोड़ की बड़ी रकम की आवश्यकता है। कांग्रेस की सरकारें इसको कैसे संभव करेगी, यह एक अहम सवाल है? कर्जमाफी से किसानों को लाभ होगा या नहीं, इसका आंकलन भी अतीत की सरकारों द्वारा लागू की गई कर्जमाफी की योजनाओं की समीक्षा से बखूबी किया जा सकता है। किसानों की कृषि आमदनी में बढ़ोतरी के बगैर कर्जामाफी की घोषणाऐं वोट छापने वाला जुमला तो हो सकती है लेकिन कृषि संकट का समाधान हरगिज नही। बहरहाल किसान संकट में है। किसान गुस्से में भी है। सत्ता के सिहांसन पर आसीन लोगों को इसका अंदाजा हो चुका है। मोदी द्वारा सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से गरीबों के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण को वर्तमान कृषि संकट के संदर्भ में ही समझना चाहिये।
यहां
पर हम भारतीय खेती को रूबरू एक भयानक संकट पर प्रकाश डालना चाहते हैं। यह एक गंभीर
विषय है। क्योंकि भारत की कुल श्रम शक्ति का लगभग आधा कृषि क्षेत्र में रोजगार
पाता है। देश की 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से
अपनी आजीविका के लिये आज भी खेती पर निर्भर है। लेकिन जीडीपी में कृषि का हिस्सा
वर्ष 2014-2015 में महज 17.4 प्रतिशत था और
यह हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों की
औसत आय, अन्य क्षेत्रें में कार्यरत बाकि आधे कामगारों की आय की तुलना में छह
गुणा कम है। मालिक किसान, बटाईदार और खेत मजदूर सभी मिलकर इस
ग्रामीण श्रम शक्ति का निर्माण करते है। इतनी कम आमदनी में इनके रहन-सहन, खानपान,
शिक्षा,
आवास,
स्वास्थ्य
की दशाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 2016 में जारी
आंकड़ो के अनुसार भारत में पांच वर्ष तक की आयु के 37 प्रतिशत बच्चे
अल्पविकसित हैं। इनमें से 61 प्रतिशत खून की कमी के शिकार हैं। 15 से
49 आयु वर्ग की आधे से ज्यादा महिलाओं में भी खून की कमी है। हिंदू में
प्रकाशित यह रिर्पोट दावा करती है कि पिछले 30-40 वर्षों में इस
बीमारी से निपटने के लिये भारत में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया गया। इन बीमारियों
से लड़ने के लिये किसी बड़े बजट या अनुसंधानों की आवश्यकता नही है बल्कि पर्याप्त
पौषाहार की कमी ही इनका कारण है । जिसके लिये खेती को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्यान्न एवं कृषि संगठन के अनुसार विश्व की कुपोषित जनता
में भारत का हिस्सा वर्ष 1992 और 2012 के बीच बढ़ा
है। भूमंडलीकरण की नीतियों ने खेती को तबाह कर दिया है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण की रिर्पोट से पता चलता है कि गरीब किसान
कृषि की आमदनी से अपने रोजमरा के खर्चे भी नहीं चला पाते हैं।
2014
में मोदी के सत्ता में आने बाद से वह लगातार भाषण देते आये है कि उनकी सरकार
किसानों की आय दोगुणा करने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है। मोदी ने अपने भाषणों
में (और केवल भाषणों में ही) कहा कि 2022 तक किसानों की आय निश्चित रूप से
दोगुणा हो जायेगी। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सरकार के पास इस लक्ष्य को
हासिल करने की कोई आधिकारिक परियोजना नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय और वित
मंत्रलय ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि मोदी की इस घोषणा का असल में क्या अर्थ है।
अरूण जेटली ने अपने 2016-2017 के बजटिय भाषण में, धरतीपुत्रो
का आभार प्रकट करते हुए कहा था कि सरकार अब कृषि क्षेत्रें में नये सिरे से
हस्तक्षेप कर 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने की दिशा
में काम करेगी। लेकिन जेटली ने इसी बजट में कृषि व किसानों के कल्याण पर जीडीपी का
महज 0.26
प्रतिशत ही खर्च किया है। मोदी सरकार ने इस वर्ष खेती का बजट कम कर दिया है। 2015-2016
में यह बजट जीडीपी का 0.27 प्रतिशत था। किसानों की आय ऐसे तो दोगुणी नहीं
हो सकती। कांकेर की महिला किसान चन्द्रमणि ने मोदी के इस जुमले की धज्जियां तो
बहुत पहले ही उड़ा दी थी जब एबीपी न्यूज पर पून्य प्रसून वाजपेयी के कार्यक्रम
मास्टर स्ट्रोक में सच सामने आया कि किसी किसान की आय दोगुणी नहीं हुई बल्कि
दिल्ली के अधिकारियों ने चन्द्रमणि को पहले ही इसके लिये तैयार किया गया था।
इसलिये उसने वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिये मोदी को बताया था कि उनकी आय दोगुणी हो
गयी है। मोदी सरकार किसानों की हितैषी होने का दावा करती है। यह दावा कितना खोखला
है? यदि हम ग्रामीण क्षेत्रो में कृषि, मनरेगा तथा जल
संसाधनों आदि के विकास पर किये जाने वाले सरकारी खर्चे को एक साथ जोड़ ले तो भी यह
2016-2017 में जीडीपी का महज एक (1) प्रतिशत ही बैठेगा।
कृषि
में विकास के लिये निवेश बढ़ाने की सख्त जरूरत थी। इसके बिना वर्तमान संकट से पार
नहीं पाया जा सकता था। पूंजी निवेश के बिना कृषि में नई तकनीक नहीं लाई जा सकती
तथा कृषि सम्बन्धी नये अनुसंधान नहीं किये जा सकते। हमारी कृषि एवं कृषक समाज की
मौजूदा बदहाली को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हमारी कृषि को आपराधिक रूप से
नजरअंदाज किया गया है। खेती को अकेले कृषक एवं प्रकति के भरोसे छोड़ दिया गया है।
इसके लिये बड़े स्तर पर राजकीय निवेश एवं नियोजन की आवश्यकता थी। लेकिन हमारे देश
में ठीक इसके विपरित किया गया। सरकारों ने कृषि को आधुनिक कृषि के रूप में विकसित
करने की कोई योजना ही नहीं बनाई। देश की आधी से ज्यादा श्रम-शक्ति को रोजगार व 70
प्रतिशत जनसंख्या को रोटी प्रदान करने वाले भारतीय अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण
क्षेत्र पर नीति निर्माताओं को केंद्रित करना चाहिये था। आंकड़ों की मदद से यह
समझने की कोशिश करते हैं कि हमारे करणधारों ने क्या किया है? वर्ष
1980-81 में कृषि क्षेत्र में सकल पुंजी निवेश का केवल 17
प्रतिशत निवेश किया गया था। यह 1990-91 आते-आते घटकर 9.5 प्रतिशत रह गया। परिणामस्वरूप खेती
में पूंजी निवेश घटते ही यहां से आने वाला पूंजी निर्माण भी कम हो गया। उदाहरण के
लिये 1980-81 में देश के सकल पूंजी निमार्ण में कृषि का
योगदान 15.05
प्रतिशत था। यह 1990-91 में घटकर 10.04 प्रतिशत तथा
वर्ष 2000-01 में महज 6.91 प्रतिशत पर आ
गया। 1990 के दशक में भूमंडलीकरण की नीतियां अपनाने के बाद से खेती में लगातार
अपर्याप्त पूंजी निर्माण हो रहा है। फलस्वरूप भारत की कृषि में उच्च तकनीकि बदलाव
और आधारभूत ढांचे का विकास एकदम अवरूद्ध है। खेती का यह पिछड़ापन समूची अर्थ
व्यवस्था को प्रभावित करता है। पहला, कृषि उद्योग के लिये कच्चा माल उपलब्ध
कराती है। दूसरा, कृषि के विकास पर ग्रामीण आबादी की खरीद शक्ति
निर्भर करती है। एक बड़ा एवं मजबूत घरेलू बाजार अंततः एक सशक्त एवं आत्म निर्भर
अर्थ व्यवस्था का आधार बनता है। जिसको हम सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीय अर्थ
व्यवस्था कह सकते हैं। हमारे देश में कृषि और उद्योग के इस द्वंद्वात्मक संबध को
ही समझा ही नहीं गया।
भारत
सरकार की कृषि नीति नेहरू के समय से ही साम्राज्यवादी हितों के अधीन रही है। 1948
में ही अमेरीका ने अपना कृषि मिशन भारत में स्थापित किया। यहां पीएल-480 का
गेहूं आना शुरू हो गया। जो कांग्रेस घास हमारे देश में पाया जाता है, वह
इसी पीएल-480 गेहूं के साथ आया था। यह वातावरण बनाया गया कि
अमरीकी नीति को स्वीकार करो या भूखे मरो। अमेरीका ने इन खाद्य ऋणों के माध्यम से
अपना अतिरिक्त गेहूं भारत में डंप किया और इसके साथ ही भारत पर विभिन्न शर्तें भी
थोंप दी। अमेरीका ने यह ‘मेहरबानी’ कर दी थी कि
भारत सरकार इन खाद्य ऋणों की अदायगी डॉलर की अपेक्षा रूपये में कर सकती है।
इसलिये अमेरीका ने इन ऋणों से मिलने वाली विशाल धनराशी का संचय भी भारत में ही
किया। यह विशाल धनराशी बाद में हमारे देश की सरजमीन पर अमेरीकी हितों के अनुरूप
शिक्षा तथा अन्य कानूनी-गैर कानूनी कारवाईयों को अंजाम देने के काम आयी। इस काल के
बजटिय आबंटन के दृष्टिकोण से देखा जाये तो इसमें कृषि को प्राथमिकता दी गई नजर आती
है। पहली पांच पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर कुल योजना व्यय का सबसे ज्यादा आबटंन
किया गया। लेकिन भयंकर अकालों व सरकार की नीतिगत असफलताओं से 1960 के
दशक के अंत तक खेती का संकट गहरा हो गया। जिसके समाधान के रूप में हरित क्रांति को
लांच किया गया।
1970 के
दशक की शुरूआत से हरित क्रांति काल शुरू होता है। हरित क्रांति ने खाद्यान्नों की
पैदावार में बढ़ोतरी की। कृषि जीडीपी की सालाना विकास दर को 4.7 पर
पहुंचा दिया। 1970 में यह विकास दर 1.7 प्रतिशत वार्षिक थी। लेकिन जल्द ही
उत्पादकता की विकास दर नीचे गिरने लगी। कृषि लागतें अत्याधिक रूप से बढ़ गयी। यह
खेती से होने वाली आमदनी को भी लांघ गयी। वर्ष 1970-71 और 1982-83 के
बीच कृषि पैदावार की कुल लागत में खाद 28.1 प्रतिशत, डीजल एवं बिजली 10
प्रतिशत, उच्च उत्पादकता वाले बीज 12 प्रतिशत और अन्य लागतों का हिस्सा 17 प्रतिशत
हो गया। जिसने मध्यम और धनी किसानों के एक हिस्से के लिये भी खेती को घाटे का सौदा
बना दिया । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफों के लिये अंधाधुंध रसायनिक खादें,
जहरीले
कीटनाशक व खरपतवार नाशकों के प्रयोग ने पर्यावरण के लिये खतरा पैदा कर दिया।
भूमिगत जल के विवेकहीन दोहन के कारण जल स्तर नीचे गिरने लगा। हरित क्रांति के
क्षेत्रो में आज जल स्तर पाताल में पहुंच चुका है। हरित क्रांति ने ग्रामीण जनता
में गैर बराबरी और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया। साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ में भारत
सरकार ने हरित क्रांति को भूमि-सूधारों के विकल्प के तौर पर अपनाया था। जिसका सीधा
लाभ बड़ी कम्पनियों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अलावा बड़े
जमींदारों व धनी किसानों के एक हिस्से को हुआ है।
तालिकाओं 1,2,3
में कृषि क्षेत्र को प्रदान किये गये सहकारी समितियों, बैंकों व अन्य
संस्थागत रियायती ऋणों का विवरण दिया गया है। भूमि सूधारों के बगैर इन सारी
रियायतों का लाभ ग्रामीण अभिजात वर्ग को ही जाना था क्योंकि ग्रामीण सत्ता संरचना
पर इस वर्ग की मजबूत पकड़ थी।
1990 के
दशक की शुरूआत से वर्तमान तक
उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण का काल है। नरसिहं राव व मनमोहन सिहं ने इन
नीतियों को लागू करते हुए देश की जनता से यह वादा किया था कि इन नीतियों के अपनाने
से रोजगार बढे़गा, सबके लिये
समावेशी विकास तथा स्मृद्धि हासिल हो सकेगी। लेकिन गत 25 वर्षों में
परिणाम ठीक विपरित रहे हैं। भारतीय अर्थ व्यवस्था के ठोस अध्ययन से पता चलता है कि
इस कालखंड में भारतीय खेती एक अभूतपूर्व संकट में जा फंसी। अंग्रेजों के जाने के
बाद भारतीय खेती ने ऐसा गंभीर और भयानक संकट कभी नहीं देखा। इसकी सबसे भीषण
अभिव्यक्ति किसान आत्म हत्याओं के रूप में प्रकट हुई। वर्ष 1997 से
लेकर आज तक लगभग 3 से 5 लाख तक किसान आत्म हत्या कर चुके हैं।
मासिक समाचार पत्र मजदूर-बिगुल ने अपने दिसंबर 2018 के अंक में
लिखा कि अकेले मोदी शासन के चार वर्षों के दौरान 50,000 से ज्यादा
किसानों ने आत्महत्या की है। तालिका 4
देखें।
तथाकथित आर्थिक सुधारों के इस काल में ग्रामीण विकास के खर्चों में भारी
कटौती की गई। पहले से ही कम कृषि निवेश को और कम कर दिया गया। कृषि लागतों -खाद,
बीज,
उर्वरक,
कीट
व खरपतवार नाशक आदि-के भाव आसमान छूने लगे। विश्व बाजार में घटित होने वाले
फसल-भावों के उतार चढ़ावों ने भारतीय खेती उत्पादों के सामने समस्या खड़ी कर दी ।
कृषि आयात के लिये भारतीय बाजारों को जबरन खोल दिया गया। भारत के किसानों को
मुनाफे की हवस में पागल विशाल वैश्विक दैत्यों के सामने फैंक दिया गया था। उचित
फसल बीमा का अभाव, ध्वस्त ग्रामीण ऋण व्यवस्था और अपर्याप्त
कृषि सबसीडी आदि की वजह से भूमिहीन, गरीब व मध्यम किसान बिल्कूल हासिये पर
धकेल दिये गये। परिणामस्वरूप वर्तमान कृषि संकट और भड़क उठा। किसानों की लाभकारी व
न्यायसंगत मूल्यों की मांगों पर समय की सरकारों की उदासीनता ने भी कोई कसर नहीं
छोड़ी।
एलपीजी
के इस हमले में बर्बाद हुए तिलहन उत्पादक किसानों के उदाहरण से इस संकट की गंभीरता
को समझा जा सकता है। भारत में तिलहन का उत्पादन वर्ष 1996-97 में 2.44
करोड़ टन था। 1998-99 में घटकर यह 2.17 करोड़ टन रह
गया। 2001 में यह आर्श्चयजनक रूप से 1.9 करोड़ टन तक जा गिरा। इसनें लाखों
किसानों की तबाही के अलावा तेल उद्योग को भी प्रभावित किया। कर्नाटक राज्य में
खाद्य तेल का उत्पादन करने वाली 60 प्रतिशत इकाईयां बंद हो गयी। वर्ष 1993-94
में भारत अपनी खपत का 95.5 प्रतिशत खाद्य तेल उत्पादन करता था। सन् 2000
में यह उत्पादन केवल 57 प्रतिशत रह गया। अब भारत दुनिया का सबसे बड़ा
खाद्य तेल आयातक देश बन गया। देशी नारियल तेल की कीमतें अपने निम्नतम स्तर तक गिर
गयी। नारियल तेल की कीमतें वर्ष 1997 में 6825 रूपये क्विंटल
थी जो वर्ष 2000 में 2825 रूपये क्विंटल
पर आ गयी। इस संकट ने अकेले केरल के 35 लाख नारियल उत्पादक किसानों को
प्रभावित किया था। यह एक छोटी तस्वीर है। भारत एक विशाल कृषि प्रधान देश है। इस
हमले में ध्वस्त भारतीय कृषि और कृषक समुदाय की संपूर्ण तस्वीर भयावह व रोंगटे
खड़े करने वाली है। आर्थिक विकास संस्थान दिल्ली के कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी
ने जून 1998 में इंडिया टूडे से बात करते हुए कहा था - यदि
आजादी के 50 वर्ष बाद भी अन्नदाता आत्महत्या कर
रहा है तो हमारी नीतियों में कोई अनुवांशिक दोष हैं। यहां एक
कृषि-विरोधी पूर्वाग्रह काम करता है। नीति निर्माण के दौरानं किसानों के प्रति
भेदभाव किया जाता है। असल में केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियां मूल रूप से कृषि
विरोधी हैं।
लेकिन
विडंबना यह है कि भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां किसान हितैषी होने का दावा करती
है। 1990 के दशक में कांग्रेस ने उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की
किसान विरोधी-राष्ट्र विरोधी नीतियों को लागू किया। संयुक्त मोर्चा की सरकार में
शामिल रहे घटक दलों ने सत्ता से बाहर रहते हुए भले ही एलपीजी की नीतियों को आर्थिक
गुलामी की नीतियां बताया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद पूर्व की कांग्रेस-सरकार से
भी ज्यादा तेजी से अर्थ व्यवस्था का उदारीकरण किया तथा विदेशी कम्पनियों के हितों की
रक्षा की। भाजपा की फर्जी देशभक्ति उस समय बेनकाब हो गई, जब भाजपा
नेतृत्व वाली सरकार ने देश के कृषक समाज
के हितों पर कुठाराघात किया और आयातों के ऊपर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिये
गये। इसका अर्थ था कि अब विदेशी उत्पादों पर भारत के बाजारों में आने पर कोई रोक
नहीं होगी। भाजपा सरकार के इस कदम से पहले एक तयशुदा मात्र से ज्यादा विदेशी आयात
भारत में नहीं आ सकता था। भाजपा के इस देशद्रोही कदम से ही वास्तव में भारत के
किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ। इसके बाद भारत के बाजारों में विदेशी
कृषि उत्पादों की बाढ़ आ गई। अमेरीका में प्रति वर्ष 2000 करोड़ डालर
कृषि सबसीडी दी जाती है। अमरीकी किसानों को मिलने वाली यह आर्थिक सहायता भारत की
कुल कृषि पैदावार से भी ज्यादा है। भारत की संसद में मुस्किल से कोई राजनीतिक दल
होगा जो भूमंडलीकरण के इस हमले के खिलाफ भारत के किसानों के साथ खड़ा हो। सड़को पर
दिखावटी विरोध प्रदर्शन करने वाला, भारत का वामपंथ भी, इन
नीतियों का समर्थन करता है। किसानों के रोष की लहर पर सवार होकर सत्ता की बाजी
मारने वाले बहुत मिल जाएगें। सभी राजनीतिक दल चुनाव के समय कृषक समुदाय का वोट
हासिल करने के लिये लुभावने नारे देते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा किसानों के लिये
कर्जमाफी की घोषणाओं का चुनाव साधने के अलावा कोई मतलब नहीं है। युपी में
योगी-मोदी कर्ज माफी लाये थे। मध्यप्रदेश-राजस्थान-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने यही
किया। 2019 के आम चुनाव में विपक्षी पार्टियां कर्जमाफी का दांव ही चलने वाली
है। किसान सगंठनों का नेतृत्व भी अपने वर्गीय हितों के कारण
उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की कृषक विरोधी-राष्ट्र विरोधी नीतियों के सारतत्व को
नहीं समझ सकता। आमतौर पर बड़े जमीदार या धनी किसान ही वर्तमान किसान आंदोलन का
नेतृत्व कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इसी वर्ग ने एलपीजी की नीतियों से लाभ
उठाया है। ग्रामीण क्षेत्रों को जाने वाले आर्थिक पैकेजों, सरकारी
सबसिडियों तथा सहकारी बैंकों के माध्यम से मिलने वाले रियायती ऋणों का सबसे ज्यादा लाभ इसी वर्ग को
मिला है। ग्रामीण क्षेत्रों में सूदखोरी, कृषि के लिये खाद-बीज-तेल-कीटनाशक
बिक्री व अन्य व्यवसाय यही वर्ग करता है। मंडियों में कमीशन ऐजेंट या आढ़ती इसी
वर्ग से आते हैं। विभिन्न संसदीय दलों के साथ सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध इसी वर्ग का है।
मेहनतकश किसान समुदाय के अंदर जातिवाद-साम्प्रदायिकता आदि प्रतिक्रियावादी
विचारधाराओं का पोषण यही वर्ग करता है।
दुर्भाग्य से यही वर्ग किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है।
मोदी
राज में इन नीतियों की मार झेल रही भारत की कृषि को देखते हैं। यह तात्पर्य कदापि
नहीं है कि विकास दर में बढ़ोतरी किसी तरक्की का प्रमाण है। विकास दर भ्रामक हो
सकती है। फिर क्षेत्र विशेष में घ्टित होने वाले उतार-चढ़ाव सालाना विकास दर से
समझे जा सकते हैं। वर्ष 2018 की आर्थिक सर्वेक्षण रिर्पोट के
अनुसार भारत में कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र की विकास दर वर्ष 2012-13
में 1.5
प्रतिशत के आसपास रही। वर्ष 2014 में यह दर 5.6 प्रतिशत थी। यही विकास दर वर्ष 2015-2016
में 0.7
प्रतिशत तथा 2016-2017 में 4.9 प्रतिशत रही। यह विकास दर इतने
आश्चर्यजनक रूप से ऊपर नीचे क्यों होती है? यह भारतीय खेती
के अत्याधिक रूप से मानसून पर निर्भर होने का सबूत है। यदि मानसून अच्छा रहता है
तो खेती की विकास दर अच्छी रहती है। मानसून के चकमा देने पर विकास दर भी चकमा दे
जाती है। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी खेती ‘भगवान’ भरोसे
चल रही है। आज भी 70 प्रतिशत जनता अपनी आजीविका खेती से चलाती है।
इसका अर्थ यह है कि जनता के बहुत बड़े हिस्से की आजीविका ‘भगवान’ भरोसे
चल रही है।
कृषकों
की मासिक आय के आंकड़े चौकाने वाले हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे 2012-13 के
अध्ययन अनुसार भारत में एक किसान परिवार की सभी स्रोतों से औसत मासिक आय 6426
रूपये थी। लगभग 87 प्रतिशत किसान परिवार इस आमदनी से खेतीबाड़ी
पर आने वाला खर्चा भी नहीं निकाल पा रहे। जिसका सीधा सा अर्थ है कि खेतीबाड़ी पर
लागत लगातार बढ़ रही जबकि आय घट रही है। 2015-2016 के आर्थिक
सर्वेक्षण के अनुसार भी 17 राज्यों के किसानों की वार्षिक आय 20,000
रूपये से कम थी। यह एक औसत आय है। जिसमें
धनी मध्यम और बड़े जमींदारों की आय भी शामिल है। यह स्वाभाविक है कि बड़े जमीदारों
व धनी किसान ज्यादा आय हासिल करते हैं। इसलिये भूमिहीन और गरीब किसानों के पास तो
आय के नाम कुछ बचता ही नहीं होगा। इसका अर्थ है ज्यादातर किसानों को अगली फसल की
बिजाई के लिये जरूरी निवेश भी कर्जा उठाकर ही करना पड़ता है।
कर्ज का मकड़जाल
तथाकथित
आर्थिक सुधारों के बाद किसानों में ऋण
ग्रस्तता बढ़ रही है। नेशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़ो के अनुसार 2002-2003
में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या 48.6 प्रतिशत थी, जो 2012-2013
बढ़कर 51.9
प्रतिशत हो गये। आकड़ों के अनुसार कर्ज ग्रस्त किसान परिवारों की संख्या बढ़ रही
है। प्रति परिवार कर्ज की राशी भी बढ़ रही है। उपरोक्त सर्वे के अनुसार देश के 18
में से 12 राज्यों में कर्ज ग्रस्त किसानों की संख्या बढ़ी है। किसान परिवारों
की वार्षिक आय का ज्यादातर हिस्सा कर्ज चुकाने में जा रहा है। 2002-2003
में किसान परिवारों की वार्षिक आय का 49.6 प्रतिशत कर्ज था। 2012-2013
में यह बढ़कर परिवार की वार्षिक आमदनी का 61 प्रतिशत हो
गया। 10 वर्षों में यह 11.4 प्रतिशत बढ़ा है। उल्लेखनीय है कि
वर्ष 2002-03 में सूखा पड़ा था जबकि 2012-13 एक
सामान्य वर्ष था। कर्जों का यह मकड़जाल 70 प्रतिशत गरीब किसानों की दयनीय
हालातों को दर्शाने के लिये काफी है। किसानों का यह तबका खेती से अपनी जरूरतें
पूरी नहीं कर पाता। आज भी कर्ज के लिये सुदखोर-साहूकारों पर निर्भर है।
इसी
समय किसानों को बैंकों से मिलने वाले कर्जों में गिरावट आई है। 1991-92
में बैंक खेती के लिये 70 प्रतिशत तक कर्ज दे रहे थे। 2011-2012
में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत पर आ गया है। 90 के दशक में
भूमंडलीकरण के तीव्र हमले के साथ ही बैंको द्वारा किसानों को कर्ज न देने का रूझान
बढ़ा है। 2002-03 के आंकड़े आते-आते ग्रामीण क्षेत्रें में
साहूकारों एवं गैर संस्थागत स्रोतों से लिये जाने वाले कर्जों में बढोतरी दिखाई
देने लगी। बड़े या धनी किसान बैंको से सस्ते दरों पर कर्ज हासिल करने में कामयाब
हो जाते हैं। यह कई कारणों से गरीब एवं भूमिहीन किसानों के लिये संभव नहीं है। यह
बैंक पूंजी बड़े जमीदारों व धनी किसानों के हाथों में आने के बाद खुद एक सुदखोरी
पूंजी का रूप धारण कर लेती है जो ऊंची ब्याज दरों पर गरीब एवं भूमिहीन किसानों को
कर्ज के रूप में दी जाती है। एनएसएस के 2012-13 के आंकड़ो में
कर्ज ग्रस्त किसानों द्वारा ब्याज की अदायगी या प्रचलित ब्याज दरों के बारे में
जानकारी नहीं मिलती। साहूकारों या सूदखोरों पर आधारित अनौपचारिक कर्ज बाजार
ग्रामीण क्षेत्रों में काफी प्रचलित है। एनएसएस के अधिकारी इस कर्ज बाजार के
अध्ययन में कोई दिलचस्पी नहीं रखते या जानबूझ कर इस पर पर्दा पड़े रहने देते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला एक साधारण व्यक्ति भी यह अच्छी तरह जानता है कि
साहूकारों की ब्याज दरें कम से कम 2 से 5 प्रतिशत मासिक
होती है। हरियाणा पंजाब में आढती ना केवल किसानों को खेती के लिये कर्ज मुहैया
करवाते हैं बल्कि खेती के लिये खाद-बीज-कीटनाशक व डीजल आदि जरूरी सामान की बिक्री
भी करते हैं। इसके अलावा अन्य घरेलू सामान कपड़ा या करियाना आदि भी यही लोग बेचते
हैं। किसानों को अपनी फसल बेचने की एवज में ये आढती नकद राशी नहीं देते। अमूमन
किसान को आढती एक पर्ची लिखकर थमा देता जिस पर लिखा होता है कि इस किसान को अमुक
सामान की अमुक मात्र दे दो। यह सामान देने वाली दुकान या तो खुद आढती की ही होती
है या उसके साथ आढ़ती का कोई अनुबंध व हिस्सेदारी होती है। इस व्यवस्था के कारण
किसान के पास मोलभाव करने का कोई अवसर नही बचता। इस आर्थिक संबंध के परिणामस्वरूप
साहूकार या आढ़ती किसानों का मनमाफिक खून निचौड़ लेते हैं। एनएसएस के अनुसार 9
करोड़ 2 लाख किसान परिवारों पर कुल 4,23,000 करोड़ रूपये
कर्जा है। जिसमें 29.5 प्रतिशत कर्ज साहूकारों व आढ़तियों का है। 2012-13 के
आंकड़ो के अनुसार प्रति परिवार 47,000 रूपये बकाया हैं जिसके ब्याज का भुगतान करना भी किसान
के लिये कठिन हो जाता है। इन परिस्थितियों में पैदावार बढ़ाने के लिये कृषि निवेश
में बढ़ोतरी किसान चाह कर भी नहीं कर सकता।
‘आरक्षण’ मांग और वर्तमान
कृषि संकटः
पिछले
दिनों भयंकर कृषि संकट और बढ़ती बेरोजगारी के कारण जाट व मराठा जैसी प्रभुत्वशाली
जातियां भी आरक्षण की मांग पर आंदोलनों पर उतारू थी। जबकि मराठा समुदाय का ऊपरी
तबका महाराष्ट्र के शासक वर्ग का एक प्रमुख हिस्सा है। आस्पेक्ट्स ऑफ इंडियाज्
इकोनोमी अंक 66-67 ने बताया है कि महाराष्ट्र की 75% कृषि भूमि मराठों के पास हैं। वे 71
प्रतिशत सहकारी संस्थाओं के मालिक हैं। राज्य की 185 चीनी मीलों में
से 86 मीलें मराठों की हैं। इसी प्रकार 54 प्रतिशत शिक्षण
संस्थाओं के मालिक मराठे हैं। 1962 से 2004 तक निर्वाचित
कुल 2430 विधायकों में से 55 प्रतिशत मराठा थे। राज्य के 17 मुख्यमंत्रियों
में से 12 मराठा थे। इसके बावजूद इस जाति की बड़ी आबादी कृषि संकट व रोजगार की
समस्या झेल रही है। आरक्षण की मांग उठाने वाली जाट एवं पटेल जातियों के मामले में
भी यही सच है।
वर्तमान
कृषि संकट भूमंडलीकरण की नीतियों की देन है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि ये
नीतियां 1990 के दशक में विदेशी निवेशकों व वैश्विक पूंजी
के दलाल भारतीय पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिये लायी गयी थी । इन 25
सालों में कृषि क्षेत्र पर किये जाने वाले सरकारी निवेश में भारी कमी आयी है।
ग्रामीण क्षेत्र में किये जाने वाले अन्य सरकारी खर्चो में कटौती की गई है। सरकारी
बैंकों ने किसानों को कर्ज देना कम किया है। विदेशी कृषि उत्पादों के लिये बाजार
को खोला गया है। भूमंडलीकरण ने भारत की कृषि को चौपट कर दिया है। जिसके कारण कृषि
की लागत लगातार बढती चली गयी तथा कृषि उत्पादों के बाजार भाव या तो कम होते गये या
स्थिर बने रहे। गौरतलब है कि इन 25 वर्षों के दौरान हमने केंद्र व
राज्यों में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों का शासन भी देख लिया है। स्वराज अभियान
के संस्थापक योगेन्द्र यादव ने इस कृषि संकट के बारे में बताते हुए कहा कि यह एक
शाश्वत ढांचागत संकट है- हर साल, हर फसल और हर तरह के किसान को प्रभावित
करने वाला संकट है। ये ऐसा संकट है जो हमारे आर्थिक विकास के ढांचे में
अन्तर्निहित है। इसका अर्थ है कि ढांचागत
परिवर्तन के बिना वर्तमान संकट का निदान संभव नहीं है। भारत में लगभग 60
प्रतिशत कृषि उत्पादन को किसानों द्वारा उपभोग के लिये ही रख लिया जाता है।
भूमंडलीकरण के इस खतरनाक हमले ने गुजारे की खेती को भी दुभर बना दिया है। बेशर्मी
की हद है कि भारत में इन किसान विरोधी-जन विरोधी नीतियों को नई कृषि नीतियां बताया
जाता है।
बेरोजगारी
व चौतरफा संकट से हताश किसानों के बेटे-बेटियां एक उच्च जातिय हिंसक भीड़ में
तबदील हो रहे हैं। इस संकट से उपजी निराशा के कारण ये आसानी से धार्मिक उन्मादियों
द्वारा अंजाम दी जाने वाली मोब लिंचिंग, साम्प्रदायिक तथा जातिय दंगों की
कारवाईयों के लिये पैदल सैनिक बन जाते हैं। 2013 के मुज्जफरनगर
के दंगों में यही हुआ था। हरियाणा के दुलिना कांड में किसान युनियन धार्मिक
उन्मादियों के साथ खड़ी थी। समाज के ये संकट ग्रस्त तबके ही ग्रामीण क्ष्रेत्रों में फासीवाद का सामाजिक आधार बनते हैं।
मेहनतकश जनता के अंदर जाति-धर्म-संप्रदाय का विभाजन पैदा करने की ये गतिविधियां
फासीवादी गिरोहों द्वारा योजनाबद्ध रूप से
चलायी जाती है। यह सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है। यह पहले कहा जा चुका
है कि बड़े जमींदार या धनी किसान वर्ग से आये लोग ही किसान सगंठनों के नेतृत्व पर
काबिज हैं। इसलिये ये संगठन न तो गरीब एंव मध्यम किसानों की जायज मांगों को उठाते
और न ही राजनीतिक रूप से किसान समुदाय के अंदर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-नीजिकरण के
खिलाफ एक सचेत आंदोलन का निर्माण कर सकते हैं। समय समय पर
उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने वाली देश की तमाम संसदीय
पार्टियों से किसान समुदाय को कोई उम्मीद नहीं है? कर्जमाफी,
आरक्षण
आदि मिल जाने से यह संकट हल होने वाला नहीं है। धार्मिक अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय
के प्रति नफरत पालने से यह संकट टलने वाला नहीं है। एससीएसटी कानून या तरह-तरह के
बहाने से दलित जातियों के खिलाफ गुस्सा निकालने से भी यह कृषि संकट हल नहीं होगा।
अपनी अपनी जातियों को आगे रखकर आरक्षण के लिये आंदोलन से कुछ हासिल होने वाला नहीं
है। यह मेहनत करके खाने वालों को आपस में लड़ाने का एक षड़यंत्र है। मेहनतकश
किसानों को यह समझने की जरूरत है कि उदारीकरण की नीतियों ने भारतीय खेती को रसातल
में धकेल दिया है। इस संकट ने हिदूं और मुस्लिम, सभी को बिना
भेदभाव के तबाह किया है। आंकड़े बोलते हैं कि खेती के संकट के कारण आत्महत्या करने
वालों में अच्छी खासी संख्या खेतीहर मजदूरों की भी है। ये भूमिहीन स्वाभाविक रूप
से दलित जातियों से आते है। वर्तमान कृषि संकट की सबसे भयानक मार ये भूमिहीन ही
झेल रहे हैं। यदि कृषि को बचाना है तो साम्राज्यवाद समर्थित एलपीजी की नीतियों को
हटाना होगा। जाति-धर्म की फर्जी लड़ाइयों से किनारा करते हुए उद्घोष करना होगा कि
हम केवल मेहनतकश किसान हैं, हमारी खेती-किसानी खतरे में है,
हमारा
समूचा जीवन खतरे में है, अतंतः हमारी आने वाली पीढि़यों का जीवन
खतरे में है। इसलिये उदारीकरण-नीतिकरण-भूमंडलीकरण विरूद्ध निर्णायक संघर्ष छेड़ने
के अलावा भारत के कृषकों के सामने और कोई विकल्प बचा नहीं है।