बुधवार, 10 अप्रैल 2019

रहिमन खेती राखिये बिन खेती सब सून



               
रहिमन खेती राखिये बिन खेती सब सून

उदारीकरण के दौर में भारतीय कृषि और कृषक समाज
राजेश कापड़ो


वर्तमान में हमारे देश के किसान एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता कि मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ की नव-निर्वाचित कांग्रेस सरकारों ने तीनों राज्यों में किसानों के लिये कर्जा माफी की घोषणा की है। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेताओं ने ऐलान किया था कि उनकी सरकार बनने के दस दिन के भीतर किसानों का कर्जा माफ कर दिया जाएगा। लेकिन चुनाव नतीजों से उत्साहित राहुल गांधी ने मीडिया के सामने कहा कि कर्जा माफी की घोषणा सरकार बनने के मात्र 6 घंटे के अंदर हो गयी है। एक अनुमान के अनुसार इस कर्जमाफी के लिये 80,000 करोड़ की बड़ी रकम की आवश्यकता है। कांग्रेस की सरकारें इसको कैसे संभव करेगी, यह एक अहम सवाल है? कर्जमाफी से किसानों को लाभ होगा या नहीं, इसका आंकलन भी अतीत की सरकारों द्वारा लागू की गई कर्जमाफी की योजनाओं की समीक्षा से बखूबी किया जा सकता है। किसानों की कृषि आमदनी में बढ़ोतरी के बगैर कर्जामाफी की घोषणाऐं वोट छापने वाला जुमला तो हो सकती है लेकिन कृषि संकट का समाधान हरगिज नही। बहरहाल किसान संकट में है। किसान गुस्से में भी है। सत्ता के सिहांसन पर आसीन लोगों को इसका अंदाजा हो चुका है। मोदी द्वारा सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से गरीबों के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण को वर्तमान कृषि संकट के संदर्भ में ही समझना चाहिये।
                यहां पर हम भारतीय खेती को रूबरू एक भयानक संकट पर प्रकाश डालना चाहते हैं। यह एक गंभीर विषय है। क्योंकि भारत की कुल श्रम शक्ति का लगभग आधा कृषि क्षेत्र में रोजगार पाता है। देश की 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका के लिये आज भी खेती पर निर्भर है। लेकिन जीडीपी में कृषि का हिस्सा वर्ष 2014-2015 में महज 17.4 प्रतिशत था और यह हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों की औसत आय, अन्य क्षेत्रें में कार्यरत बाकि आधे कामगारों की आय की तुलना में छह गुणा कम है। मालिक किसान, बटाईदार और खेत मजदूर सभी मिलकर इस ग्रामीण श्रम शक्ति का निर्माण करते है। इतनी कम आमदनी में इनके रहन-सहन, खानपान, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य की दशाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 2016 में जारी आंकड़ो के अनुसार भारत में पांच वर्ष तक की आयु के 37 प्रतिशत बच्चे अल्पविकसित हैं। इनमें से 61 प्रतिशत खून की कमी के शिकार हैं। 15 से 49 आयु वर्ग की आधे से ज्यादा महिलाओं में भी खून की कमी है। हिंदू में प्रकाशित यह रिर्पोट दावा करती है कि पिछले 30-40 वर्षों में इस बीमारी से निपटने के लिये भारत में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया गया। इन बीमारियों से लड़ने के लिये किसी बड़े बजट या अनुसंधानों की आवश्यकता नही है बल्कि पर्याप्त पौषाहार की कमी ही इनका कारण है । जिसके लिये खेती को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्यान्न एवं कृषि संगठन के अनुसार विश्व की कुपोषित जनता में भारत का हिस्सा वर्ष 1992 और 2012 के बीच बढ़ा है। भूमंडलीकरण की नीतियों ने खेती को तबाह कर दिया है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। अखिल भारतीय  और निवेश सर्वेक्षण की रिर्पोट से पता चलता है कि गरीब किसान कृषि की आमदनी से अपने रोजमरा के खर्चे भी नहीं चला पाते हैं।
                2014 में मोदी के सत्ता में आने बाद से वह लगातार भाषण देते आये है कि उनकी सरकार किसानों की आय दोगुणा करने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है। मोदी ने अपने भाषणों में (और केवल भाषणों में ही) कहा कि 2022 तक किसानों की आय निश्चित रूप से दोगुणा हो जायेगी। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सरकार के पास इस लक्ष्य को हासिल करने की कोई आधिकारिक परियोजना नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय और वित मंत्रलय ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि मोदी की इस घोषणा का असल में क्या अर्थ है। अरूण जेटली ने अपने 2016-2017 के बजटिय भाषण में, धरतीपुत्रो का आभार प्रकट करते हुए कहा था कि सरकार अब कृषि क्षेत्रें में नये सिरे से हस्तक्षेप कर 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने की दिशा में काम करेगी। लेकिन जेटली ने इसी बजट में कृषि व किसानों के कल्याण पर जीडीपी का महज 0.26 प्रतिशत ही खर्च किया है। मोदी सरकार ने इस वर्ष खेती का बजट कम कर दिया है। 2015-2016 में यह बजट जीडीपी का 0.27 प्रतिशत था। किसानों की आय ऐसे तो दोगुणी नहीं हो सकती। कांकेर की महिला किसान चन्द्रमणि ने मोदी के इस जुमले की धज्जियां तो बहुत पहले ही उड़ा दी थी जब एबीपी न्यूज पर पून्य प्रसून वाजपेयी के कार्यक्रम मास्टर स्ट्रोक में सच सामने आया कि किसी किसान की आय दोगुणी नहीं हुई बल्कि दिल्ली के अधिकारियों ने चन्द्रमणि को पहले ही इसके लिये तैयार किया गया था। इसलिये उसने वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिये मोदी को बताया था कि उनकी आय दोगुणी हो गयी है। मोदी सरकार किसानों की हितैषी होने का दावा करती है। यह दावा कितना खोखला है? यदि हम ग्रामीण क्षेत्रो में कृषि, मनरेगा तथा जल संसाधनों आदि के विकास पर किये जाने वाले सरकारी खर्चे को एक साथ जोड़ ले तो भी यह 2016-2017 में जीडीपी का महज एक (1) प्रतिशत ही बैठेगा।
                कृषि में विकास के लिये निवेश बढ़ाने की सख्त जरूरत थी। इसके बिना वर्तमान संकट से पार नहीं पाया जा सकता था। पूंजी निवेश के बिना कृषि में नई तकनीक नहीं लाई जा सकती तथा कृषि सम्बन्धी नये अनुसंधान नहीं किये जा सकते। हमारी कृषि एवं कृषक समाज की मौजूदा बदहाली को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हमारी कृषि को आपराधिक रूप से नजरअंदाज किया गया है। खेती को अकेले कृषक एवं प्रकति के भरोसे छोड़ दिया गया है। इसके लिये बड़े स्तर पर राजकीय निवेश एवं नियोजन की आवश्यकता थी। लेकिन हमारे देश में ठीक इसके विपरित किया गया। सरकारों ने कृषि को आधुनिक कृषि के रूप में विकसित करने की कोई योजना ही नहीं बनाई। देश की आधी से ज्यादा श्रम-शक्ति को रोजगार व 70 प्रतिशत जनसंख्या को रोटी प्रदान करने वाले भारतीय अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर नीति निर्माताओं को केंद्रित करना चाहिये था। आंकड़ों की मदद से यह समझने की कोशिश करते हैं कि हमारे करणधारों ने क्या किया है? वर्ष 1980-81 में कृषि क्षेत्र में सकल पुंजी निवेश का केवल 17 प्रतिशत निवेश किया गया था। यह 1990-91 आते-आते घटकर 9.5 प्रतिशत रह गया। परिणामस्वरूप खेती में पूंजी निवेश घटते ही यहां से आने वाला पूंजी निर्माण भी कम हो गया। उदाहरण के लिये 1980-81 में देश के सकल पूंजी निमार्ण में कृषि का योगदान 15.05 प्रतिशत था। यह 1990-91 में घटकर 10.04 प्रतिशत तथा वर्ष 2000-01 में महज 6.91 प्रतिशत पर आ गया। 1990 के दशक में भूमंडलीकरण की नीतियां अपनाने के बाद से खेती में लगातार अपर्याप्त पूंजी निर्माण हो रहा है। फलस्वरूप भारत की कृषि में उच्च तकनीकि बदलाव और आधारभूत ढांचे का विकास एकदम अवरूद्ध है। खेती का यह पिछड़ापन समूची अर्थ व्यवस्था को प्रभावित करता है। पहला, कृषि उद्योग के लिये कच्चा माल उपलब्ध कराती है। दूसरा, कृषि के विकास पर ग्रामीण आबादी की खरीद शक्ति निर्भर करती है। एक बड़ा एवं मजबूत घरेलू बाजार अंततः एक सशक्त एवं आत्म निर्भर अर्थ व्यवस्था का आधार बनता है। जिसको हम सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था कह सकते हैं। हमारे देश में कृषि और उद्योग के इस द्वंद्वात्मक संबध को ही समझा ही नहीं गया।  
                भारत सरकार की कृषि नीति नेहरू के समय से ही साम्राज्यवादी हितों के अधीन रही है। 1948 में ही अमेरीका ने अपना कृषि मिशन भारत में स्थापित किया। यहां पीएल-480 का गेहूं आना शुरू हो गया। जो कांग्रेस घास हमारे देश में पाया जाता है, वह इसी पीएल-480 गेहूं के साथ आया था। यह वातावरण बनाया गया कि अमरीकी नीति को स्वीकार करो या भूखे मरो। अमेरीका ने इन खाद्य ऋणों के माध्यम से अपना अतिरिक्त गेहूं भारत में डंप किया और इसके साथ ही भारत पर विभिन्न शर्तें भी थोंप दी। अमेरीका ने यह मेहरबानीकर दी थी कि भारत सरकार इन खाद्य ऋणों की अदायगी डॉलर की अपेक्षा रूपये में कर सकती है। इसलिये अमेरीका ने इन ऋणों से मिलने वाली विशाल धनराशी का संचय भी भारत में ही किया। यह विशाल धनराशी बाद में हमारे देश की सरजमीन पर अमेरीकी हितों के अनुरूप शिक्षा तथा अन्य कानूनी-गैर कानूनी कारवाईयों को अंजाम देने के काम आयी। इस काल के बजटिय आबंटन के दृष्टिकोण से देखा जाये तो इसमें कृषि को प्राथमिकता दी गई नजर आती है। पहली पांच पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर कुल योजना व्यय का सबसे ज्यादा आबटंन किया गया। लेकिन भयंकर अकालों व सरकार की नीतिगत असफलताओं से 1960 के दशक के अंत तक खेती का संकट गहरा हो गया। जिसके समाधान के रूप में हरित क्रांति को लांच किया गया।
                1970 के दशक की शुरूआत से हरित क्रांति काल शुरू होता है। हरित क्रांति ने खाद्यान्नों की पैदावार में बढ़ोतरी की। कृषि जीडीपी की सालाना विकास दर को 4.7 पर पहुंचा दिया। 1970 में यह विकास दर 1.7 प्रतिशत वार्षिक थी। लेकिन जल्द ही उत्पादकता की विकास दर नीचे गिरने लगी। कृषि लागतें अत्याधिक रूप से बढ़ गयी। यह खेती से होने वाली आमदनी को भी लांघ गयी। वर्ष 1970-71 और 1982-83 के बीच कृषि पैदावार की कुल लागत में खाद 28.1 प्रतिशत, डीजल एवं बिजली 10 प्रतिशत, उच्च उत्पादकता वाले बीज 12 प्रतिशत और अन्य लागतों का हिस्सा 17 प्रतिशत हो गया। जिसने मध्यम और धनी किसानों के एक हिस्से के लिये भी खेती को घाटे का सौदा बना दिया । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफों के लिये अंधाधुंध रसायनिक खादें, जहरीले कीटनाशक व खरपतवार नाशकों के प्रयोग ने पर्यावरण के लिये खतरा पैदा कर दिया। भूमिगत जल के विवेकहीन दोहन के कारण जल स्तर नीचे गिरने लगा। हरित क्रांति के क्षेत्रो में आज जल स्तर पाताल में पहुंच चुका है। हरित क्रांति ने ग्रामीण जनता में गैर बराबरी और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया। साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ में भारत सरकार ने हरित क्रांति को भूमि-सूधारों के विकल्प के तौर पर अपनाया था। जिसका सीधा लाभ बड़ी कम्पनियों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अलावा बड़े जमींदारों व धनी किसानों के एक हिस्से को हुआ है। 






तालिकाओं 1,2,3 में कृषि क्षेत्र को प्रदान किये गये सहकारी समितियों, बैंकों व अन्य संस्थागत रियायती णों का विवरण दिया गया है। भूमि सूधारों के बगैर इन सारी रियायतों का लाभ ग्रामीण अभिजात वर्ग को ही जाना था क्योंकि ग्रामीण सत्ता संरचना पर इस वर्ग की मजबूत पकड़ थी।  
                1990 के दशक की शुरूआत से वर्तमान तक  उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण का काल है। नरसिहं राव व मनमोहन सिहं ने इन नीतियों को लागू करते हुए देश की जनता से यह वादा किया था कि इन नीतियों के अपनाने से रोजगार  बढे़गा, सबके लिये समावेशी विकास तथा स्मृद्धि हासिल हो सकेगी। लेकिन गत 25 वर्षों में परिणाम ठीक विपरित रहे हैं। भारतीय अर्थ व्यवस्था के ठोस अध्ययन से पता चलता है कि इस कालखंड में भारतीय खेती एक अभूतपूर्व संकट में जा फंसी। अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय खेती ने ऐसा गंभीर और भयानक संकट कभी नहीं देखा। इसकी सबसे भीषण अभिव्यक्ति किसान आत्म हत्याओं के रूप में प्रकट हुई। वर्ष 1997 से लेकर आज तक लगभग 3 से 5 लाख तक किसान आत्म हत्या कर चुके हैं। मासिक समाचार पत्र मजदूर-बिगुल ने अपने दिसंबर 2018 के अंक में लिखा कि अकेले मोदी शासन के चार वर्षों के दौरान 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।  तालिका 4 देखें।

तथाकथित आर्थिक सुधारों के इस काल में ग्रामीण विकास के खर्चों में भारी कटौती की गई। पहले से ही कम कृषि निवेश को और कम कर दिया गया। कृषि लागतों -खाद, बीज, उर्वरक, कीट व खरपतवार नाशक आदि-के भाव आसमान छूने लगे। विश्व बाजार में घटित होने वाले फसल-भावों के उतार चढ़ावों ने भारतीय खेती उत्पादों के सामने समस्या खड़ी कर दी । कृषि आयात के लिये भारतीय बाजारों को जबरन खोल दिया गया। भारत के किसानों को मुनाफे की हवस में पागल विशाल वैश्विक दैत्यों के सामने फैंक दिया गया था। उचित फसल बीमा का अभाव, ध्वस्त ग्रामीण ऋण व्यवस्था और अपर्याप्त कृषि सबसीडी आदि की वजह से भूमिहीन, गरीब व मध्यम किसान बिल्कूल हासिये पर धकेल दिये गये। परिणामस्वरूप वर्तमान कृषि संकट और भड़क उठा। किसानों की लाभकारी व न्यायसंगत मूल्यों की मांगों पर समय की सरकारों की उदासीनता ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
                एलपीजी के इस हमले में बर्बाद हुए तिलहन उत्पादक किसानों के उदाहरण से इस संकट की गंभीरता को समझा जा सकता है। भारत में तिलहन का उत्पादन वर्ष 1996-97 में 2.44 करोड़ टन था। 1998-99 में घटकर यह 2.17 करोड़ टन रह गया। 2001 में यह आर्श्चयजनक रूप से 1.9 करोड़ टन तक जा गिरा। इसनें लाखों किसानों की तबाही के अलावा तेल उद्योग को भी प्रभावित किया। कर्नाटक राज्य में खाद्य तेल का उत्पादन करने वाली 60 प्रतिशत इकाईयां बंद हो गयी। वर्ष 1993-94 में भारत अपनी खपत का 95.5 प्रतिशत खाद्य तेल उत्पादन करता था। सन् 2000 में यह उत्पादन केवल 57 प्रतिशत रह गया। अब भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन गया। देशी नारियल तेल की कीमतें अपने निम्नतम स्तर तक गिर गयी। नारियल तेल की कीमतें वर्ष 1997 में 6825 रूपये क्विंटल थी जो वर्ष 2000 में 2825 रूपये क्विंटल पर आ गयी। इस संकट ने अकेले केरल के 35 लाख नारियल उत्पादक किसानों को प्रभावित किया था। यह एक छोटी तस्वीर है। भारत एक विशाल कृषि प्रधान देश है। इस हमले में ध्वस्त भारतीय कृषि और कृषक समुदाय की संपूर्ण तस्वीर भयावह व रोंगटे खड़े करने वाली है। आर्थिक विकास संस्थान दिल्ली के कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने जून 1998 में इंडिया टूडे से बात करते हुए कहा था - यदि आजादी के 50 वर्ष बाद भी अन्नदाता आत्महत्या कर रहा है तो हमारी नीतियों में कोई अनुवांशिक दोष हैं। यहां एक कृषि-विरोधी पूर्वाग्रह काम करता है। नीति निर्माण के दौरानं किसानों के प्रति भेदभाव किया जाता है। असल में केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियां मूल रूप से कृषि विरोधी हैं।
                लेकिन विडंबना यह है कि भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां किसान हितैषी होने का दावा करती है। 1990 के दशक में कांग्रेस ने उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की किसान विरोधी-राष्ट्र विरोधी नीतियों को लागू किया। संयुक्त मोर्चा की सरकार में शामिल रहे घटक दलों ने सत्ता से बाहर रहते हुए भले ही एलपीजी की नीतियों को आर्थिक गुलामी की नीतियां बताया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद पूर्व की कांग्रेस-सरकार से भी ज्यादा तेजी से अर्थ व्यवस्था का उदारीकरण किया तथा विदेशी कम्पनियों के हितों की रक्षा की। भाजपा की फर्जी देशभक्ति उस समय बेनकाब हो गई, जब भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने  देश के कृषक समाज के हितों पर कुठाराघात किया और आयातों के ऊपर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिये गये। इसका अर्थ था कि अब विदेशी उत्पादों पर भारत के बाजारों में आने पर कोई रोक नहीं होगी। भाजपा सरकार के इस कदम से पहले एक तयशुदा मात्र से ज्यादा विदेशी आयात भारत में नहीं आ सकता था। भाजपा के इस देशद्रोही कदम से ही वास्तव में भारत के किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ। इसके बाद भारत के बाजारों में विदेशी कृषि उत्पादों की बाढ़ आ गई। अमेरीका में प्रति वर्ष 2000 करोड़ डालर कृषि सबसीडी दी जाती है। अमरीकी किसानों को मिलने वाली यह आर्थिक सहायता भारत की कुल कृषि पैदावार से भी ज्यादा है। भारत की संसद में मुस्किल से कोई राजनीतिक दल होगा जो भूमंडलीकरण के इस हमले के खिलाफ भारत के किसानों के साथ खड़ा हो। सड़को पर दिखावटी विरोध प्रदर्शन करने वाला, भारत का वामपंथ भी, इन नीतियों का समर्थन करता है। किसानों के रोष की लहर पर सवार होकर सत्ता की बाजी मारने वाले बहुत मिल जाएगें। सभी राजनीतिक दल चुनाव के समय कृषक समुदाय का वोट हासिल करने के लिये लुभावने नारे देते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा किसानों के लिये कर्जमाफी की घोषणाओं का चुनाव साधने के अलावा कोई मतलब नहीं है। युपी में योगी-मोदी कर्ज माफी लाये थे। मध्यप्रदेश-राजस्थान-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने यही किया। 2019 के आम चुनाव में विपक्षी पार्टियां कर्जमाफी का दांव ही चलने वाली है। किसान सगंठनों का नेतृत्व भी अपने वर्गीय हितों के कारण उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की कृषक विरोधी-राष्ट्र विरोधी नीतियों के सारतत्व को नहीं समझ सकता। आमतौर पर बड़े जमीदार या धनी किसान ही वर्तमान किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इसी वर्ग ने एलपीजी की नीतियों से लाभ उठाया है। ग्रामीण क्षेत्रों को जाने वाले आर्थिक पैकेजों, सरकारी सबसिडियों तथा सहकारी बैंकों के माध्यम से मिलने वाले रियायती णों का सबसे ज्यादा लाभ इसी वर्ग को मिला है। ग्रामीण क्षेत्रों में सूदखोरी, कृषि के लिये खाद-बीज-तेल-कीटनाशक बिक्री व अन्य व्यवसाय यही वर्ग करता है। मंडियों में कमीशन ऐजेंट या आढ़ती इसी वर्ग से आते हैं। विभिन्न संसदीय दलों के साथ सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध इसी वर्ग का है। मेहनतकश किसान समुदाय के अंदर जातिवाद-साम्प्रदायिकता आदि प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं का पोषण यही वर्ग करता है।  दुर्भाग्य से यही वर्ग किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है।
                मोदी राज में इन नीतियों की मार झेल रही भारत की कृषि को देखते हैं। यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि विकास दर में बढ़ोतरी किसी तरक्की का प्रमाण है। विकास दर भ्रामक हो सकती है। फिर क्षेत्र विशेष में घ्टित होने वाले उतार-चढ़ाव सालाना विकास दर से समझे जा सकते हैं। वर्ष 2018 की आर्थिक सर्वेक्षण रिर्पोट के अनुसार भारत में कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र की विकास दर वर्ष 2012-13 में 1.5 प्रतिशत के आसपास रही। वर्ष 2014 में यह दर 5.6 प्रतिशत थी। यही विकास दर वर्ष 2015-2016 में 0.7 प्रतिशत तथा 2016-2017 में 4.9 प्रतिशत रही। यह विकास दर इतने आश्चर्यजनक रूप से ऊपर नीचे क्यों होती है? यह भारतीय खेती के अत्याधिक रूप से मानसून पर निर्भर होने का सबूत है। यदि मानसून अच्छा रहता है तो खेती की विकास दर अच्छी रहती है। मानसून के चकमा देने पर विकास दर भी चकमा दे जाती है। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी खेती भगवानभरोसे चल रही है। आज भी 70 प्रतिशत जनता अपनी आजीविका खेती से चलाती है। इसका अर्थ यह है कि जनता के बहुत बड़े हिस्से की आजीविका भगवानभरोसे चल रही है।
                कृषकों की मासिक आय के आंकड़े चौकाने वाले हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे 2012-13 के अध्ययन अनुसार भारत में एक किसान परिवार की सभी स्रोतों से औसत मासिक आय 6426 रूपये थी। लगभग 87 प्रतिशत किसान परिवार इस आमदनी से खेतीबाड़ी पर आने वाला खर्चा भी नहीं निकाल पा रहे। जिसका सीधा सा अर्थ है कि खेतीबाड़ी पर लागत लगातार बढ़ रही जबकि आय घट रही है। 2015-2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भी 17 राज्यों के किसानों की वार्षिक आय 20,000 रूपये से कम थी।  यह एक औसत आय है। जिसमें धनी मध्यम और बड़े जमींदारों की आय भी शामिल है। यह स्वाभाविक है कि बड़े जमीदारों व धनी किसान ज्यादा आय हासिल करते हैं। इसलिये भूमिहीन और गरीब किसानों के पास तो आय के नाम कुछ बचता ही नहीं होगा। इसका अर्थ है ज्यादातर किसानों को अगली फसल की बिजाई के लिये जरूरी निवेश भी कर्जा उठाकर ही करना पड़ता है।
कर्ज का मकड़जाल
                तथाकथित आर्थिक सुधारों के बाद किसानों में ण ग्रस्तता बढ़ रही है। नेशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़ो के अनुसार 2002-2003 में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या 48.6 प्रतिशत थी, जो 2012-2013 बढ़कर 51.9 प्रतिशत हो गये। आकड़ों के अनुसार कर्ज ग्रस्त किसान परिवारों की संख्या बढ़ रही है। प्रति परिवार कर्ज की राशी भी बढ़ रही है। उपरोक्त सर्वे के अनुसार देश के 18 में से 12 राज्यों में कर्ज ग्रस्त किसानों की संख्या बढ़ी है। किसान परिवारों की वार्षिक आय का ज्यादातर हिस्सा कर्ज चुकाने में जा रहा है। 2002-2003 में किसान परिवारों की वार्षिक आय का 49.6 प्रतिशत कर्ज था। 2012-2013 में यह बढ़कर परिवार की वार्षिक आमदनी का 61 प्रतिशत हो गया। 10 वर्षों में यह 11.4 प्रतिशत बढ़ा है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2002-03 में सूखा पड़ा था जबकि 2012-13 एक सामान्य वर्ष था। कर्जों का यह मकड़जाल 70 प्रतिशत गरीब किसानों की दयनीय हालातों को दर्शाने के लिये काफी है। किसानों का यह तबका खेती से अपनी जरूरतें पूरी नहीं कर पाता। आज भी कर्ज के लिये सुदखोर-साहूकारों पर निर्भर है।

           इसी समय किसानों को बैंकों से मिलने वाले कर्जों में गिरावट आई है। 1991-92 में बैंक खेती के लिये 70 प्रतिशत तक कर्ज दे रहे थे। 2011-2012 में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत पर आ गया है। 90 के दशक में भूमंडलीकरण के तीव्र हमले के साथ ही बैंको द्वारा किसानों को कर्ज न देने का रूझान बढ़ा है। 2002-03 के आंकड़े आते-आते ग्रामीण क्षेत्रें में साहूकारों एवं गैर संस्थागत स्रोतों से लिये जाने वाले कर्जों में बढोतरी दिखाई देने लगी। बड़े या धनी किसान बैंको से सस्ते दरों पर कर्ज हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं। यह कई कारणों से गरीब एवं भूमिहीन किसानों के लिये संभव नहीं है। यह बैंक पूंजी बड़े जमीदारों व धनी किसानों के हाथों में आने के बाद खुद एक सुदखोरी पूंजी का रूप धारण कर लेती है जो ऊंची ब्याज दरों पर गरीब एवं भूमिहीन किसानों को कर्ज के रूप में दी जाती है। एनएसएस के 2012-13 के आंकड़ो में कर्ज ग्रस्त किसानों द्वारा ब्याज की अदायगी या प्रचलित ब्याज दरों के बारे में जानकारी नहीं मिलती। साहूकारों या सूदखोरों पर आधारित अनौपचारिक कर्ज बाजार ग्रामीण क्षेत्रों में काफी प्रचलित है। एनएसएस के अधिकारी इस कर्ज बाजार के अध्ययन में कोई दिलचस्पी नहीं रखते या जानबूझ कर इस पर पर्दा पड़े रहने देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला एक साधारण व्यक्ति भी यह अच्छी तरह जानता है कि साहूकारों की ब्याज दरें कम से कम 2 से 5 प्रतिशत मासिक होती है। हरियाणा पंजाब में आढती ना केवल किसानों को खेती के लिये कर्ज मुहैया करवाते हैं बल्कि खेती के लिये खाद-बीज-कीटनाशक व डीजल आदि जरूरी सामान की बिक्री भी करते हैं। इसके अलावा अन्य घरेलू सामान कपड़ा या करियाना आदि भी यही लोग बेचते हैं। किसानों को अपनी फसल बेचने की एवज में ये आढती नकद राशी नहीं देते। अमूमन किसान को आढती एक पर्ची लिखकर थमा देता जिस पर लिखा होता है कि इस किसान को अमुक सामान की अमुक मात्र दे दो। यह सामान देने वाली दुकान या तो खुद आढती की ही होती है या उसके साथ आढ़ती का कोई अनुबंध व हिस्सेदारी होती है। इस व्यवस्था के कारण किसान के पास मोलभाव करने का कोई अवसर नही बचता। इस आर्थिक संबंध के परिणामस्वरूप साहूकार या आढ़ती किसानों का मनमाफिक खून निचौड़ लेते हैं।            एनएसएस के अनुसार 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवारों पर कुल 4,23,000 करोड़ रूपये कर्जा है। जिसमें 29.5 प्रतिशत कर्ज साहूकारों व आढ़तियों का है। 2012-13 के आंकड़ो के अनुसार प्रति परिवार 47,000 रूपये  बकाया हैं जिसके ब्याज का भुगतान करना भी किसान के लिये कठिन हो जाता है। इन परिस्थितियों में पैदावार बढ़ाने के लिये कृषि निवेश में बढ़ोतरी किसान चाह कर भी नहीं कर सकता।
आरक्षणमांग और वर्तमान कृषि संकटः
                पिछले दिनों भयंकर कृषि संकट और बढ़ती बेरोजगारी के कारण जाट व मराठा जैसी प्रभुत्वशाली जातियां भी आरक्षण की मांग पर आंदोलनों पर उतारू थी। जबकि मराठा समुदाय का ऊपरी तबका महाराष्ट्र के शासक वर्ग का एक प्रमुख हिस्सा है। आस्पेक्ट्स ऑफ इंडियाज् इकोनोमी अंक 66-67 ने बताया है कि महाराष्ट्र की 75% कृषि भूमि मराठों के पास हैं। वे 71 प्रतिशत सहकारी संस्थाओं के मालिक हैं। राज्य की 185 चीनी मीलों में से 86 मीलें मराठों की हैं। इसी प्रकार 54 प्रतिशत शिक्षण संस्थाओं के मालिक मराठे हैं। 1962 से 2004 तक निर्वाचित कुल 2430 विधायकों में से 55 प्रतिशत मराठा थे। राज्य के 17 मुख्यमंत्रियों में से 12 मराठा थे। इसके बावजूद इस जाति की बड़ी आबादी कृषि संकट व रोजगार की समस्या झेल रही है। आरक्षण की मांग उठाने वाली जाट एवं पटेल जातियों के मामले में भी यही सच है। 
                वर्तमान कृषि संकट भूमंडलीकरण की नीतियों की देन है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि ये नीतियां 1990 के दशक में विदेशी निवेशकों व वैश्विक पूंजी के दलाल भारतीय पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिये लायी गयी थी । इन 25 सालों में कृषि क्षेत्र पर किये जाने वाले सरकारी निवेश में भारी कमी आयी है। ग्रामीण क्षेत्र में किये जाने वाले अन्य सरकारी खर्चो में कटौती की गई है। सरकारी बैंकों ने किसानों को कर्ज देना कम किया है। विदेशी कृषि उत्पादों के लिये बाजार को खोला गया है। भूमंडलीकरण ने भारत की कृषि को चौपट कर दिया है। जिसके कारण कृषि की लागत लगातार बढती चली गयी तथा कृषि उत्पादों के बाजार भाव या तो कम होते गये या स्थिर बने रहे। गौरतलब है कि इन 25 वर्षों के दौरान हमने केंद्र व राज्यों में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों का शासन भी देख लिया है। स्वराज अभियान के संस्थापक योगेन्द्र यादव ने इस कृषि संकट के बारे में बताते हुए कहा कि यह एक शाश्वत ढांचागत संकट है- हर साल, हर फसल और हर तरह के किसान को प्रभावित करने वाला संकट है। ये ऐसा संकट है जो हमारे आर्थिक विकास के ढांचे में अन्तर्निहित है।  इसका अर्थ है कि ढांचागत परिवर्तन के बिना वर्तमान संकट का निदान संभव नहीं है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत कृषि उत्पादन को किसानों द्वारा उपभोग के लिये ही रख लिया जाता है। भूमंडलीकरण के इस खतरनाक हमले ने गुजारे की खेती को भी दुभर बना दिया है। बेशर्मी की हद है कि भारत में इन किसान विरोधी-जन विरोधी नीतियों को नई कृषि नीतियां बताया जाता है।
                बेरोजगारी व चौतरफा संकट से हताश किसानों के बेटे-बेटियां एक उच्च जातिय हिंसक भीड़ में तबदील हो रहे हैं। इस संकट से उपजी निराशा के कारण ये आसानी से धार्मिक उन्मादियों द्वारा अंजाम दी जाने वाली मोब लिंचिंग, साम्प्रदायिक तथा जातिय दंगों की कारवाईयों के लिये पैदल सैनिक बन जाते हैं। 2013 के मुज्जफरनगर के दंगों में यही हुआ था। हरियाणा के दुलिना कांड में किसान युनियन धार्मिक उन्मादियों के साथ खड़ी थी। समाज के ये संकट ग्रस्त तबके ही ग्रामीण क्ष्रेत्रों में  फासीवाद का सामाजिक आधार बनते हैं। मेहनतकश जनता के अंदर जाति-धर्म-संप्रदाय का विभाजन पैदा करने की ये गतिविधियां फासीवादी गिरोहों द्वारा योजनाबद्ध रूप से  चलायी जाती है। यह सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है। यह पहले कहा जा चुका है कि बड़े जमींदार या धनी किसान वर्ग से आये लोग ही किसान सगंठनों के नेतृत्व पर काबिज हैं। इसलिये ये संगठन न तो गरीब एंव मध्यम किसानों की जायज मांगों को उठाते और न ही राजनीतिक रूप से किसान समुदाय के अंदर उदारीकरण-भूमंडलीकरण-नीजिकरण के खिलाफ एक सचेत आंदोलन का निर्माण कर सकते हैं। समय समय पर उदारीकरण-नीजिकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने वाली देश की तमाम संसदीय पार्टियों से किसान समुदाय को कोई उम्मीद नहीं है? कर्जमाफी, आरक्षण आदि मिल जाने से यह संकट हल होने वाला नहीं है। धार्मिक अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत पालने से यह संकट टलने वाला नहीं है। एससीएसटी कानून या तरह-तरह के बहाने से दलित जातियों के खिलाफ गुस्सा निकालने से भी यह कृषि संकट हल नहीं होगा। अपनी अपनी जातियों को आगे रखकर आरक्षण के लिये आंदोलन से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह मेहनत करके खाने वालों को आपस में लड़ाने का एक षड़यंत्र है। मेहनतकश किसानों को यह समझने की जरूरत है कि उदारीकरण की नीतियों ने भारतीय खेती को रसातल में धकेल दिया है। इस संकट ने हिदूं और मुस्लिम, सभी को बिना भेदभाव के तबाह किया है। आंकड़े बोलते हैं कि खेती के संकट के कारण आत्महत्या करने वालों में अच्छी खासी संख्या खेतीहर मजदूरों की भी है। ये भूमिहीन स्वाभाविक रूप से दलित जातियों से आते है। वर्तमान कृषि संकट की सबसे भयानक मार ये भूमिहीन ही झेल रहे हैं। यदि कृषि को बचाना है तो साम्राज्यवाद समर्थित एलपीजी की नीतियों को हटाना होगा। जाति-धर्म की फर्जी लड़ाइयों से किनारा करते हुए उद्घोष करना होगा कि हम केवल मेहनतकश किसान हैं, हमारी खेती-किसानी खतरे में है, हमारा समूचा जीवन खतरे में है, अतंतः हमारी आने वाली पीढि़यों का जीवन खतरे में है। इसलिये उदारीकरण-नीतिकरण-भूमंडलीकरण विरूद्ध निर्णायक संघर्ष छेड़ने के अलावा भारत के कृषकों के सामने और कोई विकल्प बचा नहीं है।

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

भारत में दलित-मुक्ति और जाति-निर्मूलन का सवाल मुख्यतः एक खेतीहर सवाल है जो अविच्छिन्न रूप से भूमिहीनों के लिये जमीन और आजादी के कार्यक्रम के साथ जुड़ा हुआ है।

भारत में दलित-मुक्ति और जाति-निर्मूलन का सवाल मुख्यतः एक खेतीहर सवाल है जो अविच्छिन्न रूप से भूमिहीनों के लिये जमीन और आजादी के कार्यक्रम के साथ जुड़ा हुआ है।                                                                                                         - राजेश कापड़ो


भारत के माथे पर कलंक जाति प्रथा का खात्मा कैसे हो? दलित मुक्ति कैसे हासिल की जाए? ये सवाल हमेशा ही भारत में काम करने वाले समाज विज्ञानियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों सचेत नागरिकों की दिलचस्पी के विषय रहे हैं। आज भी बने हुए हैं। लेकिन दलित समस्या को एक सही परिप्रेक्ष में नहीं समझा गया या बहुत कम समझा गया है।  एक वर्गीय एवं उत्पादन.संबंधों से जुड़े सवाल के रूप में दलित सवाल को नहीं समझा गया। यह अवधारणा रही कि मॉर्क्सवाद के सिद्धांतों पर आधारित क्रांति के एक बार सम्पन्न हो जाने के बाद दलित सवाल स्वतः हल हो जाएगा। इसलिये दलित सवाल को हल करने के लिये कोई सांगठनिक उपाय नहीं किये गये। लेकिन तेलंगाना तेभागा आंदोलन इसके अपवाद कहे जा सकते हैं जिनमें भारत के वामपंथियों ने मेहनतकश दलित जनता की मुक्ति के लिये अपने प्राणों के बलिदान दिये तथा अकल्पनीय यातनाएं सही। फिर भी दलित सवाल को वामपंथ की कई धाराऐं आज भी एक वर्गीय सवाल के रूप में नहीं मानतीं। जब हम कहते हैं कि दलित सवाल एक वर्गीय सवाल है या एक उत्पादन.सम्बन्धों से जूड़ा सवाल है। इसका अर्थ यह है कि उत्पादन सम्बन्धों को बदले बिना दलित समस्या हल नहीं की जा सकती। 
खुद को वामपंथी कहने वाले बहुत से संगठन और कार्यकर्ता दलित समुदाय के लिये कृषि भूमि की मांग को जायज नहीं मानते। दलितों के जमीन के अधिकार को खारिज करने वाली तथाकथित वामपंथियों की पहली श्रेणी कहती है कि जमीन की मांग एक प्रतिगामी मांग है। इतिहास के पहिये को उल्टा घुमाने जैसा है। इनके अनुसार यदि जमीन दलितों को बांट भी दी तो बेरहम पूंजीवाद उस जमीन के टुकड़े को इनके हाथों से फिर से छिन लेगा पूंजीवादी कुचक्र उनको फिर से भूमिहीन बना देगा। भारत में समाजवादी क्रांतिके इन पैरोकारों का यह मानना है कि भूमिहीनों (जोकि 90 प्रतिशत से ज्यादा दलित हैं) के हक में जमीन का वितरण एक प्रतिगामी कदम है, पूंजीवाद में आस्था पैदा करना है, छोटे पैमाने के उत्पादन में मोह पैदा करना है। जमीन के सवाल को नकारने वाली वामपंथियोंकी दूसरी श्रेणी तर्क देती है कि वितरण के लिये जमीन ही नहीं है या जमीन बहुत कम बची है! भूमिहीन दलितों के हिस्से कितनी जमीनें आएगी? वे कुतर्क करते है कि जिन किसानों के पास थोड़ी बहुत जमीन है, उनके हालत कौन.सा अच्छे हैं? कोई खेती नहीं करना चाहता! इनका कहना कि कृषि की समस्याओं का समाधान इस पूंजीवादी व्यवस्था में नहीं होगा। इसलिये ये दलितों की जमीन की मांग को सही नहीं मानते।  इनके अनुसार यह एक समाजवाद विरोधीमांग है। इनका मानना है कि दलितों को डायरेक्ट समाजवादी राज्य द्वारा गठित  कृषि.फार्मों में लगाया जाएगा। दलितों की जमीन की मांग को नकारने वाली वामपंथियों की तीसरी श्रेणी यह कहती है कि समाजवादी राज्य स्थापित होने पर ही इस मांग को हासिल किया जा सकता है। इसलिये आज इस मांग को उठाने कोई लाभ नहीं होगा? ये वामपंथीभी दलितों के जमीन के अधिकार को मान्यता नहीं देते। इनके पास दलितों को जमीन बांटने का  कोई कार्यक्रम ही नहीं है ये सिर्फ सतही रूप से ही स्वीकार करते है। व्यवहार में ये दलितों की जमीन की मांग को खारिज करते हैं। ये समाजवादीबहस के दौरान बकायदा मॉर्क्सवादी अध्यापकों.मॉर्क्स, ऐंग्लस, लेनिन आदि का हवाला देने से भी नहीं हिचकते। भारत में वामपंथियों के दलितों के प्रति इस रवैये के कारण ही दलित समाज में मॉर्क्सवाद को लेकर संदेह पैदा हुआ है। इसी कारण, दलित वामपंथी आंदोलन से दूर गये हैं।  दलितों के जमीन के अधिकार को ही मान्यता नहीं देना, उल्टा मॉर्क्सवादी सिद्धांतों और शिक्षकों का नाम लेकर दलितों की न्यायसंगत मांग को सिरे से नकार देना, संदेह नहीं तो और क्या विश्वास पैदा करेगा
दलित सवाल मुख्य रूप से एक खेतीहर सवाल है। भारत एक कृषि प्रधान देश, भारत की आधी से ज्यादा जनता आज भी ग्रामीण है तथा मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर है। दलित जनसंख्या का बहुमत हिस्सा ग्रामीण है। यह एक ऐसा भूमिहीन समुदाय है जो अपनी आजीविका के लिये पूर्ण रूप से कृषि पर निभर्र है। वे बड़े जमींदारों धनी किसानों के खेतों पर काम करते हैं। बेगारी तथा भूदासता आज भी बदले रूपों में जारी है।  गांव की सामुदायिक जमीनों पर दलितों का अधिकार का दावा मात्र गांव की प्रभुत्वशाली जातियों को फूटी आंख नहीं भाता है। भले ही भारत का संविधान नागरिकों को सम्मानजनक जीवनयापन के लिये आजीविका के पर्याप्त साधन मुहैया करवाना राज्य का कर्तव्य घोषित करता है। जिसके लिये कई भूमि सुधार कानून बनाए गऐ लेकिन एक तमिल पत्रिका (1) के डॉक्टर थांगराज कहते है कि भूमिसुधारों से दलितों को कोई उल्लेखनीय फायदा नहीं हुआ बल्कि औपनिवेसिक काल में जो जमीनें दलितों को आबंटित की गई थी, वे भी आंशिक रूप से गैर दलितों ने हथिया ली हैं। डॉ. थांगराज कहते है कि कृषि-गणना 1990-91 और जनगणना 1991 के आंकड़े यह दर्शाते है कि राज्य में दलितों की जनसंख्या 19.18 प्रतिशत है लेकिन उनके पास कुल 7.1 प्रतिशत कृषि भूमि का स्वामित्व है।
आजादी के 70 साल बाद भी ग्रामीण क्षेत्रें की कुल श्रम शक्ति का 72.5 प्रतिशत कृषि कार्यों से आजिविका कमाता है। जिनमें भूमिहीन दलित समुदाय की एक बड़ी संख्या है। दलित समुदाय की यह भूमिहीनता इस समुदाय को बड़े जमीदारों के मोहताज बना देती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएनएस) 2003 के आंकड़ो के अनुसार ग्रामीण भारत के 41.6 परिवारों के पास आवासीय भूमि के अलावा कोई भूमि नहीं थी। दलितों के अंदर इस भूमिहीनता की दर बाकियों की तुलना में कहीं ज्यादा है। इसी अनुमान के अनुसार 56.5 प्रतिशत दलित परिवारों के पास कोई कृषि भूमि नहीं थी जबकि यही दर आदिवासी परिवारों के मामलें में 35.5 प्रतिशत तथा गैर.दलित, गैर आदिवासी परिवारों के मामले में 37.8 प्रतिशत थी।
दलितों में भूमिहीन परिवारों की संख्या पंजाब, हरियाणा केरल राज्यों में 80 प्रतिशत से भी ज्यादा है। हरियाणा में आज भी ज्यादातर दलित भूमिहीन है। कृषि गणना 2010-11 के अनुसार प्रदेश की कुल 16,17,311 कृषि जोतों में से दलितों के पास महज 29,015 कृषि जोतें हैं, जो प्रदेश की कुल जोतों का मात्र 1.79 प्रतिशत बनता है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का हिस्सा 12 प्रतिशत है। हरियाणा में कुल 36,45,606 हेक्टेयर कृषि भूमि में से दलितों के हिस्से 43,425 हेक्टेयर यानि मात्र 1.19 प्रतिशत जमीन आती हैं। यह राष्ट्रीय दर 8 प्रतिशत से बेहद कम है। जबकि प्रदेश में दलित कुल जनसंख्या का 19.35 प्रतिशत बनते है। दलित कृषि जोतों का 75.9 प्रतिशत 5 एकड़ से कम जमीन वाली जोतों का बनता है। दलितों की 52.47 प्रतिशत जोतें 0.5 हेक्टेयर से 1 हेक्टेयर भूमि से बनी हैं।  लेकिन वास्तव में, बहुत कम जमीनें ही दलितों के असल कब्जे में हैं। बहुत से मामलों में भू.लेखों पर तो जमीन की मिलकियत दलितों के नाम पर है लेकिन ये जमीनें उच्च जाति के लोगों के अवैध कब्जे में है। जम्मू कश्मीर में लागू किये गये भूमि सूधारों की तारीफ आमतौर पर सुनी जाती है, यहां भूमिहीन जनसंख्या बहुत कम है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी भूमिहीनता बहुत कम है। पश्चिम बंगाल में वाम मार्चे की सरकार द्वारा व्यापक भूमि वितरण का मिथक भी तार.तार हो जाता है जब यह तथ्य सामने आता है कि यहां पर भूमिहीन परिवारों की संख्या 46.5 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय भूमिहीनता की दर से ऊंची ही है।
भूमि सुधारों सही ढंग से नहीं लागू होने के कारण हरियाणा में बड़े जमींदारों के पास भूमि हदबंदी कानून में तय अधिकतम सीमा 7.5 हैक्टयर से भी ज्यादा जमीन हैं। इन्हीं जमींदारों के खेतों में बेजमीनें दलित आर्थिकेत्तर उत्पीड़न सहते हुए सस्ते दामों पर मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं।  ब्राहम्णवादी जाति व्यवस्था इन बेजमीनें दलित खेतीहर मजदूरों को वैचारिक और व्यवहारिक गुलाम बनाये रखने का आधार मुहैया करवाती है स्वामिनाथन आयोग की रिर्पोट के अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1991.92 में , नीचे के आधे से ज्यादा ग्रामिण परिवारों के पास कुल कृषि भूमि का मात्र 3 प्रतिशत स्वामित्व था और जबकि ऊपर के 10 प्रतिशत ग्रामिण परिवारों के पास कुल जमीन की 54 प्रतिशत कृषि भूमि हैं (2) पंजाब युनिवर्सिटी चण्डीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर श्री गोपाल अयर ने अपने अध्ययन में पाया कि दिसम्बर 1994 तक पंजाब में कुल 1,32,600 एकड़ जमीन सरपल्स घोषित की गई जिसमें से 1,02,500 एकड़ जमीन को 27,600 लाभार्थियों में बांटा गया यह जमीन कुल बिजाई क्षेत्र का केवल 3.17 प्रतिशत बनती है इसी प्रकार हरियाणा में कुल 92,300 एकड़ कृषि भूमि सरपल्स घोषित की गई जोकि कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 2.29 प्रतिशत भाग बनती है जिसको 25,000 व्यक्तियों में वितरित किया गया (3)लेकिन इस अध्ययन को सुच्चा सिहं गिल जैसे कई अन्य विद्वानों ने नकार दिया है उनके अनुसार 11 अगस्त 2010 तक उपलब्ध सुचनाओं के अनुसार हरियाणा के सभी जिलों में केवल 17,681 एकड़ जमीन 12,687 अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को आबंटित की गई यह कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 0.35 प्रतिशत बनती है (4)
शामलात जमीनों पर दलित समाज के अधिकारों को लेकर हालांकि कानून बना हुआ है। पंजाब हरियाणा के शामलात भूमि के रखरखाव के लिये विलेज कॉमन लेंड ऐक्ट है। इस कानून के नियम-5 में यह प्रावधान है कि शामलाती जमीनों की बोली सार्वजनिक विज्ञापन के बाद होगी और इस कृषि भूमि का एक-तिहाई हिस्सा दलितों के लिये आरक्षित होगा।  नियम-10 में प्रावधान है कि पंचायत शामलात भूमि में से दलितों, पिछड़ों, भूमिहीन मजदूरों गरीब काश्तकारों को मकान बनाने लिये गरीबी के आधार पर मुफ्त भूखंड मुहैया करायेगी। वर्ष 2009 में पंजाब में कुल 1,44,388 एकड़ शामलाती कृषि भूमि 156.24 करोड़ रूपये में पट्टे पर दी गई। कानून के अनुसार एक तिहाई जमीनें दलितों को मिलनी चाहिये  थी लेकिन वास्तव में बड़े जमीदारों के दबदबे अपनी कमजोर आर्थिक स्थितियों के कारण दलित समाज इसका फयदा नही ले पा रहा है। हरियाणा में भी अप्रेल 2007 में कुल 2,01,278 एकड़ शामलाती कृषि भूमि की बोली हुई। इन जमीनों को शक्तिशाली भूस्वामियों ने कब्जा लिया है। हरियाणा ग्रामीण विकास संस्थान नीलाखेड़ी ने शामलाती भूमि पर किये गये अपने एक अध्ययन में पाया कि करनाल जिला में इन सामुदायिक जमीनों से बाहरी व्यक्ति लाभ ले रहे हैं। कृषि भूमि को उपयोग करने के सवाल पर ग्राम पंचायतें अनुसूचित जाति परिवारों की सही देखभाल नहीं कर रही हैं। कम से कम 15 प्रतिशत शामलात भूमियों को प्रभावशाली भूस्वामियों ने कब्जा लिया है जिनको सरपंच, सरकारी अधिकारियो राजनीतिज्ञों का संरक्षण प्राप्त है। दलित अपने हिस्से की शामलात भूमि हासिल नहीं कर पा रहे है।’(5) निदेशक पंचायत विभाग हरियाणा चंडीगढ के अनुसार पंजाब विलेज कॉमन लेंडस् (रेगुलेशन) ऐक्ट, 1961 के तहत हरियाणा में ग्राम पंचायतों के पास कुल 8,88, 643 एकड़ शामलाती जमीन है। जिसमें से 2,01,875 एकड़ जमीन कृषि योग्य है।
स्वामिनाथन आयोग ने अपने अध्ययन में पाया कि 60 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है आयोग ने केंद्र सरकार को सिफारिश की कि छोटे भू-खण्ड की मिलकियत प्रदान करने से ऐसे परिवारों की आय और पौषाहार सुरक्षा सुधारने में मदद मिलेगी जहां भी संभव हो, इन भूमिहीन परिवारों को कम से कम एक एकड़ प्रति परिवार भूमि उपलब्ध कराई जानी चाहिए। (6) यह भूमिहीनता ही ग्रामीण क्षेत्रें में दलितों को बेगार करने को बाध्य करती है। सीरी प्रथा बंधुआ मजदूरी व्यवस्था (उन्मूलन) कानून 1976 के तहत कानूनन बंधुआ मजदूरी है। हरियाणा श्रम विभाग द्वारा बंधुआ मजदूरी पर करवाए गए सर्वेक्षण के मुताबिक हरियाणा में खेतीहर मजदूरों, सीरी एवं बटाईदारों का 88.56 प्रतिशत हिस्सा दलित जातियों से है।(7)
कृषि संकट गहरा हो रहा है, किसान आत्महत्या के मामलों में वर्ष 2014-2015 में 42 प्रतिशत बढोतरी दर्ज की गई है।(8) सवर्ण जातियों द्वारा आरक्षण की मांग के लिये उठे आंदोलनों को कृषि संकट की पृष्ठभूमि में समझना चाहिये। इन आंदोलनों ने उच्च जातियों में दलितों के प्रति नफरत को और उकसाया है। दलित एससी.एसटी एक्ट के विरूद्ध उच्च जातियों के गुस्से के निशाने पर हैं। दलितों के प्रति यह नफरत शासक वर्गों के फासीवादी एजेंडा का ही हिस्सा है।  कृषि के तीव्र होते संकट ने दलित समाज को और ज्यादा हासिये पर धकेल दिया है। इससे दलितों के लिये रोजगार आजिविका का संकट खड़ा हो गया है। वर्तमान परिस्थितियों में ग्रामीण भूमिहीन दलितों के पक्ष में भूमिसुधार समय की जरूरत है। सभी जनवादी क्रांतिकारी शक्तियों को दलितों के पक्ष में जमीन वितरण की मांग का समर्थन करना चाहिये।  
समाजवाद की आड़ में दलितों की जमीन की मांग को खारिज करने वाली वामपंथ की ये प्रवृतियां भूमिहीन दलितों के प्रति जो रवैया अपनाती है, मॉर्क्सवादी सिद्धांतकारों ने कृषि के सवाल पर कभी ऐसा स्टेंड नहीं लिया होगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि ये वामपंथी मॉर्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम पर ये गलत एवं दलित विरोधी अवधारणाऐं गढ़ रहे हैं। मॉर्क्सवाद कभी भी क्रांतिकारी भूमि सुधारों के खिलाफ नहीं रहा। समाजवाद के नाम पर गरीब भूमिहीन किसानों के सवाल को कभी नजरअंदाज नहीं किया गया। यहां हम देखने का प्रयास करेंगे कि लेनिन ने गरीब भूमिहीन किसानों के सवाल को समाजवादी क्रांति से पहले समाजवादी क्राति के बाद कैसे देखा। हम यहां यह भी देखेंगे कि इन सवालों पर लेनिन की समझ कैसे लगातार विकसित होती गयी।
जमीन का वितरण और लेनिन की शिक्षाऐं :
किसान आंदोलन के प्रति सामाजिक जनवाद का रुखनामक यह लेख लेनिन ने प्रोलेतारी अंक 16 के लिए सितंबर 1905 में लिखा था। इस लेख में जमीन जब्ती के सवाल पर लेनिन कहते हैं कि हम किसान विद्रोह का समर्थन करते हैं। किसानों को यह जानना चाहिए कि इस समर्थन में सामाजिक जनवादी सर्वहारा वर्ग जमीन की किसी भी प्रकार की जब्ती (यानि मालिकों को बगैर मुआवजा दिए बेदखली) करने तक से नहीं हिचकिचाएगा। (जोर हमारा)(9)
समाजवाद और किसान समुदाय नामक लेख में जनवादी क्रांति के संदर्भ में लेनिन बोल रहे हैं : जनवादी क्रांति की निर्णायक विजय केवल सर्वहारा वर्ग एवं किसान समुदाय के क्रांतिकारी जनवादी अधिानायकत्व के रूप में ही संभव है। वर्तमान क्रांति के जनवादी, अर्थात मूलतः बुर्जुआ स्वरूप की उपेक्षा करना हास्यास्पद है और फलतः क्रांतिकारी कम्यूनों की स्थापना जैसे नारे प्रस्तुत करना विवेक हीनता है। ....जब्ती के लिए और जब्ती के साधन के रूप में क्रांतिकारी किसान समितियां . केवल यही ऐसा नारा है, जो इस समय की आवश्यकताओं के अनुरूप है (10) लेकिन अक्तूबर 1905 में वे जमीन वितरण का मामला पूरी तरह किसानों पर छोड़ देते हैं  जब्त की गयी जमीन का क्या किया जाए यह गौण प्रश्न है। हम नहीं बल्कि किसान ही इस प्रश्न को सुलझाएंगे।(11) उपरोक्त विवरण स्पष्ट कर रहा है कि अक्तूबर 1905 में लेनिन भूमि के छोटे किसानों में वितरण के पक्ष में खड़े हैं। आज के वामपंथीउसी लेनिन का हवाला देकर भूमिहीन दलितों में कृषि भूमि के वितरण को समाजवादविरोधी प्रतिगामी कदम बता रहे है। लेनिन नवंबर 1905 में सारी जमीन किसानों को बांटने की बात कहते हैं.‘‘किसान जमीन और आजादी चाहता है। इस मामले में दो राय नहीं हो सकती सभी वर्ग चेतन मजदूर यही चाहते हैं। और यही कोशिश करते हैं कि किसानों को सारी जमीन और पूरी आजादी मिले। सारी जमीन . इसका अर्थ है कि आंशिक रियायत और दान पर संतोष करना, इसका अर्थ है जमींदारों के भूस्वामीत्व का उन्मूलन।’(12)
जो वामपंथी यह कहते हैं कि लेनिन ने समाजवादी क्रांति के बाद ही तो गरीब किसानों में कृषि भूमि का वितरण किया था। ये कहते है कि उनकी समाजवादीक्रांति के कार्यभारों के अनुसार क्रांति उपरांत सर्वहारा राज्य उत्पादन के तमाम साधनों को हस्तगत कर लेगा, इस प्रकार दलित समाज की कृषि भूमि की मांग भी इसमें शामिल है। भारत में भी समाजवादीक्रांति के बाद ही भूमि वितरण होगा। बेशक! लेकिन यह लेनिन को बेहद विकृत करना है। ये वामपंथीक्रांति के बाद जमीन वितरण की आड़ लेकर आज कृषि कार्यक्रम घोषित करने से बच रहे हैं। लेनिन की पार्टी ने जो कृषि कार्यक्रम समाजवादी क्रांति के बाद लागू किया उसकी घोषणा 1906 में की थी 1906 में कृषि कार्यक्रम का जो मसौदा तैयार किया गया, उसके अनुसारः भूदासता की व्यवस्था के अवशेषों के, जो किसानों पर प्रत्यक्ष तथा भारी बोझ हैं, उन्मूलन के उद्देश्य से तथा देहात में वर्ग संघर्ष के मुक्त विकास के हितार्थ पार्टी मांग करती हैः () चर्चों, मठों, राजपरिवार राज्य, जार की तथा जमींदारों की सारी जमीनों की जब्ती। () पूरी जनता की संविधान सभा द्वारा नयी कृषि प्रणाली की स्थापना किए जाने तक जमींदारों की सत्ता तथा जमींदारों के विशेषाधिकारों के तमाम अवशेषों का उन्मूलन करने तथा जब्त की हुई जमीन का वास्तविक निपटारा करने के उद्देश्य से किसान समितियों की स्थापना।(13)
लेनिन ने 8 नवंबर 1918 में गरीब किसान समितियों के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में दिये भाषण में जमीन वितरण का समर्थन किया (14) तथा जून 1920 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के लिए भूमि संबंधी प्रश्न के बारे में प्रतिपत्तियों का कच्चा मसविदा तैयार किया था। इसी में से एक उद्धरण यहां प्रस्तुत है. जहां तक विजयी सर्वहारा वर्ग द्वारा जब्त की गयी बड़े जमींदारों की जमीन पर खेती करने के तरीके का सवाल है, रूस में उसके आर्थिक पिछड़ेपन (जोर हमारा) के कारण जो तरीका सबसे प्रमुख रूप में अपनाया गया, वह यह था कि उक्त जमीन किसानों के बीच खेती करने के लिए बांट दी गयी और बहुत ही कम (जोर हमारा) हालातों में, जो अपवादस्वरूप (जोर हमारा) थीं, उस पर सोवियत फार्म संगठित किये गये। सर्वहारा राज्य का यह अनिवार्य कर्त्तव्य हो जाता है कि वह छोटे किसानों को वह जमीन मुफ्रत में खेती करने के लिए दे दे, जिसे वे पहले लगान पर लेते थे, क्योंकि इसके अतिरिक्त तो कोई आर्थिक अथवा तकनीकी आधार मौजूद है और ही उसे एक बारगी तैयार ही किया जा सकता है।’’(जोर हमारा)(15) 
लेनिन के उपरोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि रूस में समाजवादी क्रांति से बहुत पहले लेनिन ने कृषि कार्यक्रम बनाया। समाजवादी क्रांति के बाद उस कार्यक्रम का लागू किया। करोड़ो एकड़ कृषि भूमि को गरीब भूमिहीन किसानों में बांट दिया। हमारे देश के वामपंथीजो भारत को एक पूंजीवादीदेश मानते हैं इसलिये आमतौर पर यह तर्क देते हैं कि भारत की क्रांति की वर्तमान मंजिल में यह लाईन सही नहीं होगी। इसलिये अभी दलितों का जमीन वितरण का यह नारा सही नहीं होगा। उनके तर्क से कोई भी यह आशय निकाल सकता है कि कृषि और कृषकाें के लिये महान लेनिन की पार्टी का उपरोक्त कार्यक्रम रूस में जनवादी क्रांति सम्पन्न होने तक ही सही था। इन वामपंथियोंके अनुसार रूस में जनवादी क्रांति के सम्पन्न होने के तुरन्त बाद लेनिन की पार्टी ने अपना कृषि.कार्यक्रम त्याग दिया था, जो अपने सार में एक पूंजीवादी.जनवादी कार्यक्रम था और पार्टी सीधा समाजवादी कार्यक्रम हाथ में लेकर आगे बढ गयी थी। दलितों के लिये कृषि भूमि वितरण की मांग को नकारने वाले ये वामपंथीऐसा ही सोचते हैं, उसका (कु)प्रचार भी करते हैं। वे इस बात पर पर्दा डालते है कि रूस में समाजवादी क्रांति की विजय के बाद क्रांतिकारी कृषि.कार्यक्रम की भावना के अनुरूप किसानों में जमीन का वितरण भी किया गया था।
ये वामपंथीदलितों के लिये जमीन की मांग को किस्म किस्म के बहाने बनाकर टाल देते हैं। इसका अर्थ है कि दलितों को कृषि भूमि पर अपने अधिकार के लिये समाजवादतक बाट देखनी होगी! दलित समाज के संदर्भ में, कृषि भूमि के रूप में उत्पादन के साधनों पर अधिकार का मामला महज एक आर्थिक मामला नहीं है, दलित मुक्ति और घृणित जाति व्यवस्था के निर्मूलन की बृहद परियोजना के साथ जूड़कर यह एक राजनीतिक अधिकार का सवाल बन जाता है। ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था दलितों को उत्पादन के साधनों का स्वामित्व हासिल करने से पर वर्जित करती है। परंतु यहां समाजवादके नाम पर दलित समाज के एक लोकतांत्रिक अधिकार को नकारा जा रहा है।
दूसरा, इन वामपंथियोंकी इस स्वीकारोक्ति के बाद कि रूस की भांति भारत में भी बुर्जुआ.जनवादी कार्यभार समाजवादी क्रांति को ही पूरे करने होगें , यदि इनकी नियत में कोई खोट नही हो तो, इसका अर्थ है कि भारत में भी भावी सर्वहारा राज्य यकीनी तौर पर ऐसा करेगा। यदि ये वामपंथीइस पर पूर्ण विश्वास करते है तो, आज ही बिना हिचकिचाहट, सर्वहारा के संगठन को इसे अपना प्रत्यक्ष तात्कालिक कार्यभार घोषित कर देना चाहिये। सर्वहारा के संगठन को आज ही दलित समाज के बीच जाकर यह प्रचार करना चाहिये कि वे दलित मुक्ति एवं जाति प्रथा के निर्मूलन के ठोस उपाय के तौर पर दलितों के हक में कृषि.भूमि के बटवारे का समर्थन करते हैं और दलित समाज का आह्वान करते हैं कि इस कृषि कार्यक्रम को व्यवहार में लागू करने के लिये सर्वहारा के साथ लामबंद हो जायें। यदि आप स्वीकार करते ही है कि उपरोक्त कार्यभार अधूरा रह गया है और उक्त कार्यभार को अन्जाम तक ले जाने का ऐतिहाससिक कार्यभार आपकाही है। आपकोही निकट भविष्य में इसको पूरा भी करना ही है, तो इसके लिये मेहनतकश दलित जनता को एकजुट करना, संगठन कार्यकर्ताओं को वैचारिक रूप से तैयार करने का काम समाजवादी क्रांति की सफलता तक टालना बेहद मूर्खतापूर्ण व्यवहार होगा। दलितों के पक्ष में कृषि भूमि वितरण के मामले पर इन वामपंथियोंका अवसरवाद देखते ही बनता है जब वे यह स्वीकार कर लेते हैं कि वे समाजवादीराज्य की स्थापना के बाद भूमि वितरण जरूर करेंगें? साथ ही आज यह भी कहते हैं कि इतनी जमीनें कहां है? जमीनें तो जमींदारों के परिवारों में बंट कर समाप्त हो चुकी है। सिर्फ कार्यकर्ताओं का दिल रखने के लिये यह घोषणा की जाती है कि स्वर्ग में आपका स्वागत! शर्तें लागू! यह एक हद दर्जे का अवसरवाद है। क्योंकि ये संगठन दलितों के बीच में ही अपना आधार तलाशते हैं। ज्यादातर दलित ही इनके कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। इनको यह भी डर हैं कि दलितों में इनकी छवि ना खराब हो जाये।
रूस में समाजवादी क्रांति के बाद भूमि वितरण के बारे में सोवियत सत्ता के किसान अध्यादेश से स्पष्ट हो रहा है कि सोवियतों की धरती पर लेनिन का कृषि कार्यक्रम स्पष्टता के साथ लागू किया गया था.भूमि का उपयोग समानता पर आधारित होना आवश्यक है। यानि भूमि स्थानीय अवस्थाओं को देखते हुए श्रम प्रतिमान या उपभोग प्रतिमान के अनुसार मेहनतकशों में बांटी जाती है। भूमि के उपयोग के रूप .पारिवारिक, गांव के बाहर की खेती, सामुदायिक, सहकारी. र्स्वथा स्वतंत्र होने चाहिए, उनका निर्णय पृथक पृथक गांव तथा बस्ती में होगा।’(16)
कुछ वामपंथी’  दलितों को सीधे समाजवादी राज्य द्वारा संचालित आधुनिक कृषि फार्मो में लगाये जाने की वकालत करते है। ये मनोगतवाद की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? ये महानुभाव डायरेक्ट समाजवाद की रचना कर डालेगें! भले ही लेनिन जमीन को किसानों में बांट देने की बात कहते हो। केवल अपवाद स्वरूप ही सोवियत फार्मो के गठन की बात करते हो। अपनी मृत्यु से लगभग एक साल पहले एंगेल्स की सलाह भी ये वामपंथीबिल्कूल नहीं सुनना चाहते। किसान.समस्या नामक लेख में उन्होंने सलाह दी थी कि. जितने ही अधिक किसानों को हम सर्वहारा वर्ग की कोटी में गिरने से बचा लेंगे और किसान रहते ही उन्हें अपनी ओर मिला लेंगे, उतनी ही सुविधा और शीघ्रता के साथ समाज का परिवर्तन हो सकेगा। जब तक पूंजीवादी उत्पादन का विकास सब जगह अपने चरम परिणाम पर पंहुच जाए और जब तक अंतिम दस्तकार तथा अंतिम किसान बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन के हवनकुंड में पड़ कर स्वाहा हो जाएं तब तक इस परिवर्तन को रोके रखना हमारे लिए हितकर नहीं हो सकता (17) इतना ही नहीं लेनिन रूसी क्रांति की चौथी वर्षगांठ पर क्रांति के कार्यभारों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं.रूस में क्रांति का प्रत्यक्ष तात्कालिक कार्यभार बुर्जुआ.जनवादी क्रांति का कार्यभार था (18)
पर्याप्त जमीन नहीं होने का मिथकः
दलितों के बीच कृषि भूमि वितरण की लोकतांत्रिक मांग को, जमीन नहीं है, कहकर खारिज करने वाले ये वामपंथीवास्तव में देखना ही नहीं चाहते कि हरियाणा प्रदेश देश के अन्य राज्यों में मुट्ठी जमींदारों ने कृषि भूमि को कैसे कब्जा रखा है? हरियाणा में कृषि गणना 2010-11 के अनुसार (तालिकाः 1) के अनुसार 18 एकड़ से अधिक कृषि भूमि वाली कृषि जोतों की संख्या 86,480 है, जो हरियाणा की कुल कृषि जोतों का महज 5 प्रतिशत है परन्तु जिनके 
कब्जे में कुल 11,74,486 हैक्टेयर कृषि भूमि है, (19) जो कुल कृषि भूमि का 33 प्रतिशत बनता है। वही 49 प्रतिशत परिवारों के कब्जे में केवल 9 प्रतिशत कृषि भूमि है जो इनकी दुर्दशा की दास्तान कहने के लिये काफि है। केवल 3 प्रतिशत जमीदारों ने यह कृषि भूमि हरियाणा के हदबंदी कानून का उल्लंघन करते हुए रखी हुई है। यदि इस अतिरिक्त कृषि भूमि को भूमिहीनों में वितरित कर दिया जाए तो प्रति मेहनतकश 2 एकड़ से थोड़ा-सा ज्यादा कृषि भूमि सकती है। हरियाणा सांखिकी सारांश 2011-12 के अनुसार हरियाणा में कृषि क्षेत्र में काम करने वाले मेहनतकशों की कुल संख्या 12,78,821 है (20) इन्ही भूमिहीन कृषकों को जमीन का वितरण किया


जाना है। यह स्वाभाविक है कि प्रति परिवार में मेहनतकशों की संख्या दो या दो से अधिक ही होती है। इसलिये यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि दलितों में कृषि भूमि के इस वितरण के बाद जोत का आकार, कमोबेश मौजूदा औसत आकार के बराबर ही बनेगा। कृषि गणना 2010-11 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में कृषि जोत का औसत आकार 5 एकड़ से अधिक है। हरियाणा में पंचायतों के पास कुल 8,88, 643 एकड़ शामलाती जमीन है। कृषि जनगणना 2010-11 के अनुसार हरियाणा प्रदेश में 17,212 संस्थाओं के नाम पर कुल 3,90,199 एकड़ कृषि भूमि है।  इसमें से 3,29,712 एकड़ कृषि भूमि 18 एकड़ से अधिक भूमि का स्वामित्व रखने वाले मात्र 26 प्रतिशत संस्थानों के पास है। (21) इनमें सरकारी कृषि फार्मों, गन्ना फार्मों, सहकारी फार्मों, ट्रस्टों आदि की जमीनें आती है। हरियाणा में बड़े-बड़े धार्मिक डेरों मठों की जमीनें भी इसी मद में आती है। विवादित डेरा सच्चा सौदा सिरसा के पास 800 एकड़ से ज्यादा जमीन है। रोहतक में अस्थल बोहर मठ के पास भी हजारों एकड़ जमीन है। अकेले जिला जींद की नरवाना तहसील में 83 संस्थान 4109 एकड़ कृषि भूमि के मालिक है।(22) जमीन के न्यायपूर्ण वितरण से दलित समुदाय में व्याप्त पौषाहार की कमी एवं बेरोजगारी पर तुरन्त काबू पाया जा सकता है। इससे आर्थिक सामाजिक शोषण पर तुरन्त नकेल लग जाएगी। भूमिहीन दलितों के अलावा वे गरीब किसान जिनके पास 1 एकड़ या इससे भी कम कृषि भूमि है, भी कृषि भूमि के हकदार हैं। जिन दलितों के पास पहले से कृषि भूमि है, वे भूमि वितरण के लाभार्थी नहीं हो सकते। इसके अलावा उद्योग, सेवा क्षेत्र आदि रोजगारों में लगे ग्रामीण दलित भी भूमि के हकदार नहीं होने चाहिये। 
डायरेक्ट समाजवाद की रचना करने  का जो मूर्खतापूर्ण राग ये समाजवादीअलाप रहे हैं, मॉर्क्सवादी शिक्षकों ने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की होगी। लेनिन ने ऐसे वामपंथियोंको चेताया था कि समाजवाद निर्माण की वस्तुगत परिस्थिति के बिना मनमर्जी से समाजवाद नहीे लागू किया जा सकता। एक सचेतन प्रयास और प्रक्रिया में ही समाजवाद स्थापित हो सकता है। ये वामपंथीनहीं जानते कि रूस में डायरेक्ट समाजवाद नहीं लागू किया गया था। वहां सर्वहारा राज्य ने छोटी-छोटी कृषि जोतों को समुहिक-कृषि फार्मो को संगठित किया था। यह समझा बुझाकर या उदाहरण स्थापित करके संभव हुआ था। समाजवाद और सामुहिक-कृषि एक ही चीज नहीं है जैसाकि ये वामपंथीमानते हैं। सामुहिक कृषि के जरिये कृषक समूह अपनी-अपनी कृषि भूमि, उत्पादन के औजार, पूंजी और मानव श्रम को संयुक्त कर देते हैं। ये कृषि सहकार आपसी सहयोग समझदारी पर आधारित होते हैं। ये छोटे-छोटे भूखंड, कृषि औजार, मानव श्रम और पूंजी मिलकर एक विशाल कृषि उपक्रम को जन्म देते हैं। बिखरी हुई पिछड़ी कृषि को संगठित विस्तारित कृषि में बदल देते हैं। सामुहिक मानव श्रम और सामुहिक पूंजी के दम पर इन विशाल सामुहिक खेतों पर भारी मशीनरी का इस्तेमाल संभव हो जाता है। परिणामस्वरूप कम से कम मानव श्रम के साथ बड़े से बड़े उत्पादन के लक्ष्य हासिल करना आसान हो जाता है। इस सारी सामुहिकता के बाद भी किसान अपने भूखंड, उत्पादन औजारों उस भूखंड विशेष से होने वाले उत्पादन के मालिक खुद ही होते हैं। सोवियत कृषि नीति के सवाल पर बोलते हुए 27 दिसंबर 1929 को मॉर्क्सवादी छात्रें के सम्मेलन में  स्टालिन ने कहा था कि भारी उद्योग हमारी संपूर्ण अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं करते। इसके विपरित अभी तक छोटी किसानी अर्थव्यवस्था इस पर हावी है। क्या हम कह सकते हैं कि हमारी छोटी किसानी अर्थव्यवस्था विस्तारित पुनरूत्पादन के अनुसार विकसित हो रही है? निश्चित रूप से नहीं!’(23) स्तालिन ने यह भाषण समाजवादी क्रांति के 12 वर्ष बाद, 1929 में दिया था। डायरेक्ट समाजवाद का निमार्ण करने वाले वामपंथीआज भी इसको नहीं सुन रहे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि समाजवादी अर्थव्यवस्था में ही गरीब भूमिहीन किसानों का उद्धार हो सकता है। यह भी सच है कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में ही यह कार्यभार पूर्ण किया जा सकता है। लेकिन एक पिछड़े किसानी अर्थव्यवस्था वाले देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था निमार्ण की चुनौतियों, और अपने शुरूआती अनुभवों का सार.संकलन करते हुए लेनिन रूसी क्रांति की चौथी वर्षगांठ पर कहते हैं कि हमारा अंतिम.परंतु सबसे महत्वपूर्ण तथा सबसे कठिन , सबसे अधिक अपूर्ण. काम है अर्थव्यवस्था का निर्माण करना , ध्वस्त सामंती तथा अर्ध-ध्वस्त पूंजीवादी इमारत के स्थान पर नई, समाजवादी इमारत के लिये आर्थिक बुनियाद डालना। इस सबसे महत्वपूर्ण और सबसे कठिन काम में हमें सबसे ज्यादा विफलताएं मिली, हमसे सबसे ज्यादा गलतियां हुई। हम अपनी नई आर्थिक नीतियों सेअपनी नाना गलतियां सुधारते जा रहे हैं। हम सीख रहे हैं कि एक छोटे किसानी देश में समाजवादी इमारत का आगे निर्माण किस तरह किया जाना चाहिए(24) यहां पर वे राजकीय पूंजीवाद के रास्ते समाजवाद तक पहुंचने वाले मजबूत पुल के निर्माण का आह्वान कर रहे हैं।
सोवियत भूमि पर सामुहिक खेत छोटे-छोटे किसानों को सहकारी आंदोलन में सगंठित करके स्थापित किये गये थे। पहले जिनके पास थोड़ी.बहुत जमीन थी, उन किसानों को सामुहिक खेतों में शामिल किया गया था। बाद में मध्यम किसान भी इनमें शामिल होने लगे। इनमें से बहुमत किसान वे थे जिनको क्रांति के बाद कृषि भूमि मिली थी और जो लेनिन की किसान नीति को भली भांति जानते थे। भारत में वामपंथीदलित भूमिहीनों की जमीन की मांग को खारिज करते हैं तो सोचिये! दलित कैसे सामूहिक खेतों में शामिल हो सकेंगे? सामुहिक खेत में शामिल होने की पूर्व शर्त ही है कि कृषक के पास कृषि भूखंड और खेती के कुछ औजार हो। इसलिये वामपंथियोंके इस ख्याली पुलाव में दलितों के लिये कोई स्थान नहीं है। मनुवाद और समाजवाद, दोनों में दलित बेजमीनें ही रहने वाले है। मॉर्क्सवादी शिक्षकों ने भूमिहीन, गरीब किसानों के प्रति कभी ऐसी नीति नहीं अपनाई। दलितों के हक में जमीन की मांग न्यायसंगत उचित, दोनों ही है। वर्तमान शासन के सामने इन मागों को बार बार उठाते हुए उसको बेनकाब करना चाहिये कि यह राज्य ऐड़ी से चोटी तक दलित विरोधी है। सर्वहारा के सच्चे संगठन को दलितों के हक में क्रांतिकारी भूमि सुधारों का ठोस कार्यक्रम आज ही बनाना होगा ताकि मेहनतकश दलित समाज को सर्वहारा के साथ एकजुट किया जा सके। दलित मुक्ति के दृष्टिकोण से यह कृषि कार्यक्रम इस प्रकार हो सकता हैः दलितों के जमीन के अधिकार को मान्यता देना, भूमि हदबंदी कानून को सख्ती से लागू करवाने के लिये संघर्ष करना, भूमि सुधार कानूनों के प्रति दलितों गैर-दलित भूमिहीन गरीब किसानों में राजनीतिक चेतना का विकास करने लिये. सभा, सेमीनार, विचार गोष्ठियों का आयोजन करना, शामलाती कृषि भूमि में दलितों के लिये आरक्षित एक तिहाई जमीनों को हासिल करने के लिये संघर्ष करना, दलित समाज की बढ़ती आबादी को बसाने के लिये शामलाती जमीनों में से मुफ्रत आवासीय भूखंड हासिल करने के लिये संघर्ष करना, शामलाती जमीनों को केवल भूमिहीन गरीब किसानों को ही इस्तेमाल के लिये संघर्ष करना। बड़े भूस्वामियों धनी किसानों द्वारा शामलाती जमीनों के इस्तेमाल पर रोक लगाना। शामलाती जमीनों को गरीब किसानों तथा प्राथमिकता के आधार पर भूमिहीन दलितों को वितरित करने के लिये संघर्ष करना, शामलाती सामुदायिक जमीनों पर अवैध कब्जाधारी भूस्वामियों से जमीनें मुक्त करवाना, डेरों धार्मिक संस्थानों की जमीन भूमिहीन दलितो गरीब किसानों को बांटने के लिये संघर्ष करना, इसके लिये उचित संगठन संघर्ष के रूपों को इजाद करना, दलितों के खिलाफ होने वाले हर प्रकार के जाति आधारित शोषण का विरोध करना आदि। समाजवादका नाम लेकर दलितों के हक में जमीन की मांग को नकारना  ब्राह्मणवाद का अत्याधुनिक रूप है जिसका खंडन किया जाना जाना चाहिये। उपरोक्त कार्यक्रम के आधार पर दलितों को बदलाव के लिये एकजुट करना समय की मांग है। बिना मेहनतकश दलितों की सक्रीय भागेदारी के भारत में कोई बदलाव नहीं सकता है। साथ ही बिना आमूल परिवर्तन दलित मुक्ति भी हासिल नहीं की जा सकती।

संदर्भ सूची:
1.  तमिलनाडू में जमीन और जाति, एलआरएसए प्रकाशन, चेंग्लपट्टू 1998, विकास अध्ययन संस्थान मद्रास (एमआईडीएस)
2.  स्वामिनाथन आयोग रिर्पोट,
3.  श्री गोपाल अयर, Background Note On Land Rights And Housing Rights For weaker Sections In Punjab And Haryana, Paper being submitted for the Conference being organised in Advanced Institute of Shimla, Himachal Pardesh.
4.  उपरोक्त
5.  उपरोक्त
6.  स्वामिनाथन आयोग रिर्पोट,
7.  अजय कुमार, अभियान, अंक
8.  प्रियंका काकोडकर, टाईम्स ऑफ इंडिया 1/06/2017 व एस्पेक्ट्स ऑफ इंडियाज् इकोनोमी अंक 66-67 का कारवां कलेक्टीव द्वारा हिंदी अनुवाद, पेज 9 http://www.rupe-india.org/66/docs/aspects66.pdf
9.  लेनिन, संकलित रचनाएं, खंड-3, किसान आंदोलन के प्रति सामाजिक जनवाद का रुख, पेज-190
10. लेनिन, संकलित रचनांए, खण्ड-3, समाजवाद और किसान समुदाय, पेज 205
11. उपरोक्त
12. लेनिन, संकलित रचनाएं खंड-3, सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय, पेज-218
13. मजदूर पार्टी के कृषि कार्यक्रम का संशोधन, लेनिन संकलित रचनाएं खण्ड-3 पेज 283-4
14. मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस में भूमि के बारे में रिपोर्ट, 26 अक्तूबर (8 नवंबर) 1917
15. लेनिन, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल दूसरी कांग्रेस, जून 1920
16. लेनिन, संकलित रचनाएं, ख्ंड 6, मजदूरों और सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस में भूमि के बारे में रिपोर्ट, 26 अक्तूबर (8 नवंबर) 1917
17. स्तालिन, लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धांत में एंगेल्स का उद्धरण
18. लेनिन, संकलित रचनाएं, खंड 10, अक्तुबर क्रांति की चौथी जयंति, पेज 204/205
19. Agricultural Census , 2010-11 http://agcensus.dacnet.nic.in/SL/StateT1table1.aspx
20. Statistical Abstract Haryana : 2011-12, Page:64,  http://esaharyana.gov.in/Portals/0/statistical-abstract-2011-12.pdf 
22. Agricultural Census , 2010-11 http://agcensus.dacnet.nic.in/TL/TehsilT1table1.aspx 
23. Stalin, Works, Vol. 12, April 1929-June 1930, Concerning Questions of Agrarian Policy in the U.S.S.R. Speech Delivered at a Conference of Marxist Students of Agrarian Questions, December 27, 1929.
24. लेनिन, संकलित रचनाए, खंड-10, अक्तुबर क्रांति की चौथी बरसी, पेज 211