गुरुवार, 16 मार्च 2017

गौवंश संरक्षण एवं संवर्धन

गौवंश संरक्षण एवं संवर्धन 
कितना संरक्षण और कितना संवर्धन?

प्रदीप 

वर्तमान दौर अजीब सा दौर है। हम पहले से जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर बंटे हुए हैं और अब इसमें एक नया आयाम जुड़ गया है। आज देश गाय के नाम पर भी बंट रहा है। केंद्र और विभिन्न राज्यों में भाजपा सरकारों के सत्ता में आने के बाद देश में गाय और गौवंश को लेकर एक खतरनाक माहौल तैयार हो रहा है। अगर हम उत्तर भारत और पश्चिम भारत का उदाहरण देखें तो हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ऐसे अनेक संगठन खड़े हो गये हैं जो स्वयं को गौवंश का रक्षक बता रहे हैं। इनका मकसद उन लोगों को उचित सबक सिखाना है जो गाय को माता नहीं मानते। एक ओर इन्होंने गाय को राष्ट्रीय माता घोषित करने की मुहिम छेड़ रखी है तो दूसरी ओर तथाकथित गोभक्षकों के विरूद्ध गैरकानूनी कार्रवाइयों में लगे हुए हैं जिसका एक उदाहरण गुजरात की ऊना घटना है। 
ऊना में दलितों की सरेआम पिटाई की घटना तो अनेक घटनाओं के संयोग से राष्ट्रीय मीडिया में अपना स्थान बनाने में कामयाब हो गयी लेकिन ऐसी दर्जनों छोटी बड़ी घटनाएं हर राज्य में घटी हैं जिनकी चर्चा मीडिया में नहीं हुई लेकिन वे भी उतनी ही वीभत्स थीं जितनी ऊना की यह घटना। उदाहरण के लिए हरियाणा में फरीदाबाद जिले में ऐसी ही एक घटना में तथाकथित गाय का मांस लेकर जाने वाले लोगों के मुंह में गाय का गोबर और पेशाब डाला गया। ऐसा महसूस हो रहा है कि जनता का एक बड़ा हिस्सा इन लोगों का समर्थन कर रहा है मानो ये लोग किसी महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यकलाप का हिस्सा हैं। लेकिन कई बार जो दिखता है, वह होता नहीं है और जो हो रहा होता है, वह सच नहीं होता। 
गौवंश को लेकर चल रही मौजूदा सक्रियता कुछ ऐसी ही है। 
सबसे पहला मुद्दा तो यह है कि जिन लोगों पर गौवंश की तस्करी का आरोप है, वे गौवंश लाते कहां से हैं? एक बात तो सच है कि गौवंश की चोरी की पुलिस रिपोर्ट नहीं हैं। अगर पंजाब और हरियाणा का उदाहरण लें जहां मुस्लिम आबादी बहुत कम है, और ग्रामीण क्षेत्रें में अधिकतकर हिंदू गाय पालते हैं, तो गौ तस्कर अगर गौवंश की चोरी करते तो इनके खिलाफ  दर्जनों शिकायतें अभी तक दर्ज हो जानी चाहिएं थीं। अगर ऐसा नहीं है तो इसका एक ही अर्थ है कि गौवंश चोरी नहीं किया जा रहा बल्कि लोग इन्हें बेच रहे हैं। जितनी संख्या गौवंश के तस्करों की है, उससे कई हजार गुणा संख्या गौवंश को बेचने वालों की है जिन्हें अच्छी प्रकार पता होता है कि इनका हश्र क्या होने वाला है। और इन लोगों में से अधिकांश हिंदू हैं। इस तथ्य को कभी भूला नहीं जाना चाहिए। 
वास्तव में जब प्राचीन भारत में गौवंश को संभाल कर रखने और इसके सरंक्षण की बातें शुरु हुईं थीं, उस वक्त यह गाय के प्रति किसी भक्तिभाव की वजह से नहीं था बल्कि ऐसा उस वक्त की अर्थव्यवस्था की जरूरतें पूरी करने के लिए था। बैल खेती के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण जानवर था जिसकी वजह से खेती करना न केवल आसान हो गया था बल्कि इससे उत्पादन में भी जबर्दस्त वृद्धि हुई थी। इसलिए लोगों के लिए गाय और गौवंश का संरक्षण विशेषकर किसान समुदायों में संस्कृति का एक हिस्सा बन गया। लेकिन वर्तमान दौर वैसा नहीं है। खेती में आज बैलों की लगभग कोई उपयोगिता नहीं है। देश के बेहद पिछड़े क्षेत्रें में भी बैलों का स्थान ट्रैक्टर लेने लगे हैं। इसलिए आज हमारे ग्रामीण क्षेत्रें में बैल एक बोझ बन गया है जिससे किसान पीछा छुड़ाना चाहते हैं। गाय की उपयोगिता उसके दूध को लेकर है। लेकिन बूढ़ी हो चुकी गाय की वह उपयोगिता खत्म हो जाती है और किसान ऐसी बूढ़ी हो चुकी गायों से भी पीछा छुड़ाना चाहते हैं। इस प्रकार दूध देने वाली गायों को छोड़ कर बाकी का सारा गौवंश ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए अपना औचित्य खो चुका है। पहले से ही संकट झेल रहे किसानों के लिए इस गौवंश का पेट भरना बेहद कठिन है। दूसरे यह गौवंश ग्रामीण इलाकों में फसलों को नुकसान पंहुचाता है।  
इस अर्थव्यवस्था को गौसंरक्षक नकारते हैं। उनका तर्क होता है कि गाय के गोबर और मूत्र से भी बहुत कमाई की जा सकती है। उनके द्वारा पेश किए आंकड़े बड़े विचित्र होते हैं। ‘बूढ़ी हो चुकी गायों से भी पैसा कमाया जा सकता है’, वे ऐसा तर्क देते हैं। लेकिन ये सारे तर्क तब हवा हवाई हो जाते हैं जब देश में फैली गौशालाओं के प्रबंधकों को चंदा जुटाने के लिए मारामारी करते देखते हैं। अगर सचमुच गाय का गोबर और मूत्र इतना ही कीमती है तो इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि उससे गौशालाओं का खर्च निकल जाए। लेकिन गौशालाएं या तो सरकारी अनुदान पर निर्भर करती हैं या जनता द्वारा दिए जाने वाले चंदे पर। 
जब अर्थव्यवस्था वाला तर्क निराधार साबित हो जाता है तो भावनात्मक पहलू को सामने रखा जाता है। फ्क्या हम अपने बूढ़े मां-बाप को भी घर से निकाल देते हैं?य् उनका कहना होता है कि जिस प्रकार बूढ़े और आर्थिक तौर पर अनुपयोगी हो जाने के बाद भी हम अपने मां बाप को घर से नहीं निकाल देते उसी प्रकार बूढ़ी और अनुपयोगी हो जाने के बाद भी गऊ माता को किस प्रकार बाहर निकाला जा सकता है? यह तर्क रामबाण का काम करता है और ज्यादातर लोग चुप हो जाते हैं। 
लेकिन क्या हम एक चीज भूल सकते हैं कि इंसान का जीवन सबसे ज्यादा कीमती है। किसी भी जानवर से कहीं ज्यादा। आज भी हमारे देश के 42» बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। देश के एक तिहाई लोग यानि 40 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। भूख से तड़प तड़प कर अभी भी देश के अनेक लोग दम तोड़ देते हैं, ऐसे में हमारी पहली प्राथमिकता निश्चिता तौर पर इंसान होने चाहिएं। निस्संदेह, कल, जब देश के सभी लोगों को भोजन मिलने लगे, सबके सिर पर छत्त हो, तो हम गाय या और भी जानवरों के बारे में सोच पाएंगे। लेकिन जब तक ऐसी स्थिति नहीं पैदा होती, बूढ़े मां-बाप वाला उदाहरण उचित नहीं है। न तो हम अपने मां बाप को घर से निकालने के बारे में सोच सकते हैं और न ही यह सोच सकते हैं कि देश के किसी इलाके में किसी भी व्यक्ति के बूढ़े मां बाप भूख से दम तोड़ दें। और जब तक देश में ऐसा हो रहा है तब तक हम गाय या गोवंश से पहले इन्हें प्राथमिकता में रखेंगे और अपने सीमित संसाधनों को इंसानों के लिए सहेज कर रखेंगे।
लेकिन वर्तमान दौर में इससे उलटा हो रहा है। गौवंश के नाम पर इंसानों की बलि चढ़ाई जा रही है। कहीं उनकी हत्या कर, कहीं उन्हें मध्ययुगीन तौर तरीकों से उत्पीडि़त करते हुए। और इसके लिए बाकायदा एक सिस्टम बन चुका है। हर राज्य में गौ रक्षा के नाम पर ऐसे संगठन खड़े हो गये हैं, जो स्वयं में सत्ता हैं। वे तथाकथित दोषियों को पकड़ते हैं, उन्हें सजा सुनाते हैं और फिर सजा देते हैं। क्या यह गैरकानूनी काम नहीं है? क्या ये गतिविधियां संविधान के खिलाफ नहीं हैं? क्या इन संगठनों को इन गतिविधियों के लिए उसी प्रकार गैरकानूनी घाेषित नहीं कर देना चाहिए जिस प्रकार देश में अन्य बहुत से संगठनों के साथ किया गया है?
यह सिलसिला असल में बहुत साल पहले हरियाणा के छज्जर जिले के दुलिना गांव से शुरु हुआ था जहां पांच दलितों को जिंदा जला दिया गया था क्योंकि वे एक मृत गाय के शरीर से चमड़ी उतार रहे थे। लेकिन आज यह देश के हर राज्य में फैल गये हैं। जिस प्रकार खुलमखुला ये लोग अपनी गतिविधियां चलाते हैं, और उनकी पब्लिसिटी करते हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि इस काम के लिए उन्हें सरकार और प्रशासन से खुली छूट मिली हुई है। वर्तमान गौवंश से संबंधित कानून का अगर कोई उल्लंघन करता है तो इसके लिए दोषियों को पकड़ने, केस की जांच करने और दोषियों को सजा देने के लिए एक व्यवस्था बनी हुई है लेकिन उसको न मान कर ये संगठन स्वयं सत्ता की भूमिका निभाते हैं। स्पष्ट है कि यह स्थिति जिस अराजकता को जन्म देने वाली है, उसके भीषण परिणाम निकलने वाले हैं। दादरी में अखलाक की हत्या, मध्य प्रदेश के मंदसौर में भैंस का मीट ले जाते हुए दो महिलाओं की पिटाई, ऊना में दलितों की सरेआम पिटाई इसके महज कुछ उदाहरण हैं। ऐसी बीसियों घटनाएं मीडिया में स्थान हासिल नहीं कर पाई हैं लेकिन उनमें से अधिकांश सोशल मीडिया में चक्कर काटती जरूर दिख जाती हैं। लेकिन ये गौरक्षक असल में कितने संजीदा हैं, इसकी पोल राजस्थान में खुली जहां कुछ दिनों के भीतर 500 से ज्यादा गाय भूख और बीमारी से मारी गयीं। हालांकि वहां राज्य सरकार ने इसके लिए अलग से एक मंत्रलय बना रखा है और वहां गौरक्षकों की भारी संख्या मौजूद है। मीडिया की खबरों के अनुसार इन दिनों में कोई गौरक्षक या सरकारी व्यक्ति इन गायों की सुध लेने नहीं पंहुचा। अगर गौरक्षक सचमुच अपने काम के प्रति इमानदार हैं तो उन्हें इतना तो करना ही चाहिए कि प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को बूढ़ी हो चुकी दो-चार गाय खुद पालनी चाहिएं।
गौवंश के संरक्षण से संबंधित कानून बनने के बाद निश्चित तौर पर गौवंश के संरक्षण में वृद्धि हुई हैं और यह धरातल पर दिखाई भी दे रहा है। पहले दावा किया गया था कि आवारा घूमते गौवंश को गौशालाओं में भेजा जाएगा और देश की सड़कें आवारा पशुओं से निजात पाएंगी और देश के नागरिकों को सुरक्षित सड़कों पर आवागमन की सुविधा मिल पाएगी जो असल में देश के हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन पिछले दो सालों का अनुभव कुछ और ही कहानी बयान कर रहा है। शहरों की सड़कों पर आवारा पशुओं की बाढ़ आ गयी हैं पिछले कुछ महीनों के दौरान आवारा गौवंश की संख्या दसियों गुणा बढ़ गयी है। इनमें भी सांड और बैलों की संख्या ज्यादा है। ये गौवंश कहां से आ गया है? जाहिर सी बात है कि गांवों के लोग इन्हें सड़कों पर छोड़ गये हैं। पशुपालन का काम मुख्यतः गांवों में ही होता है। किसी जमाने में बैल और सांड खेती में खूब काम आते थे इसलिए किसान भी इनकी खूब देखभाल करते थे। लेकिन आधुनिक खेती में इनकी उपयोगिता खत्म हो जाने से ये किसानों के लिए बोझ हैं। अगर किसान इन्हें गांव में छोड़ेगा तो वहां ये खेती को बर्बाद करेंगे। इसलिए अब वे इन्हें शहरों की सड़कों पर छोड़ने लगे हैं। और शहर एक नई समस्या से जूझने लगे हैं। इनकी वजह से सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं के लिए कौन जिम्मेवार है? आवारा घूमते इन पशुओं की वजह से लोगों में झगड़े बढ़ने लगे हैं। गांवों के बीच आपस में अंतरविरोध बढ़ने की घटनाएं सामने आने लगी हैं। क्योंकि एक गांव के लोग इन्हें दूसरे गांव की सीमा में धकेल देते हैं और दूसरे गांव की फसलों के बर्बाद होने से वे पहले वाले गांव के लोगों से लड़ने लगते हैं। शहरों में पहले से तंग पड़ रही सड़कों पर जब पशु अधिकार कर बैठ जाते हैं तो ये उस सड़क का इस्तेमाल करने वाले लोगों में आपसी तनाव का कारण बनते हैं। पंजाब के कुछ गांवों में एक नया व्यवसाय शुरु हो गया है। अब कुछ लोगों का काम ही आवारा पशुओं को गांव की सीमा से बाहर करने का हो गया है जिसकी एवज में वे किसानों से प्रति एकड़ एक निश्चित राशी वसूल करते हैं। 
गौवंश के संरक्षण और संवर्धन के लिए बना कानून असल में गौवंश के लिए और ज्यादा अत्याचार का कारण बनने लगा है। राजस्थान के जयपुर की गौशाला एक अपवाद नहीं है। आप किसी भी गौशाला में चले जाइए और गायों की हालात देखिए, आपको वहां मौजूद गायों की दुर्दशा स्वयं समझ में आ जाएगी। टीन के शैड के नीचे खड़ी गाय, गाय कम कंकाल ज्यादा नजर आती हैं। गौशालाओं में गाय उनकी क्षमता से ज्यादा भरी हुई हैं। धूप, गर्मी, सर्दी, बरसात और भूख की मारी ये गाय कैसे  संरक्षित की जा रही हैं, कोई भी समझ सकता है। सड़कों पर घूमते गौवंश की हालात तो और भी दयनीय है। भूख और प्यास से बिलबिलाती ये गाय जब दुकानों और रेहडि़यों से खाने का सामान उठाने की कोशिश करती हैं तो इन्हें गौमाता कह कर सम्मान पूर्वक खाना नहीं दे दिया जाता बल्कि इनके मुंह पर डंडा मारा जाता है। आने जाने वाले लोग इन्हें सम्मान से नहीं देखते बल्कि घृणापूर्वक गाली देकर आगे बढ़ते हैं क्याेंकि ये उनके लिए परेशानी का सबब बन चुकी हैं। शहरा की सड़कों पर मरने वाली गायों के पेट से कई कई किलो प्लास्टिक का निकलना यह दिखाता है कि जब वे जिंदा थी तो किस तकलीफदेह स्थिति से गुजर रही थीं। अफसोस और त्रस्दी की बात तो यह है कि किसी गौ रक्षक को भी इन पर तरस नहीं आता। उन्हें उन्हीं गायों पर तरस आता है जो या तो किसी वाहन में लदी होती हैं (मान लिया जाता है कि इन्हें काटने के लिए वाहन में लादा गया है। और इस वजह से पंजाब का डैरी उद्योग बर्बाद हो गया है क्योंकिे दुधारू पशुओं को आज एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना संभव नहीं रह गया है।) या किसी दुर्घटना का शिकार हो गयी होती हैं। (मीडिया में फोटो आने का मौका होता है)। गऊ माता केे लिए चंदा इक्ट्ठा करने का काम जरूर चल निकला है। लगभग हर तीसरी दुकान पर इसके लिए चंदा देने के लिए दानपात्र रखा दिखाई देता है। लेकिन इसमें कितनी राशी इकट्ठा हुई है, इसकी रसीद नहीं दी जाती। अब बिना रसीद दिए इक्ट्ठा हुआ दान सही जगह इस्तेमाल हुआ या गलत हाथों में पंहुचा, इसकी क्या गारंटी? जब दुकानदारों से बात होती है कि आप रसीद क्यों नहीं लेते तो उनका सरल सा तर्क होता है कि हमने तो अच्छी भावना से दान आगे पंहुचा दिया, अब आगे उसका सही इस्तेमाल होता है या गलत, इसका पाप आगे वाले को लगेगा!!
हमारा समाज बहुत से अतंरविरोधों के साथ जीता है। हम कन्या की पूजा करते हैं और कन्या भ्रूण हत्या भी करते हैं। हम यह भी कहते हैं कि ‘उसकी’ निगाहों में सब बराबर हैं लेकिन भयंकर जाति प्रथा को भी मानते हैं। नदियों को देवी मानते हैं लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा गंदा भी रखते हैं। यही स्थिति गाय के बारे में भी है। गाय के शरीर में सभी देवताओं का वास होता है’, मान कर और उसे मां का दर्जा देकर सड़कों पर आवारा घूमने के लिए मजबूर भी करते हैं। गौशालाओं में कंकाल बन रही और भूख से बिलबिलाती सड़कों पर आवारा घूमती गाय पर क्या कम अत्याचार हो रहा है? क्या ऐसा कर उसे तिल तिल कर मरने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा? हम प्रतिदिन इस दृश्य को देखते हैं और देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।
सच्चाई को स्वीकार न करने की वजह से असल में ऐसे ही हालात पैदा होते हैं।

प्रदीप का यह लेख तर्कशील व अभियान पत्रिकाओं में छप चुका है ।

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