गुरुवार, 23 मार्च 2017

एक कदम आगे चार कदम पीछे

एक कदम आगे चार कदम पीछे
समर


अन्तरराष्ट्रीय खाद्यान्न नीति शोध संस्थान ने हाल में साल 2016 के आंकड़े जारी किये हैं। यह अन्तरराष्ट्रीय संस्थान विभिन्न देशों में कुपोषण और भुखमरी से संबंधित आंकड़े जारी करता है। भारत के संदर्भ में जारी इसके आंकड़े बेहद परेशान करने वाले हैं। इसने जिन 118 देशों में अपना अध्ययन किया उसमें भारत का स्थान 97वां है। यानि कुपोषण के मामले में दुनिया के केवल 21 देश भारत से पीछे हैं। इलैक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया में इस को लेकर जरा सी भी हलचल दिखाई नहीं दी। स्वाभाविक भी है कि जिस तिलस्मी संसार में रहने का वे भ्रम पाले हैं या जनता को भ्रम में रखना चाहते हैं, ये आंकड़े उस मायावी दुनिया को तार तार कर देते हैं। जिस कुपोषण की महामारी से भारत जूझ रहा है, उसमें 36 इंच का सीना बनाने के केवल ख्वाब देखे जा सकते हैं। पता नहीं ये सभ्य नागरिक कहां से 36 इंच से लेकर 56 इंच का सीना तान कर कहते हैं कि भारत एक महाशक्ति बन रहा है। असलियत में भारत आज भी गरीब और कुपोषित लोगों का देश है वरना यह कैसे हो सकता है कि हमारे यहां 5 साल से कम उम्र के बच्चाें में से 43 प्रतिशत कुपोषण के शिकार हैं। 48 प्रतिशत बच्चों की लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से कम है। यह आंकड़ा बताता है कि कुपोषण की इस समस्या से ये बच्चे कोई दो चार महीनों से नहीं बल्कि लंबे समय से यानि जन्म से और ज्यादातर मामलों में तो जन्म से पहले से ही जूझ रहे हैं। 
लेकिन इससे भी ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि इस मामले में भारत दुनिया के सबसे गरीब कहे जाने वाले सब-सहारा देशों से भी पिछड़ गया है। जरा कुछ तथ्य देखिये।


               देश का नाम    5 साल से कम उम्र के बच्चों में स्टंटिग की दर     प्रति व्यक्ति जीएनपी (क्रयशक्ति के अनुसार) अमरीकी डॉलर

  • घाना                         23 प्रतिशत                                           1910
  •  माली                 28 प्रतिशत                                           1140
  • बुरकिना फासो          33 प्रतिशत                                           1480
  • केमरून                  33 प्रतिशत                                           2270
  • युगांडा                  33 प्रतिशत                                            1300
  • केन्या                   35 प्रतिशत                                            1730
  • नाइजीरिया           36 प्रतिशत                                            2400
  • भारत                   39 प्रतिशत                                             5050

 (स्टंटिंग की दर का अर्थ है कि बच्चे की उम्र के अनुसार उसकी लंबाई नहीं बढ़ती। यह दीर्घकालिक कुपोषण की ओर इशारा करता है।)
उपरोक्त आंकड़े बता रहे हैं कि भारत की प्रति व्यक्ति क्रयशक्ति ज्यादा होने के बावजूद कुपोषण की दर इन गरीब अफ्रीकी देशों से कहीं ज्यादा है। इससे दो बातें साबित होती हैं। पहली चूंकि ये आंकड़े औसत की बात करते हैं इसलिए भारत में अमीर और गरीब की खाई इन देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है और दूसरा देश में सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो, उसके एजेण्डा में कुपोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ना कभी नहीं रहा। वर्तमान सरकार के चाटुकार इस बात से तसल्ली ले सकते हैं कि यह समस्या इस सरकार की दी हुई नहीं है लेकिन यह सरकार भी इस गंभीर समस्या के खिलाफ लड़ाई में पिछली सरकारों से भिन्न नहीं है। निम्न आंकड़े इसी बात को प्रमाणित करते हैं ।
केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले कुल खर्च का अध्ययन करने से पता चलता है कि शिक्षा पर होने वाला खर्च पिछले आठ सालों में ठहराव में है जबकि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कटौती की गयी है। शिक्षा पर साल 2008-09 में कुल सरकारी खर्च का 10-1 प्रतिशत खर्च होता था जो साल 2014-15 में 10-2 प्रतिशत था। इसी समय के दौरान स्वास्थ्य पर यह खर्च क्रमशः 4-6 प्रतिशत और 4-0 प्रतिशत रहा। खर्च में कटौती का मतलब साफ है। न तो कोई केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ‘बेकार’ चीजों पर खर्च करना चाहती हैं। अब अगर देश में कुपोषण और भुखमरी से मौतें होती हैं तो इनकी बला से। 
प्रत्येक जागरूक नागरिक यह बात जानता है कि कमजोर शरीर में कमजोर दिमाग रहेगा। देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों में से आधे अगर कुपोषण का शिकार बनेंगे तो देश कहां जाएगा? क्या ‘देशभक्तों’ को यह बात नहीं सोचनी चाहिए! कुपोषण की समस्या का एक परिणाम हमें तपेदिक की बीमारी (टीबी)के रूप में दिखाई दे रहा है। दुनिया के आधे तपेदिक के मरीज भारत में हैं। वैश्विक तपेदिक रिपोर्ट 2016 के अनुसार इस साल देश में तपेदिक के 28 लाख मरीज हैं जबकि पूर्वानुमान केवल 17 लाख मरीजों का था। लेकिन सरकार इसे लेकर परेशान नहीं है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अनुसार यह बेहतर रिपोर्टिंग की वजह से है, अन्य किसी कारण से नहीं। यानि सरकार की मंशा इन आंकड़ों के प्रति फिलहाल आंखे बंद करके रहने की है। 
अगर यह कहा जाए कि कुपोषण की इस समस्या के प्रति सरकारों ने कुछ किया ही नहीं, तो ऐसा कहना सरकार के प्रति नाइंसाफी होगी। जनता तक खाद्यान्न पहुंचाने के सरकार के तीन मुख्य कार्यक्रम हैं। पहला सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसके तहत देश के गरीब और अति गरीब लोगों को सस्ते दाम पर अनाज पहुंचाने का प्रावधान है। दूसरा आईसीडीएस के तहत चलाई जा रही आंगनवाडि़यां जहां 6 साल तक के बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था है और तीसरा स्कूलों मे चलाए जा रहे मिड-डे मील कार्यक्रम जिसमें स्कूली बच्चों को दोपहर का खाना दिया जाता है। 
पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बेहद सीमित कर दिया गया है। पिछले 25 सालों में विभिन्न सरकारों की एक सोच यह रही है कि अगर किसी कार्यक्रम के वांछित परिणाम नहीं निकल रहे तो उसके कारणों पर जाकर उनका समाधान करने की बजाय वे इसे बंद करने के लिए बहाने के रूप में इस्तेमाल करती आई हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के नाम पर इस कार्यक्रम को सीमित कर दिया गया। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न सरकारें कल्याणकारी राज्य होने का दावा करती हैं और अपनी पीठ थपथपाती हैं। ये कार्यक्रम कई सालों से चल रहे हैं। इसके बावजूद साल 2016 में अगर आधे बच्चे अभी भी कुपोषित हैं तो समझा जा सकता है कि कहीं न कहीं कोई गंभीर समस्या है जिसे आज तक की कोई भी सरकार या तो दूर नहीं कर पायी या उसने दूर करने का प्रयास ही नहीं किया। 
खाद्य सुरक्षा से संबंधित इन तीनों कार्यक्रमों में मौजूद खामियाें को दूर करने के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे। मसलन मिड डे मील कार्यक्रम में खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डारण की एक बड़ी समस्या है। बहुत से स्थानों पर अध्यापकों को पढ़ाने के स्थान पर स्वयं इसे सुनिश्चित करने में वक्त लगाना पड़ता है। बजट सही वक्त पर नहीं पहुंच पाता। अध्यापकों को अपनी जेब से पैसा खर्च करना पड़ता है। मध्य प्रदेश सरकार ने बच्चों में प्रोटीन की कमी को दूर करने के लिए इस कार्यक्रम में अण्डा शामिल करने की योजना बनाई थी जिसे धर्म के ठेकेदारों ने सिरे नहीं चढ़ने दिया। 
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सरकार ने पूरी तरह आधार से जोड़ दिया है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि किसी भी कल्याणकारी योजना को आधार से न जोड़ा जाए लेकिन सरकार ने इस दिशा निर्देश को दरकिनार कर दिया है।  इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से सुपात्र इस योजना से वंचित हो गये हैं। खास तौर पर बुजुर्ग लोग जिनके हाथ के अगूंठे का निशान नहीं मिलता या जिनके पास आधार कार्ड नहीं है, वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर हो गये हैं। बहुत से लोग जो पीले राशन कार्ड और गुलाबी राशन कार्ड के घोटाले में पिस गये और अपने लिए गुलाबी राशन कार्ड नहीं जुटा पाए, वे पहले ही इससे बाहर हो चुके थे। सरकार की निगाहों में जो गरीब नहीं हैं लेकिन जिनका जीवन स्तर बेहद निम्न स्तर का है और जिन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली से राहत मिलनी ही चाहिए थी, वे भी इससे बाहर हैं। 
इन तीनों कार्यक्रमों में घटिया सामग्री की आपूर्ति तो खैर लंबे समय से चली आ रही समस्या बनी ही हुई है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में गेंहू की बोरियों में भरी मिट्टी की आपूर्ति तो कई दिनों तक मीडिया में भी छाई रही थी। 
लेकिन एक और विषय जो कोई सरकार सोचने की जहमत नहीं उठाती, और जो इन तीनों कार्यक्रमों में कॉमन है कि यह आम जनता को भिखारी वाली स्थिति में खड़ी कर देती है। चूंकि भिखारी के पास अपना कोई अधिकार नहीं होता इसलिए दान देने वाला जो दे, उसे स्वीकार करना उनकी नियति होता है। देश की जनता को इस सरकारी खैरात की जरूरत ही क्यों पड़ रही है? क्यों नहीं जनता खुद अपना ध्यान रख सकती?? सरकारें खैरात कार्यक्रम को जारी रख सकती हैं लेकिन जनता को आत्मनिर्भर बनाने वाला कार्यक्रम यानि रोजगार मुहैया नहीं करवा सकती। पिछले 25 सालों में जो नीतियां देश की हर सरकार ने जारी रखी हैं, उन नीतियों ने देश में रोजगार विहीन विकास किया है। यहां बात सरकारी नौकरियों की नहीं की जा रही बल्कि सरकारी या निजी क्षेत्र कहीं पर भी, रोजगार के सृजन की है जो लगभग नगण्य है। मौजूदा भाजपा सरकार भी प्रत्येक साल 2 करोड़ नौकरियों का वायदा कर सत्ता में आयी थी लेकिन स्वयं सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि इन सालों में महज चंद लाख नौकरियों का सृजन हुआ है। न तो मेक इन इंडिया कार्यक्रम नौकरियां दे पाया है और न ही स्टार्ट-अप इंडिया। बिना नौकरियों के जनता को सरकारी कार्यक्रमों का मोहताज होना ही पड़ेगा। 
भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए सरकार की क्या योजनाएं हैं? जब हम इनका अध्ययन करते हैं तो हमें हास्यस्पद नीतियों के अलावा कुछ नजर नहीं आता। जिन दिनों कुपोषण से संबंधित ये आंकड़े आये थे, उन्हीं दिनों दिल्ली में एक सम्मेलन चल रहा था जिसमें चार मंत्रलयों के अलावा कई कारपोरेट हाऊस भी हिस्सा ले रहे थे। कुपोषण को दूर करने के लिए इनका विचार है कि भोजन को फोर्टिफाइड किया जाए यानि सार्वजनिक वितरण प्रणाली या अन्य जगहों पर मिलने वाले खाद्यान्नों में सूक्ष्म पोषक तत्व डाले जाएं जैसा कि हम नमक में आयोडिन खाते आ रहे हैं। स्वाभाविक है कि यह काम बड़ी कारपोरेट ही कर सकती हैं और इस प्रक्रिया में उनके लिए करोड़ों रुपए का मुनाफा कमाना संभव है। पता नहीं क्यों सरकारें भूल जाती हैं कि अगर विभिन्न क्षेत्रें में रहने वाले लोगों को उनके इलाके के हिसाब से खाद्यान्न उपलब्ध हो जाए तो इन कृत्रिम तरीकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। 
कई साल पहले हमने एक विचार आयात किया था- हरित क्रांति का। इस तथाकथित क्रांति का गुणगान अभी तक हो रहा है हालांकि इसने हमारे जमीन, पानी और हवा को जहरीला बना दिया। जमीन के अंदर मौजूद पानी के भंडारों को खत्म कर दिया। हमारी जैविक सम्पदा को जबर्दस्त नुकसान पंहुचा दिया। और हमारी जमीनों को बंजर बना दिया। उस वक्त हमें पढ़ाया गया कि गेंहू और चावल उत्तम खाद्यान्न हैं। मकई, ज्वार, बाजरा आदि हमारी थाली से अलग कर दिये गये और उनके स्थान पर गेंहू और चावल डाल दिये गये। लेकिन अब उन्हें समझ में आ गया हैै कि मकई, ज्वार और बाजरा ही असल में ज्यादा उत्तम हैं। आज ओट्स के नाम से बाजार में कई उत्पाद उपलब्ध हैं लेकिन यह ओट्स असल में हमारा ज्वार है जिसे पिछले पांच दशकों तक हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है।
ऐसे ही ‘फोर्टिफाइड अन्न’ के विचार का अब आयात किया जा रहा है। इसके पीछे मकसद हरित क्रांति की ही तरह किसानों की मदद करना नहीं है बल्कि बड़े कारपारेट निगमों को एक विशाल बाजार उपलब्ध करवाना है। हमें डिब्बा बंद भोजन नहीं चाहिए बल्कि परंपरा से चला आ रहा भोजन चाहिए जिसकी उपलब्धता की गांरटी सरकार को करनी चाहिए। जब तक सत्ता इस मामले में गंभीर नहीं होती और सरकारें कारपोरेट जगत की जरूरत के अनुसार उत्पादन करने की बजाय जनता की जरूरतों और इलाका विशेष में पैदावार की संभावनाओं को ध्यान में रख कर पैदावार को बढ़ावा नहीं देगी, तब तक भारत में कुपोषण की समस्या का समाधान संभव नहीं है। क्या यह भारत की जनता के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र नहीं है कि यहां की स्थानीय फसलों को खत्म कर केवल गेंहू और चावल को बढ़ावा पिछले पांच दशकों के दौरान दिया जाता रहा है? अब एक नया षड््यंत्र फोर्टिफाइड फूड के रूप में रचा जा रहा है जिससे खुले बाजार में अन्न के दामों में भारी वृद्धि होगी और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारी मुनाफा।

साभार अभियान

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