मंगलवार, 14 मार्च 2017

भूमण्डलीकरण के भारत की अर्थव्यवस्था पर हमले के 25 साल विषय पर एक दिन के सेमीनार का आयोजन


राजनीतिक व सांस्कृतिक पत्रिका ‘अभियान’ का आयोजन 
भूमण्डलीकरण के भारत की अर्थव्यवस्था पर हमले के 25 साल बीत जाने पर एक दिवसीय सेमीनार
दिनांक 26 मार्च 2017 दिन रविवार सुबह 10 बजे गुज्जर धर्मशाला ब्रह्मसरोवर कुरूक्षेत्र   

नई आर्थिक नीतियों को लागू हुए 25 साल गुजर चुके हैं। सन् 1991 में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह की सरकार ने इन्हें लागू करते समय हमें बताया था कि सन् 1991 तक आते आते भारत में नेहरू की आर्थिक नीतियों के परिणाम नुकसानदायक साबित होने लगे थे और स्थिति यह बन गयी थी कि हमें अपना सोना विश्व बैंक के पास गिरवी रखना पड़ा था क्योंकि हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार बस इतना बचा था कि उससे हम महज 15 दिन की जरूरतें पूरी कर सकते थे। इन नीतियों को अन्तर-राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं आईएमएफ और विश्व बैंक के मार्गदर्शन में लागू किया गया था। भारत की ही तरह दुनिया के बाकी देश भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रहे थे। दुनिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए इन नीतियों को रामबाण के रूप में पेश किया गया और कहा गया कि इन नीतियों का कोई विकल्प नहीं है, कि या तो हम विकास के रास्ते पर चलने के लिए इन नीतियों को अपनाएं या फिर पिछड़ेपन और गरीबी में बने रहें।
नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के 25 साल गुजरने के बाद आज हम कहां हैं? इन नीतियों से किसे फायदा हुआ? किसे नुकसान?? इन नीतियों की दो बुनियादी बातें थीं। पहली यह कि कारपोरेट पूंजी के भारत में निवेश करने का रास्ता सुगम बनाया जाये। इसके लिए जो भी बाधाएं, सीमाएं और प्रतिबंध लगाये गये हैं, उन्हें सरकार दूर करे ताकि दुनिया के किसी भी कोने से पूंजी को भारत में बेरोकटोक आने-जाने का अवसर मिले। इसके पीछे तर्क यह था कि भारत को विदेशी पूंजी की दरकार है जो तभी भारत में आएगी जब उसके आने का रास्ता खोला जाएगा और उसे न्यूनतम शर्तों पर यहां काम करने का अवसर दिया जाएगा। दूसरी बुनियादी बात यह बतायी गयी कि सरकार का काम सत्ता चलाना होता है, फैक्टरियां - कारखाने चलाना नहीं। फैक्टरियां-कारखाने निजी हाथों में सौंप देने चाहिएं। सरकार जनता को विभिन्न प्रकार की सब्सिडी देती है, उसे खत्म करना चाहिए। सरकारी कर्मचारियों की संख्या में कटौती करनी चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी चीजों पर सरकारी खर्च को तर्कसंगत बनाना चाहिए यानि ये सब एक टारगेट समूह को ही उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। यह माना गया कि इन मदों पर होने वाला खर्च असल में सही लाभार्थियों तक नहीं पंहुचता इसलिए ऐसी योजनाओं को बंद कर देना चाहिए। उनके द्वारा हमें बताया गया था कि इसी तरीके से देश का पिछड़ापन दूर होगा, देश से गरीबी दूर होगी और लोगों को रोजगार मिलेगा। हमें बताया गया कि जब ऊपर के वर्गों के पास खूब सारा पैसा आएगा तो वह रिस रिस कर नीचे जाएगा और नीचे के पायदान पर खड़े लोगों को भी इससे फायदा होगा। दूसरे सरकार अपने अनावश्यक खर्चों को कम करेगी तो बचे हुए पैसे का इस्तेमाल सही जरूरतमंदों पर किया जा सकेगा।
 इन 25 सालों में लगभग प्रत्येक पार्टी ने केंद्र में राज किया है और कभी न कभी गठबंधन के रूप में केंद्र में सत्तासीन रही है। ये पार्टियां अपने सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बेहद भिन्न मत रखती रही हैं। घोर ब्राह्मणवादी पार्टियों से लेकर दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां, हिंदूत्ववादी पार्टी, मुस्लिम कट्टरपंथियों की पार्टी, क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां_ ये सभी बाकी मामलों में कितना भी भिन्न होने का दावा करें पर एक मामले में हमेशा एक सुर में बात करती रही हैं और यह मामला है उपरोक्त वर्णित आईएमएफ और विश्व बैंक के मार्गदर्शन में लागू नई आर्थिक नीतियों का। 1991-96 काल में जब कांग्रेस केंद्र में थी तो भाजपा ने विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस की इन नीतियों का विरोध किया था और स्वदेशी जागरण मंच नाम का संगठन भी खड़ा किया था लेकिन वही भाजपा जब 1999 में सत्ता में आई तो उसने इन्हीं नीतियों को और भी तेजी से लागू किया था। पिछले 25 सालों के इस राजनीतिक अनुभव से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि विपक्ष में रहते हुए कोई पार्टी चाहे जैसा मर्जी राग अलापे, सत्ता में आते ही उसके सुर बदल जाते हैं और वह आईएमएफ और विश्व बैंक के सुर में सुर मिलाने लगती है। 
इन 25 सालों में भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत ज्यादा विस्तार हुआ है। भारत दुनिया की 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया है। भारत की जीडीपी जो 1991 से पहले 3-4-5» के बीच रहती थी अब 7-9» के बीच रहने लगी। भारत के पास 21 लाख करोड़ रुपए का विदेशी मुद्रा भंडार है जिससे हम 11 महीने का आयात कर सकते हैं। भारत का विदेश व्यापार इन सालों में कई गुणा ज्यादा हो गया है। इन आंकड़ों को मजबूती देने के लिए हमें एक्सप्रैस वे, 8 लेन वाली सड़कें, गुरुग्राम (गुड़गांव) जैसे शहरों में बड़ी निगमों के बहुमंजिली दफ्रतर, हर शहर में बन रहे मॉल और मल्टीप्लैक्स दिखाए जाते हैं। पहले जो चीजें केवल विदेशों में उपलब्ध थीं, अब उस प्रत्येक ब्रांड को भारत में खरीदा जा सकता है। 
तस्वीर का यह पहलू जितना चकाचौंध वाला है, दूसरा पहलू उतना ही स्याह, काला और दर्द से भरा है। साल 1997 से 2016 के बीच देश में तीन लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इतनी बड़ी संख्या में किसानों की मौतों के आंकड़ों की तुलना 19वीं सदी में पड़े सूखे और अकालों के दौरान हुई मौतों से की जा सकती है। आक्सफैम नाम की एक संस्था के आंकड़ों ने बताया है कि दुनिया में (भारत में भी) अमीरी और गरीबी के बीच खाई आज जितनी चौड़ी है उतनी पहले कभी भी नहीं थी। दुनिया की आधी से ज्यादा दौलत सबसे अमीर 1» लोगों के पास है। दुनिया में सबसे अमीर 8 लोगों के पास जितनी दौलत है, उतनी ही सम्पत्ति दुनिया की सबसे गरीब आधी आबादी के पास है। नई आर्थिक नीतियां इसके लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं। लाखों रुपए की मासिक आय और लाखों रुपए की अन्य सुविधाएं पाकर भी संतुष्ट नहीं होने वाले हमारे सांसद और विधायक जब गरीबी रेखा की बात करते हैं तो उन्होंने इसे 32 रुपए प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति तय किया है। इसके बावजूद देश की 25» आबादी इस गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रही है। भुखमरी से होने वाली मौतें भी पहले की ही तरह अखबारों की सुर्खियां बटोर रही हैं। इन नई आर्थिक नीतियों की चकाचौंध शहरों के मॉल के दरवाजे पर आकर रुक जाती है। उससे आगे तो अंधेरा और बेबसी ही बाकी बचते हैं। 
भारत में विनिर्माण क्षेत्र की हालत इन 25 सालों में नहीं सुधरी। 1988-89 में यहां जीडीपी का 16-4» पैदा होता था और 2015-16 में यहां जीडीपी का 16-2» पैदा होता है। यानि जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान कुछ कम ही हुआ है, बढ़ा नहीं है। इन 25 सालों में औद्योगिक उत्पादन 27-28» के आसपास ठहराव का शिकार रहा है। जबकि इसके समानान्तर चीन, इंडोनेशिया, कोरिया आदि देशों में यह 40 से 50» के बीच है। इस दौरान खेती में जीडीपी का हिस्सा बहुत कम हुआ है और सेवा क्षेत्र में यह भागेदारी बढ़ी है। उपरोक्त आंकड़ों से जो तस्वीर मिलती है, वह एक विकृत विकास की तस्वीर है। कृषि और विनिर्माण क्षेत्र जिन पर देश की अधिकतर आबादी अपनी आजीविका के लिए निर्भर करती है, इनका हिस्सा जीडीपी में कम हुआ है। इसकी वजह से खेती और विनिर्माण उद्योग में लगे 36 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों के लिए भयंकर संकट खड़ा हो गया है। अगर उनके परिवारों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या 100 करोड़ बन जाती है। देश का विनिर्माण उद्योग स्थानीय बाजार की मजबूती पर विकसित नहीं हुआ है बल्कि विदेशी बाजार पर निर्भर हैं इसलिए जब भी धनी देशों में आर्थिक संकट तीखा होता है, भारत में विनिर्माण क्षेत्र चरमराने लगता है और लाखों मजदूर सड़कों पर आ जाते हैं। 
भारतीय कृषि यूं तो लगभग हर साल संकट में रहती है सिवाय उन सालों के जब देश में अच्छी मानसून होती है। इतने अधिक विकास के बाद भी खेती ‘ऊपर वाले’ की दया पर निर्भर रहती है। इन 25 सालों में किसानों की हालत बद से बदतर हुई है। बिना राजकीय सहायता के खेती अपने दम पर न भारत में टिक सकती है और न ही अमरीका और युरोप के धनी देशों में। आप स्वयं अंदाजा लगाइये कि अमरीका अपने किसानों को (जो असल में कई-कई हजार एकड़ जमीन के मालिक होते हैं) प्रतिदिन 6000 करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रदान करता है। हमारे किसानों को पूरे साल में भी इतनी सब्सिडी नहीं मिलती । नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती की गयी, बाजारों को बड़ी कंपनियों के लिए खोल दिया गया जिससे बीजों और अन्य रसायनों के दामों पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं रह गया। बैंकों ने अपने व्यापार में इजाफा किया लेकिन किसानों के पास अभी भी कर्ज के लिए मुख्यतः पुराने सूदखोरों और आढ़तियों के पास जाने के इलावा कोई विकल्प नहीं था। बैंकों का इस्तेमाल धनी किसान और बड़े जमींदार कर रहे थे जो बैंक पूंजी से अपनी सूदखोर पूंजी को ही बढ़ा रहे थे। मोनसेंटो, कारगिल जैसी कंपनियों ने इसी दौरान खुद को दुनिया की सबसे बड़ी सौ कंपनियों में स्थापित किया। देश के बड़े जमींदारों और आढ़तियों ने इन नीतियों की बदौलत खूब विकास किया। बाजार के साथ जुड़ कर कई धनी किसानों ने भी फायदा उठाया। लेकिन मध्यम, गरीब और भूमिहीन किसानों की अगर हम बात करें तो उन्हें इन नीतियों की वजह से और ज्यादा अराजक स्थितियों का सामना करना पड़ा है। वे और ज्यादा बाजारवाद के शिकार हुए हैं। संकट का आलम हमें उनकी आत्महत्या के आकड़ों से साफ साफ दिखाई दे जाता है। साल में कई करोड़ नौकरियों का वायदा करके 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार भी इन दो सालों में महज दो चार लाख लोगों को ही नौकरियां दे पायी है। असल में नई आर्थिक नीतियों का मकसद कभी रोजगार उपलब्ध करवाना था ही नहीं। 
इन नीतियों की बदौलत सरकारी नौकरियों की संख्या में भारी कटौती हुई है, बहुत से काम अब ठेके पर करवाए जाने लगे हैं। हरियाणा रोडवेज में 1992 में 1 करोड़ की आबादी के लिए लगभग 3600 बसें और 25000 कर्मचारी थे। लेकिन अब 2-5 करोड़ आबादी के लिए सिर्फ 4000 बसें और 19000 कर्मचारी हैं। लगभग 12000-13000 कर्मचारियों को ठेके पर रखा गया है। इसी प्रकार बिजली विभाग में सन् 1987-88 में लगभग 50000 कर्मचारी थे जो अब घट कर 23000 रह गये हैं। ऐसे ही स्वास्थ्य विभाग और शिक्षा विभाग का मामला है। ये ऐसे विभाग हैं जिनका काम सीज़नल नहीं है बल्कि परमानेंट प्रकार का है और कानूनी तौर पर इन विभागों में ठेके पर कर्मचारी नहीं रखे जाने चाहिएं।
इन नीतियों ने देश में एक विकृत विकास को जन्म दिया है। इससे कुछ क्षेत्रें में भारी औद्योगिकरण हुआ है जबकि देश के विशालकाय इलाके औद्योगिक रूप से पिछड़ गये हैं। दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बैंग्लुरु आदि चंद इलाकों में आज देश भर से लोग काम की तलाश में पंहुच रहे हैं। इससे इन इलाकों में झोपड़पट्टी में रहने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। वहां मकानों के किराये इतने ज्यादा बढ़ गये हैं कि निम्न मध्यम वर्ग के लिए भी दो कमरे का मकान लेना संभव नहीं है। इसका समाधान केवल तभी है जब इन शहरों पर यह अनावश्यक बोझ कम हो, उद्योग उन क्षेत्रें में भी लगाये जायें जहां से श्रमिक पलायन कर रहे हैं। 
25 सालों का इन नीतियों का अनुभव हमें यही बताता है कि ये नीतियां अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब हुई हैं। इनका मकसद पूंजीपतियों की ताकत को और ज्यादा मजबूत बनाना था, उन्हें ज्यादा मुनाफा कमाने के अवसर उपलब्ध करवाना था, मजदूरों की संगठित ताकत को तोड़ना था। इन नीतियों ने ठीक यही किया है लेकिन अगर आम आदमी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये नीतियां उसके जीवन में सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं लेकर आई हैं। अभियान पत्रिका पिछले 25 साल से भूमंडलीकरण, उदारीकरण और नीजिकरण की जन विरोधी नीतियोें के विरूध सतत एवं सचेतन रूप से कलम थामे हुए है। और इन जन विरोधी नीतियों के खिलाफ मेहनतकश जनता के जझारू संघर्षों में सच्ची भागेदारी निभाने के लिए गर्व महसूस करती है। इसी कड़ी में आप सभी मजदूर-किसानों, छात्रें-नौजवानों, जन पक्षधर बुद्धिजीवियों, कला कर्मियों, राजनीतिक व सामाजिक कार्यक्रताओं को सादर आमंत्रित करते हुए अभियान पत्रिका इस महत्वपूर्ण मसले पर एक दिन के सेमीनार का आयोजन कर रही है । इस कार्यक्रम में बढ़ चढ़ कर भाग लें ।    

सेमीनार के विषय
भूमंडलीकरण और रोजगार का संकट,
भूमंडलीकरण और खेती का संकट,
भूमंडलीकरण के दौर में बदलते सांस्कृतिक सरोकार
वक्तागण- राहूल वर्मन और मनाली वर्मन, आई आई टी कानपुर, अंजनी कुमार, संपादक भौर पत्रिका दिल्ली ।
दिनांक 26 मार्च 2017 दिन रविवार सुबह 10 बजे गुज्जर धर्मशाला ब्रह्मसरोवर कुरूक्षेत्र
राजनीतिक व सांस्कृतिक सजृन का अभियान 

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