किसान संगठन स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करवाने के लिए समय समय पर आवाज उठाते रहते हैं । भारतीय किसान युनियन जैसे धनी एवं सामंती तत्वों के प्रभाव वाले संगठन भी स्वामिनाथन की सिफारिशे लागू करने की बात करे तो कोई सहज ही अंदाजा लगा सकता है कि इन्होने आयोग की रिर्पोट को पढा तक नहीं है । क्योंकि इस आयोग ने जो समाधान पेश किए हैं, किसान युनियन वैसे उपायों के कभी पक्ष में नहीं रही । वामपंथी पार्टियां व इनसे संबद्ध जनसंगठन भी -स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशे लागू करो - का नारा लगा रहे हैं । उपरोक्त दोनों ही किस्म के पक्ष स्वामिनाथन आयोग के कुछ ही पहलूओं को उठा रहे हैं । मुख्य रूप से इनकी मांग यह होती है कि कृषि उत्पादों की कीमतें स्वामिनाथन की सिफारिशों के अनुसार तय की जांए । ऐसा कहने से भी ज्यादा दिक्कत नहीं । लेकिन इनकी मांग यह होती है कि फसलों की कीमतें बढाओ । जिस पर कुछ अन्य संगठन ,जो मजदूर हितों की रक्षा का हवाला देते है, किसान संगठनों की उपरोक्त मांग को खारिज कर देते हैं । इनका कहना है कि कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि मजदूर विरोधी कदम होगा जिसका कभी समर्थन नहीं किया जा सकता । ऐसा करके ये बिना पढे ही स्वामिनाथन आयोग की रिर्पोट को भी रद्द कर देते हैं । यहां किसान आयोग की रिर्पोट पर एक सरसरी नजर डालने का प्रयास किया गया है ताकि यह समझा जा सके कि इसमें भारत की किसानी को दरपेश मौजूदा कृषि संकट का क्या समाधान प्रस्तावित किया है ? या इसमें क्या खामियां हैं । इस रिर्पोट का किस सीमा तक समर्थन किया जा सकता है या नहीं ?
डा0 एम एस स्वामिनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 18 नवम्बर 2004 को किया गया । उस समय देष में यूपीए गठबंधन की सरकार सत्ता में नई नई आई थी । आयोग ने अपनी चार रिर्पोटें क्रमशः दिसम्बर 2004, अगस्त 2005, दिसम्बर 2005 तथा अप्रेल 2005 में सरकार के सामने पेष की । पांचवी और अन्तिम रिर्पोट 4 अक्तुबर 2006 को पेश की गई । इन रिर्पोटों में बहुत ही मुल्यवान अध्ययन सामग्री के अलावा ’तेज एवं ज्यादा समावेशी विकास’ जैसा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में तय किया गया था, के बारे में ठोस सुझाव दिए गए हैं । आयोग को निम्नलिखित मुद्दों पर सुझाव देने थे -
- खाद्य सुरक्षा के लिए ठोस सुझाव देना । सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य हासिल करने के उद्देश्य से खाद्य एवं पौषण सुरक्षा के लिए एक मध्यम स्तरीय रणनीति बनाना ।
- देष की प्रमुख कृषि प्रणालियों की उत्पादकता, लाभदायकता व स्थाईत्व को बढाना ।
- सुखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए विषेश कार्यक्रम बनाना ।
- वैश्विक प्रतिस्पृधा का मुकाबला करने के लिए भारतीय कृषि उत्पादों की गुणवता व लागत प्रतिस्पृधा बढाना ।
- अंतराष्ट्रीय कीमतों के तेजी से गिरनें के दौर में भारतीय किसानों का आयात से बचाव करना ।
कई दशक से अभूतपूर्व कृषि संकट के कारण देश के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं । कृषि की समस्याओं के कारण जीवनलीला समाप्त करने वाले किसानों की संख्या लाखों का आंकडा पार कर चुकी है । राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक 1997 से 2005 के बीच लगभग 150,000 किसान ने आत्महत्या कर ली थी । आत्महत्या की यह दर 10,000 सलाना की दर से बढ़ रही है। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और युपीए गठबंधन के अन्य घटक दलों पर दबाव था कि वे कृषि संकट पर कुछ ठोस कदम उठाएं । स्वामिनाथन आयोग का गठन भी इसी कारण किया गया था ।
आयोग ने अपने अध्ययन में पाया कि कृषि संकट के कारण ही किसान आत्महत्या का शिकार हो रहे है । स्वामिनाथन आयोग की जांच-पड़ताल के अनुसार इस कृषि संकट के प्रमुख कारण इस प्रकार हैः-
1. भूमि-सुधार कार्यक्रम सही ढंग से लागू ना करना ।
2. सिंचाई के लिए पर्याप्त एवं गुणवता वाले पानी का अभाव ।
3. कृषि के लिए उचित तकनिक का अभाव ।
4. संस्थागत ऋणों का किसानों की पहुंच से बाहर होना ।
इनके अलावा विपरित जलवायु के कारकों ने भी इस समस्या को और जटिल बना दिया ।
भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करो
आयोग ने माना कि किसानों के लिए प्राथमिक संसाधनों जैसे भूमि, पानी, जैव-संसाधन, ऋण, बीमा, तकनिक, ज्ञान-प्रबंधन और बाजार आदि की उपलब्धता एवं नियन्त्रण सुनिश्चित करना इस समस्या के समाधान के लिए बहुत जरूरी है । आयोग ने कहा है कि 60 प्रतिषत से अधिक ग्रामीण परिवारों के पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है । छोटे भू खण्ड की मिलकियत प्रदान करने से परिवार की आय और पौषहार सुरक्षा सुधारने में मदद मिलेगी । जहां संभव हो, भूमिहीन परिवारों को कम से कम एक एकड़ प्रति परिवार भूमि उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिससे उन्हे घरेलू उद्यान कायम करने व पशुपालन के लिए स्थान उपलब्ध होगा । आयोग ने सिफारिश की है कि कृषि को संविधान की समवर्ती सूचि में रखा जाए ।
अपनी पांचवीं व अन्तिम रिर्पोट में आयोग ने किसान शब्द को परिभाषित किया है । किसान शब्द के अन्तर्गत भूमिहीन कृषि श्रमिक, बटाईदार, काश्तकार, लघु,सीमांत और उप-सीमान्त खेतिहर, मछुवारे, कुक्कुट व पशूपालन में लगे अन्य किसान, बागान कामगार और साथ ही वे ग्रामीण तथा जनजाति किसान भी शामिल हैं जो अनेक प्रकार के खेती से जुड़े व्यवसायों में लगे हैं । इस शब्द के अन्तर्गत झूम खेती करने वाले जनजाति परिवार भी आते हैं । आयोग ने कृषि क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं को भी किसान के रूप में चिन्हित किया है ।
आयोग ने इस पर जोर देकर कहा है कि कृषि के लिए जमीन और पशुधन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने के लिए भूमि सुधार आवश्यवक है । जोतों की असमानता जमीन के स्वामित्व के स्वरूप में दिखाई देती है । आयोग के अध्ययन से पता चलता है कि वर्ष 1991-92 में , नीचे के आधे से ज्यादा ग्रामिण परिवारों के पास कुल भूमि कृषि का मात्र 3 प्रतिशत स्वामित्व था और जबकि ऊपर के 10 प्रतिषत ग्रामिण परिवारों के पास कुल जमीन की 54 प्रतिशत कृषि भूमि हैं । पंजाब युनिवर्सिटी चण्डीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर श्री गोपाल अय्यर ने अपने अध्ययन में पाया कि दिसम्बर 1994 तक पंजाब में कुल 132600 एकड़ जमीन सरपल्स घोषित की गई जिसमें से 102500 एकड़ जमीन को 27600 लाभार्थियों में बांटा गया । यह जमीन कुल बिजाई क्षेत्र का केवल 3.17 प्रतिषत बनती है । इसी प्रकार हरियाणा में कुल 92300 एकड़ कृशि भूमि सरपल्स घोषित की गई जोकि कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 2.29 प्रतिशत भाग बनती है । जिसको 25000 व्यक्तियों में वितरित किया गया । इस अध्ययन को सुच्चा सिहं गिल जैसे कई अन्य विद्वानों ने नकार दिया है । उनके अनुसार 11 अगस्त 2010 तक उपलब्ध सुचनाओं के अनुसार हरियाणा के सभी जिलों में केवल 17681 एकड़ जमीन 12687 अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को आबंटित की गई । यह कुल बिजाई क्षेत्र का मात्र 0.35 प्रतिशत बनती है । आज जबकि भूमि-सुधारोें का कार्यक्रम सभी राजनीतिक दलों के एजेंडा से गायब हो चुका है ,स्वामिनाथन आयोग मौजूदा कृशि संकट से निकलने के लिए गरीब व भूमिहीन किसानों को कृषि भूमि के वितरण की सलाह सरकार को देते हैं ।
- भूमिहदबन्दी कानूनों को लागू किया जाए तथा सरपल्स जमीनों का बटवारा जरूरतमन्दों में किया जाए । बेकार पडी जमीनें भी वितरित की जाए ।
- कृशि और वन भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कार्पोरेट हाथों में जाने पर रोक लगाओ ।
- आदिवासी जनता के चरागाह एवं जंगल के मौसमी उपयोग के अधिकारों की रक्षा करो ।
- राष्ट्रीय भूमि उपयोग सेवा की स्थापना करो , जिसके पास भूमि के उपयोग को अन्य कारकों के साथ लिंक करने की क्षमता हो ।
- कृषि भूमि की बिक्री के मामलों को रेगूलेट करने के लिए समुचित व्यवस्था का निर्माण करो ।
आयोग कृषि भूमि के घटते रकबे को लेकर चिन्तित है इसलिए वह कृषि भूमि के कारपोरेट हाथों में जाने के खिलाफ है । लेकिन भारत सरकार अभी तक एक औपनिवेशिक कानून के जरिये किसानों से जमीन अधिग्रहण करती थी तथा मामूली बदलावों के साथ फिर वैसा कानून किसानों की जमीन कारपोरेट घरानों को सौपने के लिए बनाया है । इस कानून में भी बहुत से विवादास्पद प्रावधान है जिसका विभिन्न राजनीतिक दल व किसान सगंठन विरोध कर रहे है । हरियाणा की गत कांग्रेस सरकार ने तो कारपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि हदबन्दी कानून भी बदल डाले । इन बदलावों के अनुसार अब कोई भी कारपोरेट घराना कितनी भी जमीन का मालिक बन सकता है । इससे पहले हरियाणा भूमि हदबन्दी कानून की धारा 4 एक निश्चित सीमा से ज्यादा भूमि रखने पर रोक लगाती थी । इस प्रकार आयोग की सिफारिशे और सरकार की कारवाई दो विपरित दिशाओं में दिखाई देती है ।
सिंचाई की समस्या
देश के कुल 192 मिलियन हेक्टेयर बिजाई क्षेत्र में से 60 प्रतिशत की सिंचाई वर्षा पर निर्भर है । इसी प्रकार कुल कृषि उत्पाद का 45 प्रतिशत भी वर्षा पर निर्भर है । किसानों की पानी तक लगातार पहुंच बनाए रखने के लिए एक व्यापक सुधार कार्यक्रम की सिफारिश की गई है । आयोग ने एक मिलियन वेल रिचार्ज कार्यक्रम का सुझाव दिया है । इसका उद्देश्य देहाती कुओं को वर्षा के पानी से रिचार्ज किया जाना है । इससे न केवल जल संवर्धन को बढावा मिलेगा बल्कि सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी की वकैल्पिक व्यवस्था का विकास भी होगा । आयोग ने इस कार्यक्रम से वर्शा के पानी के संरक्षण के जरिये जल आपूर्ति में वृद्धि की तकनिक को विकसित करने पर बल दिया है । जैसा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में भी इसे एक लक्ष्य बनाया गया था , आयोग ने सिंचाई-क्षेत्र में सरकारी पूँजी निवेश की बढोतरी करने का सुझाव दिया है।
कृषि की उत्पादकता की समस्या
जोत के आकार के अलावा, कृषि की उत्पादकता भी किसानों की आमदनी तय करती है । हालांकि भारत में प्रति इकाई उत्पादकता अन्य फसल उत्पादक देशों की तुलना में काफि कम है । आधुनिक तकनीक के अंधाधूंध इस्तेमाल से न केवल खेती की लागत का खर्च बेतहाशा बढ़ गया बल्कि रासायनिक खादों के इस्तेमाल से जमीन भी अपनी उपजाऊ क्षमता खोने लगी। जमीन में फसल की उत्पादकता में गिरावट इस तथ्य से समझी जा सकती है कि 1980 में जिस जमीन में 4 क्विंटल गेंहू प्रति बीघा पैदा होती थी, 1990 आते आते वह 3 क्विंटल प्रति बीघा तक आ गयी और अब वहां मात्र 2 क्विंटल से 2.5 क्विंटल प्रति बीघा की औसत से ही गेंहू की पैदावार हो पा रही है। कृषि उत्पादकता में वृद्धि हासिल करने के लिए स्वामिनाथन आयोग निम्नलिखित सुझाव देता है-
- कृषि संबधी आधारभूत संरचना के विकास के लिए विषेशतौर पर सिंचाई-व्यवस्था, ड्रेनेज, भू-विकास, जल-संरक्षण,कृषि शौध और सडक संपर्क आदि क्षेत्रों में, सरकारी निवेष को उल्लेखनीय रूप से बढाने की आवश्यकता है ।
- राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी विकसित मिट्टी-जांच प्रयोगशालाओं का जाल बिछाया जाए जोकि सुक्ष्म से सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी की जांच कर सके ।
- कन्जर्वेशन फार्मिंग को बढावा दिया जाए जिससे किसानों को भूमि-स्वास्थ्य, पानी की गुणवता व मात्रा और जैव विविधता के संरक्षण तथा सुधार करने में मदद मिलेगी ।
आयोग खेती पर निवेश बढाने की सिफारिश करता है । आयोग का मानना है कि सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत कृषि पर खर्च करना चाहिए । आयोग ने अपनी रिर्पोटों की शुरूआत नेहरू एवं महात्मा गांधी के प्रसिद्ध कथनों-सब कुछ इन्तजार कर सकता है,पर कृषि नही तथा रोटी भूखे के लिए भगवान है - से की है । स्वामीनाथन आयोग ने भूख को इतिहास बनाने का लक्ष्य सामने रखते हुए इस काम को हाथ में लिया था लेकिन सरकार को कृषि की कोई सुध नहीं है । कृशि क्षेत्र पर निवेष दिनों दिन कम किया जा रहा है , विश्व व्यापार संगठन आदि संस्थाओं के दबाव में सबसीडी को समाप्त किया जा रहा है । आयोग की सिफारिशों के विपरित भारतीय कृषि को बड़े वैष्विक दानवों के सामने खोला जा रहा है ।
कृषि के लिए ऋण एवं बीमा की व्यवस्था
किसानों के व्यापक रूप से ऋण ग्रस्त होने को किसान आयोग ने गंभीर चिंता का विशय माना है । ऋण किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के पिछे एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में सामने आया है । खेती के लिए ऋण की समयानूसार व उचित मात्रा में आपूर्ति छोटी जोत वाले किसान परिवारों की एक प्राथमिक आवश्यकता है । आज जबकि किसानों का बहुत बडा हिस्सा जालिम सूदखोरों के चंगुल में फंसा हुआ है । आढती किसानों की कमाई का बडा हिस्सा डकार जाते है । सरकार द्वारा चलाई जाने वाली फसल के लिए ऋण योजनाओं का लाभ असल व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाता । बल्कि कई अध्ययनों में तो यह भी पाया गया है कि प्रभावशाली जमींदार व धनी किसान सरकारी बैंकों व संस्थाओं से सस्ती ब्याज दरों पर ऋण लेकर उसी धन को मध्यम व गरीब किसानों को उच्च ब्याज दरों पर ऋण के रूप में देते हैं ।
ऐसे में स्वामिनाथन आयोग सरकारी ऋण प्रणालियों के विस्तार की सिफारिश करता है ताकि असल गरीब व जरूरतमन्द किसानों तक मदद पहुंच सके । फसली ऋणों की ब्याज दरों को सरकार की मदद से 4 प्रतिशत साधारण तक घटाये जाने की जरूरत पर बल दिया गया है । संकट ग्रस्त किसानों से ऋणों की वसूली को कुछ समय के लिए रोक लगाने की सिफारिश आयोग करता है । इसके अलावा भविष्य की प्राकृतिक आपदाओं से किसानों को राहत प्रदान करने के लिए कृशि जोखिम फन्ड की स्थापना का सुझाव दिया गया है । महिला किसानों के लिए आयोग ने कृषि भूमि के स्वामित्व दिए जाने का समर्थन किया है , साथ ही महिला किसानों के नाम कृषि ऋण पत्र जारी करने की सिफारिश की है । कृषि में होने वाले संभावित नुकशान से निपटने के लिए थोडी राशी के आसान प्रीमीयमों पर फसल बीमा योजना को समुचे देश के स्तर पर विस्तार करने का सुझाव दिया गया है । आयोग के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में फसल बीमा कार्यक्रमों के प्रोत्साहन के लिए ग्रामीण बीमा विकास फंड की स्थापना की जा सकती है ।
खाद्य-सुरक्षा की समस्या
आयोग ने देश की खाद्य सुरक्षा को चिन्ताजनक बताया है । भारत में खाद्यान्नों की घटती प्रति व्यक्ति उपलब्धता और उनका असमान वितरण ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर संकट है । आयोग ने आंकडों की मदद से बताया कि 2004-2005 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की संख्या कुल परिवारों का 28 प्रतिशत यानि लगभग 300 मिलियन जनता बनती है । 2400 क्लोरी से नीचे प्रति दिन प्रति व्यक्ति उपभोग को गरीबी रेखा का पैमाना माना गया है । आयोग ने पाया कि देश की जनता का एक विषाल भाग 2400 क्लोरी की खपत भी नही कर पा रहा है । 1999-2000 में 2400 क्लोरी प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपभोग करने वाली जनता कुल ग्रामीण आबादी का 77 प्रतिषत बनती थी । बहुत से अन्य अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का संकेन्द्रण और भोजन का अभाव पहले से ज्यादा बढ रहा है ।
किसान आत्महत्याओं की रोकथाम के उपाय
पिछले कई वर्षों में किसानों ने एक बडी संख्या में आत्महत्या की है । आंध्राप्रदेश , कर्नाटक, महाराष्ट्र , केरल, राजस्थान, उडीशा , मध्यप्रदेश , आदि राज्यों से किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले सामने आए है । कृषि क्षेत्र में अग्रणी पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में भी किसानों द्वारा आत्महत्या के समाचार परेशान करने वाले हैं । स्वामिनाथन आयोग ने किसानों द्वारा आत्महत्या की समस्या को प्राथमिकता के आधार पर संबोधित करने की आवष्यकता को रेखांकित किया है । इस संदर्भ में निम्नलिखित सुझाव आयोग द्वारा दियेे गए है-
- राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का विस्तार किसान आत्महत्या के इलाको तक प्राथमिकता के आधार पर किया जाए ।
- किसानों की समस्याओं पर तेजी से जवाबदेही सुनिष्चित करने के लिए ऐसे राज्य स्तरीय किसान आयोग स्थापित किए जाएं जिसमें किसानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया हो ।
- ग्राम स्तर पर सभी फसलों को फसल बीमा योजना के तहत लाया जाए।
- बुढापे के समय मदद और स्वास्थ्य बीमा के प्रावधानों सहित एक सामाजिक सूरक्षा कवच बनाया जाए ।
- जल संरक्षण और संवर्धन सहित भूमिगत जल स्तर के पुनर्भरण को बढावा दिया जाए ।
- जल नियोजन को विकेंद्रित करके ग्राम स्तर पर जनता को जल प्रबंधन योजनाओं में षामिल किया जाए । ग्राम पंचायतों को पानी पंचायतों के रूप में सक्रीय किया जाए तथा जल स्वराज हासिल करना प्रत्येक गांव का लक्ष्य निर्धारित किया जाए ।
- कमतर जोखिम-कमतर लागत वाली कृशि तकनीक को बढावा दिया जाए जोकि किसानों को अधिकतम आमदनी प्रदान करने में मदद कर सके । क्योंकि वर्तमान समय में किसान फसल पीटने का सदमा सहने की हालत में नहीे है । आयोग ने महंगी तकनीक पर आधारित खेती जैसे बी टी कॉटन आदि को गलत माना है ।
- अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से किसानों का बचाव करने के लिए सीमा षुल्कों पर त्वरित कारवाई की आवष्यकता है ।
- कृशि संकट के गढों में ग्राम ज्ञान केन्द्र या ज्ञान चौपालों की स्थापना की जाए । ये मार्गदर्षन केंद्रों के रूप में काम करेगें तथा कृशि एवं गैर-कृशि आजिविकाओं के तमाम पहलूंओं पर जरूरत अनुसार एवं तेज गति से सुचनाएं प्रदान कर सकेगें ।
- लोगों में आत्मघती व्यवहार को पहले से चिन्हित करने की चेतना विकसित करने के लिए जन-जागृति अभियान चलाए जांए ताकि समय पर ऐसे किसानों को मदद की जा सके.
- आयोग न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने की व्यवस्था में सुधार करने की वकालत करता है ।
आयोग ने माना कि धान व गेहंू के अलावा अन्य फसलों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के तहत लाया जाए । बाजरा व अन्य पौशक खाद्यान्नों को स्थाई रूप से पी डी एस में षामिल किया जाए । आयोग ने सिफारिष की है कि फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल पर आयी औसत लागत से 50 प्रतिषत अधिक होना चाहिए ।
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कृशि ही बडे हिस्से को रोजगार प्रदान कराने वाला क्षेत्र बना हुआ है । आयोग के अनुसार भारत में रोजगार की रणनीति बनाने के मामले में दो चीजें हासिल करनी होगी । प्रथम, उत्पादक रोजगार के अवसर पैदा करना तथा अलग-अलग क्षेत्रों में रोजगार की गुणवता में सुधार करना जैसे असल दिहाडी में बढोतरी करनी है तो हमें उत्पादकता बढ़ानी पड़गी । आयोग जहां गैर-कृशि क्षेत्रों में रोजगार पैदा करने की सिफारिष करता है वहीं तुलनात्मक रूप से ज्यादा श्रम आधारित काम धन्धों को बढावा देने पर जोर देता है । ऐसा किए बिना कृशि का बोझ कम नहीं किया जा सकता । और ना ही बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी, छिपी हुई बेरोजगारी की समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है ।
अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से किसानों के बचाव का अर्थ है कि भूमंडलीकरण की अपनी नीतियों पर सरकार पुर्नविचार करे । भारतीय बाजारों में बाढ़ की तरह आने वाले बड़े साम्राज्यवादी देषों के अनाजों को रोका जाए । पहले विदेषी खाद्यान्नों के भारतीय बाजारों में घूसने पर रोक थी लेकिन आर्थिक उदारीकरण की आंधियां सभी पाबंदियों को बहाकर ले गई । प्रधानमंत्री वाजपेयी के षासन काल के दौरान 1429 उत्पादों से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिए गए । इसका अर्थ यह था कि अब विदेषी उत्पाद, जिसमें विदेषी कृशि उत्पाद भी षामिल थे, मनमर्जी की तादाद में भारतीय बाजारों में आ सकते थे । साम्राज्यवादी देषों में कृशि उत्पादों को भारी सबसीडी देकर तैयार किया जाता है । भारत जैसे देषों में सरकारें कृशि पर जितनी सबसीडी पूरी पंचवर्शिय योजना में नहीं देती, अमेरिका व युरोप में सरकारें केवल एक महिनें में इसके बराबर सबसीडी वहां के किसानों को प्रदान कर देती है । भूमंडीकरण के युग में अल्पविकसित देषों के कृशि उत्पाद विकसित देषों के कृशि उत्पादों से प्रतिस्पृधा में टिक नहीं सकते ।
जब स्वामीनाथन आयोग भारतीय कृशि उत्पादों को अंर्तराश्ट्रीय कीमतों से बचाने की बात करता हैं तो उसका अर्थ है कि भारत सरकार विष्व व्यापार संगठन की षर्तों का पालन करना बंद करे । जोकि लगभग असंभव है । क्योंकि भारत सरकार ने विष्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनकर इसकी सभी गैर बराबरी पूर्ण षर्तों को मान लिया है । अमेरिका जैसे बड़े साम्राज्यवादी देष इन्ही विष्व सगंठनों के माध्यम से गरीब देषों पर अपनी नीतियां धोपतें हैं। भारत सरकार पर विष्व व्यापार संगठन से बाहर आने के लिए दबाव बनाने के लिए एक जबरदस्त किसान-मजदूर आंदोलन की जरूरत है । खेती सहित सभी क्षेत्रों में बढ़ रहे साम्राज्यवादी दखल के खिलाफ मजदूर-किासनों के नेतृत्व संघर्श करना चाहिए । कृशि लागतों को कम करवाने यानि खाद बीज डीजल मषीनरी आदि को सस्ता करवाने के लिए सभी ग्रामीण जनता को एकजूट होना होगा ।
इसी प्रकार भूमि सुधार कानूनों को लागू करवाने के लिए व्यापक आंदोलन चलाने की जरूरत है । हालांकि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है । बेषक हमें स्वामीनाथन से आगे जाना होगा । इसके लिए हमें सहकारी या सामूहिक कृृशि को अपनाना होगा । जोकि कृशि में समाजवाद का आधार बनेगी । लेकिन भूमिहीन दलित समाजवाद तक इन्तजार नहीं कर सकते । आयोग ने सही ही कहा है कि भूमिहीनों को कम से कम एक-एक एकड़ कृृशि भूमि जरूर प्रदान की जाए । केवल ऐसा करने से ही भूमिहीन जनता जिसमें 99 प्रतिषत दलित आते हैं , के लिए आजीविका के साधन के रूप में कृशि भूमि का बन्दोबस्त किया जा सकेगा । तात्कालिक रूप से ग्रामीण बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकेगा । और सबसे महत्वपूर्ण, दलितों के सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न पर रोक लग सकेगी । दलित कुल ग्रामीण आबादी का 20 प्रतिषत बनाते हैं । जोकि आजीविका के लिए कृशि पर निर्भर करते है और इनके पास बिल्कूल भी कृशि भूमि नहीं है । एक ऐसा समुदाय जो आजीविका के लिए कृशि पर निर्भर हो और उसके पास कृशि भूमि ना हो या बिल्कूल कम कृशि भूमि हो , उसकी हालत का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है । इस प्रकार दलित समुदाय उच्च जातिय जमींदारों के मोहताज बन जाते हैं । इन परिस्थितियों में दलित सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक पहलकदमी खो देते हैं । श्रम बाजार में किसी प्रकार की मोलभाव करने की स्थिति में नहीं रहते ।
कृशि भूमि के साथ ही दलित एवं अन्य भूमिहीन समुदायों के लिए आवासीय भूखण्डों के लिए भी आंदोलन की जरूरत है । महात्मा गांधी ग्रामीण बस्ती योजना के हमारे अध्ययन में पाया गया है कि हरियाणा प्रदेष में इस योजना के तहत आबंटित किये गए 100-100 वर्ग गज के आवासीय भूखण्डों में बड़ी अनियमितता बरती गई है। गांव के सामंती तत्वों ने अलग-अलग तरीके से दलितों को इस योजना का लाभ नहीं उठाने दिया । इसी प्रकार पंचायती जमीनों में दलितों के लिए आरक्षित जमीन का सवाल भी उठाया जाना चाहिए । प्रोफेसर गोपाल अय्यर के अध्ययन से पता चलता है कि हरियाणा में ग्राम पंचायतें दलितों के कृशि भूमि संबंधी मामलों की सही देखरेख नहीं कर रही । उनके अनुसार 15 प्रतिषत षामलात भूमि प्रभावषाली जमींदारों के कब्जे में है जिन्हें सरपंच तथा अन्य अधिकारियों का सरक्षण प्राप्त है ।
स्वामीनाथन आयोग ने केवल किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं पेष किया बल्कि सारी ग्रामीण आबादी जिसमें दलित भी आते हैं, की समस्याओं का समाधान बताने की कोषिष की है । सस्ती ब्याज दरों पर सरकारी कर्ज सुनिष्चित करना केवल किसानों के लिए नहीं है । बड़ी संख्या में भूमिहीन दलित भी आयोग के इस उपाय के दायरे में आएंगे । सरकारी ऋणों की वसूली का स्थगन, ब्याज माफी आदि प्रावधान सभी ग्रामीण कर्जदारों के लिए हैं । यह सही है कि मौजूदा व्यवस्था में ग्रामीण आबादी की मुक्ति संभव नहीं है । फिर भी एक तात्कालिक राहत के रूप में स्वामीनाथन के उपायों की सराहना की जा सकती है । आयोग की सिफारिषों का व्यवहार में असर तभी संभव है जब सरकार इनके प्रति गंभीर रवैया अपनाए । वास्तव में ग्रामीण भारत की समस्याएं सरकार की प्राथमिकता कभी रही ही नही । वर्तमान में भारत की खेती के संकट का हल एकमात्र सहकारी एवं सामूहिक कृशि के माध्यम से हो सकता है । ऐसे उपाय केवल एक सच्ची जनतांत्रिक सरकार ही कर सकती है जो कि देष की कृशि को सहकारी एवं सामूहिक कृशि के रास्ते से समाजवादी कृशि में परिणित करने पर दृृढ़ हो ।